
details
Title | V.P. Singh, Chandrashekhar, Sonia Gandhi aur Main |
Author | SANTOSH BHARTIYA |
Publisher | Warrior’s Victory Publishing House |
Genre | Politics |
Price | 999/- |
Available as | Hardcover, Ebook |
Available On
“For Free Home Delivery of the paperback order your copy directly from publisher’s online store (Warrior’s Victory).”

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Title | V.P. Singh, Chandrashekhar, Sonia Gandhi aur Main |
Author | SANTOSH BHARTIYA |
Publisher | Warrior’s Victory Publishing House |
Genre | Politics |
Price | 999/- |
Available as | Hardcover, Ebook |
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“For Free Home Delivery of the paperback order your copy directly from publisher’s online store (Warrior’s Victory).”
About The Book
वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर और सोनिया गाँधी से जुड़ी यादें सिर्फ़ यादें नहीं हैं बल्कि यह भारत के उस राजनीतिक कालखंड का दस्तावेज़ हैं जो सबसे ज्यादा हलचल भरे रहे हैं। भारत का राजनीतिक इतिहास लिखने की परम्परा अभी प्रारम्भ नहीं हुई है लेकिन जब भी इतिहास लिखा जाएगा यह कालखंड उसका अनिवार्य अंग होगा। यह राजनीतिक इतिहास का वह हिस्सा है जिसकी घटनाएँ छुपी रहीं, लोगों की नज़रों में आई ही नहीं जबकि इसका रिश्ता राजीव गाँधी, वी. पी. सिंह, चंद्रशेखर और सोनिया गाँधी से सीधा रहा है और यह सिलसिला मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर खत्म होता है।
इस देश में वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर और सोनिया गाँधी का सही मूल्यांकन आज तक नहीं हुआ। वी.पी. सिंह ने इस देश में दलित और पिछड़े वर्ग के लिए सत्ता में हिस्सेदारी के पाँच हज़ार सालों से बंद दरवाज़े खोल दिए। उन वर्गों के मन में सत्ता में जाने का सपना जगाया जिन्हें पाँच हज़ार सालों से सिर्फ दमन का शिकार होना पड़ा था। वी.पी. सिंह ने सत्ता के समीकरण हमेशा के लिए बदल दिए, वह भी यह कहते हुए, “मेरी टाँग टूट गई तो क्या हुआ मैंने गोल तो कर दिया।” इसका महत्व इसलिए और ज़्यादा है क्योंकि वी.पी. सिंह ख़ुद उस वर्ग के नहीं थे, जिनके लिए उन्होंने यह ऐतिहासिक काम किया। उनका यह काम गौतमबुद्ध द्वारा किए गए सुधारों के नज़दीक उन्हें ले जाता है। उन्हें सवर्णों की घृणा का शिकार होना पड़ा। लेकिन अब सभी उस वास्तविकता को समझ रहे हैं जिसे वी.पी. सिंह ने 1989 में समझ लिया था। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के बारे में सोचा था। वे 10 प्रतिशत आरक्षण, सवर्ण गरीबों के लिए भी करना चाहते थे पर तब तक उनकी सरकार गिर गई थी। प्रधानमंत्री कार्यालय में वह प्रस्ताव पड़ा रह गया जिसे अब जाकर सरकार ने कार्यान्वित किया है। वी.पी. सिंह ने कभी अपने परिवार के लिए राजनीति में आने का रास्ता नहीं बनाया। वे चाहते तो परिवार के लोगों के लिए कुछ भी कर सकते थे पर उन्होंने देश को सर्वोपरि समझा। जीवन की आखिरी साँस तक वे गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, वंचितों, किसानों, और झुग्गी झोपड़ी वालों के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने कभी आराम नहीं किया। सभी विपक्षी नेताओं के आग्रह के बाद भी उन्होंने 1996 में प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया, बल्कि जिसे उस वक़्त प्रधानमंत्री बनाना चाहिए था, उसका प्रस्ताव रखा।
मेरी तो जान बचाने का श्रेय भी उन्हें ही है। मैं वी.पी. सिंह के पास बैठा था। वर्ल्ड सूफ़ी काउंसिल के मौलाना जीलानी, वी.पी. सिंह से मिलना चाह रहे थे। मैंने वी. पी. सिंह से निवेदन किया तो उन्होंने बुला लिया। जब पहुँचा तो मुझसे पहले मौलाना जीलानी वहाँ पहुँच चुके थे और बी. पी. सिंह के पास बैठे थे। मैं सीधे उनके पास पहुँचा और बातचीत में शामिल हो गया। लगभग 30 मिनट के बाद मुझे लगा कि मेरी तबियत खराब हो रही है। क्या हो रहा है, मुझे अंदाज़ा नहीं हो पा रहा था। मैं बाहर जाने के लिए उठा, लेकिन चक्कर आया में वहीं गिर पड़ा, वी.पी. सिंह को लगा कि शायद पेन वग़ैरह कुछ गिरा होगा जिसे उठाने के लिए मैं नीचे झुका हूँ पर मौलाना जीलानी मेरे सामने सोफ़े पर बैठे थे, उन्होंने मेरे मुँह से खून निकलते देख लिया था। उन्होंने तेज़ी से आकर मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया, मेरे मुँह से ख़ून के फ़व्वारे निकल रहे थे। तब तक वी.पी. सिंह ख़ून निकलते देख गंभीरता समझ गए थे। उन्होंने फ़ौरन अपने व्यक्तिगत डॉ. मोहसिन वली को फ़ोन किया। डॉ. वली कहीं जा रहे थे और इंडिया गेट के पास थे। वे फ़ौरन वहाँ पहुँचे। एम्बुलेंस नहीं आ पाई थी। डॉ॰ वली ने अपनी कार की पिछली सीट पर मुझे लिटाया और राम मनोहर लोहिया अस्पताल की तरफ़ तेज़ी से चल पड़े। वी. पी. सिंह पीछे अपनी गाड़ी में आए। लोहिया अस्पताल के डॉक्टरों ने कहा, “बस, यह थोड़ी देर के मेहमान हैं, हम इलाज नहीं करेंगे।” इस पर डॉ. वली ने कहा, ” बाहर भूतपूर्व प्रधानमंत्री खड़े हैं उन्हें पता चला तो अभी प्रधानमंत्री वाजपेयी और स्वास्थ्य मंत्री से बात करेंगे और दोनों ही यहाँ आ जाएँगे।” उधर वी. पी. सिंह ने कहा, “मैं जिम्मेदारी लेता हूँ आप फ़ौरन इलाज शुरू कीजिए। मेरे मुँह से ख़ून के फ़व्वारे निकल रहे थे। डॉक्टरों ने ख़ून की बोतलें चढ़ानी शुरू कीं। तब तक डॉ. वली ने मेरे घर फ़ोन कर दिया। परिवार के लोग आ गए। उन्होंने तय किया कि मुझे मैक्स अस्पताल ले जाएँगे | वी.पी. सिंह ने सहमती प्रदान की। आर. एम. एल की एम्बुलेंस ज़रूरी उपकरणों से लैस नहीं थी। मैक्स से ही एम्बुलेंस मँगवाई , मैं किसी तरह मैक्स पहुँचा। मेरा ऑपरेशन हुआ, मैं बच गया। लेकिन मैं बचता नहीं अगर वी.पी. सिंह ख़ुद राम मनोहर लोहिया अस्पताल नहीं गए होते और वहीं बैठे नहीं रहते। मैक्स में भी लगातार वी. पी. सिंह देखने आते रहे।
वे मुझसे हमेशा कहते थे,” आप राजनीति की उन घटानाओं को क्यों नहीं लिखते, आप ही को तो सबसे ज़्यादा मालूम है, और आप यह भी जानते हैं कि घटनाएँ कैसे घटीं।” मैं उनके जीवित रहते उनकी इच्छा पूरी नहीं कर पाया पर अब मैं उनकी इच्छा पूरी कर रहा हूँ।
चंद्रशेखर भारतीय राजनीति के विलक्षण पुरुष थे। बलिया के इब्राहिमपट्टी गाँव में पैदा होकर 8 मील पैदल चलकर प्राइमरी और जूनियर कक्षा में पढ़कर भारतीय राजनीति के सबसे चर्चित व्यक्तियों में शामिल हो गए। इंदिरा गाँधी के नज़दीक रहते हुए उन्होंने मोरारजी देसाई का विरोध किया। कांग्रेस के बँटवारे में, इंदिरा गाँधी के क़दमों को समाजवादी धार उन्होंने दी। राज्यसभा में बिरला के खिलाफ़ अकेले ही अभियान चलाया। जे. पी. के लिए पूरी पार्टी से लड़ गए। इससे पहले शिमला कांग्रेस में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य चुने गए और उन्होंने नेतृत्व समर्थित उम्मीदवार को हरा दिया। वे जे.पी. के ऐसे शिष्य थे जिन्हें जे.पी. ने कभी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था पर जनता ने उन्हें जे. पी. का राजनीतिक उत्तराधिकारी मान लिया था।
चंद्रशेखर, लाल बहादुर शास्त्री की तरह अभाव में पले, अपनी हिम्मत और संघर्ष क्षमता की वजह से देश के सर्वोच्च पद, प्रधानमंत्री पद तक पहुँचे। जब जनता दल की सरकार बनी तो उन्हें जो भी पसन्द नहीं था उसे नहीं किया और जब लोकसभा में उनकी सरकार के ऊपर विश्वास मत पर मतदान हो रहा था, वोट हो रहा था, तब यदि वह आधा घंटा रुक जाते तो. उनकी सरकार बनी रह सकती थी। लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं किया।
इतिहास कभी बेहद निर्मम हो जाता है। यदि उसने वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर को, दो साल भी सत्ता में रहने दिया होता तो शायद देश का इतिहास कुछ और होता। उन्होंने बहुत से महत्वपूर्ण लोग भारतीय राजनीति को दिए पर कभी किसी को अपने साथ बाँधा नहीं। 2004 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के आग्रह पर उन्होंने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपनी सारी ताकत लगा दी थी। उनके विचार उनकी किताबों में हैं, जो राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए टेक्स्ट बुक की तरह हैं।
चंद्रशेखर जब प्रधानमंत्री पद की ओर बढ़ रहे थे और जब जनता दल में विभाजन हो रहा था, उन्होंने अपने एक विश्वासपात्र के द्वारा मुझे संदेश भेजा कि यदि मैं वी.पी. सिंह का साथ छोड़कर उनके साथ आ जाऊँ तो में जो विभाग चाहूँ वे उसका मंत्री बना देंगे। मैंने उनके विश्वासपात्र से कहा कि मैं इस समय उनके साथ आने में असमर्थ हूँ और मैंने उनसे क्षमा माँग ली। चंद्रशेखर की ओर से ज्योतिषि आए उन्होंने भी कहा कि मैं, वी. पी. सिंह का साथ छोड़कर चंद्रशेखर के साथ चला जाऊँ, क्योंकि वी.पी. सिंह का जहाज़ डूब रहा है। मैंने उत्तर दिया कि डूबते जहाज़ से चूहे भागते हैं, जो कप्तान होते हैं जहाज़ के साथ डूब जाते हैं। मैंने ख़ुद मिलकर चंद्रशेखर जी से माफ़ी माँग ली। मेरा रिश्ता चंद्रशेखर जी से बहुत पुराना था और वी. पी. सिंह से बहुत नया था शायद इसलिए वे चाहते थे कि मैं उनके साथ आ जाऊँ, लेकिन जब चंद्रशेखर जी से मिलकर अपने मन की उलझन बताई तो उन्होंने कहा, “तुम बहुत सही कर रहे हो, अगर तुम विश्वनाथ का साथ छोड़ मेरे साथ आते तो मेरे मन में तुम्हारे लिए प्यार समाप्त हो जाता, तुम विश्वनाथ के साथ रहो।” शायद इसी साख ने मुझे हमेशा उनका विश्वासपात्र बनाए रखा और बहुत से राजनीतिक सवालों पर चंद्रशेखर जी ने मेरी राय मानी और हमेशा मुझे स्नेह दिया।
प्रधानमंत्री पद किसी के दरवाज़े पर थाली में सजकर पहुँचा हो और वह अपनी जगह दूसरे को प्रधानमंत्री बना दे ऐसा बहुत कम होता है, लेकिन सोनिया गाँधी ने ऐसा ही किया। जब राजीव गाँधी की हत्या हुई, उस समय भी वै प्रधानमंत्री बन सकती थीं पर उन्होंने नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाने का इशारा कर दिया था। दूसरी बार 2004 में वी. पी. सिंह ने उन्हें थाली में सजाकर प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव भेजा पर उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। लोग राज्यमंत्री बनने के लिए कुछ भी कर जाते हैं, वहाँ प्रधानमंत्री न बनना सोनिया गाँधी का ऐसा गुण है जिसकी जितनी तारीफ़ होनी चाहिए उतनी हुई नहीं। उन्होंने सफ़लतापूर्वक राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को राजनीति सिखाई। मेरा उनसे बहुत सम्पर्क नहीं रहा पर 2004 में जितना सम्पर्क रहा उसने मुझे उन घटनाओं के बीच रहने का अवसर प्रदान किया जिसकी वजह से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनें जबकि बनना सोनिया जी को था। मुझे उनकी तेज़ निगाहों का भी अनुभव हुआ। मैं एक शाम पाँच बजे वी.पी. सिंह जी के घर 1 तीन मूर्ति से निकला और अकबर रोड से होता हुआ किसी से मिलने जा रहा था अचानक कारों का एक क़ाफिला पास से गुजरा। मैंने कार धीमी कर बाएँ किनारे कर ली और धीमी गति से ड्राइव करने लगा। मैं समझ नहीं पाया कि किसका क्राफ़िला था, क्योंकि उन दिनों जितने भी बड़े लोग थे। क़ाफ़िले के साथ चलते थे और इस क्राफिले में तो एस. पी. जी की कारें थीं, एम्बुलेंस थी। दो दिन बाद सोनिया जी से उनके घर मुलाक़ात हुई, मुलाक़ात उसी अभियान के तहत हुई थी जिसे मैं निभा रहा था और जिसकी वजह से वी.पी. सिंह और सोनिया गाँधी में मुलाक़ात हुई थी, अचानक इस मुलाक़ात में सोनिया जी ने कहा, “मैंने आपको देखा था।” मैं समझ नहीं पाया और मैं चौंका कि इन्होंने कहाँ मुझे देख लिया। मैंने सवालिया निगाहों से उन्हें देखा। मुस्कुराते हुए सोनिया जी ने कहा,“ आप ड्राइव कर रहे थे अकबर रोड पर।” मैं उस घटना को भूल चुका था फिर अचानक याद आया कि अभी दो दिन पहले ही कारों का क़ाफ़िला मेरे पास से गुज़रा था। मैंने उनसे पूछा कि शाम के समय ? तो बोलीं, “हाँ, आप अकबर रोड पर कहीं जा रहे थे। उन्होंने तेज़ रफ़्तार से चलती कार के अन्दर से मेरी एक झलक देखी होगी। हालांकि चलती गाड़ी से पीछे की सीट पर बैठे हुए एक बड़े क़ाफिले के साथ ड्राइवर की सीट पर उनका मुझे देखना मेरे लिए एक अजूबा था। उन्होंने शायद मेरी एक झलक ही देखी होगी, पर उन्हें मेरा चेहरा याद रहा इस घटना ने मुझे संकेत दे दिया कि सोनिया गाँधी याद रखती हैं और उनकी नज़र कितनी तेज़ है। आस-पास उनके क्या घट रहा है इसका एहसास उन्हें हो जाता है और इस घटना ने मुझे यह भी संकेत दिया कि सोनिया गाँधी याद रखती हैं, उसे ही याद रखती हैं। जिसे वो याद रखना चाहती हैं, जिसे भूलना चाहती हैं उसे भूल जाती हैं।
भारतीय राजनीति के यह तीनों व्यक्तित्व उस सम्मान से वंचित रहे जो सम्मान उन्हें मिलना चाहिए था। हो सकता है यह किताब उस कमी को कुछ प्रतिशत पूरा करे। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मुझे इतिहास की उन घटनाओं को लिखने का मौक़ा मिला जिन्हें मुझे लिखना ही चाहिए था। मेरी यादों का सिलसिला लोकनायक जयप्रकाश से शुरू होता है तब से अब तक मैं बहुत से महत्वपूर्ण लोगों के सम्पर्क में आया, ये सभी लोग सिर्फ़ राजनीति से जुड़े नहीं रहे, बड़े सामाजिक व्यक्तित्व और बड़े पत्रकार भी थे। समय ने मुझे बहुत सी घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी बनाया इसके लिए मैं वक़्त का बहुत-बहुत आभारी हूँ। इतिहास के जिस हिस्से की आँखों देखी गवाही इस किताब में लिखी है उसे देर से लिखने के लिए मैं, वी.पी. सिंह जी से और चंद्रशेखर जी से क्षमा प्रार्थी भी हूँ।
यह किताब आपको उन घटनाओं से परिचित करवाती है जिसकी वजह से राजीव गाँधी को सत्ता से जाना पड़ा था और जिन वी. पी. सिंह की वजह से उनकी सत्ता गई थी उन्हीं वी. पी. सिंह ने उनकी पत्नी सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सारी घटनाओं का रुख मोड़ दिया था। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यह वी.पी. सिंह की इंदिरा गाँधी को श्रद्धांजलि थी जिन्हें वे अपने सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन में हमेशा आदरणीय स्थान देते रहे, वैसे ही जैसे तमाम मतभेदों के बाद भी और आपातकाल में जेल में रहने के बाद भी चंद्रशेखर हमेशा इंदिरा गाँधी के प्रशंसक बने रहे। ये दोनों हमेशा देश को लेकर चिंतित रहते थे, अपने राजनीतिक जीवन को लेकर नहीं। इन्हीं गुणों ने इन्हें महान बना दिया ।

















About The Author
भारत के सबसे ‘निर्भीक और विश्वसनीय पत्रकार के रूप में विख्यात संतोष भारतीय ने अपनी सामाजिक सक्रियता का सफ़र आठवें दशक के आरंभिक वर्षों में शुरू किया। उन्होंने अपने साथियों के साथ बिहार में ‘दाम बाँधो’ आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन को जे.पी आंदोलन का शुरुआती चरण माना जाता है। इस आंदोलन के चलते सबसे पहले जिन तीन लोगों की गिरफ़्तारी मीसा में हुई उनमें संतोष भारतीय भी थे। जयप्रकाश नारायण ने सारे देश में आंदोलन शुरू करने के लिए जिन अट्ठारह लोगों की टीम बनाई उसमें संतोष भारतीय एक सदस्य थे। बाद में संतोष भारतीय को जे.पी ने अपने संगठन ‘संघर्ष वाहिनी’ का ऊ.प्र का संयोजक नियुक्त किया । आपातकाल के बाद, जे.पी की सलाह पर ही वे पत्रकारिता में आए।
आनंद बाज़ार की बहुचर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ के विशेष संवाददाता के रूप में उन्होंने पत्रकारिता का सफर शुरू किया। दस साल तक यहाँ काम करने के बाद ‘द टेलीग्राफ़’ में भी विशेष संवाददाता रहे। 1985 में दूरदर्शन पर ‘करंट अफ़ेयर्स’ का प्रोग्राम ‘न्यूज़लाइन’ शुरू हुआ। संतोष भारतीय यहाँ भी विशेष संवाददाता रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में न्यूज़ के साथ फूटेज दिखाने के चलन का ‘आरंभकर्ता’ इन्हीं को माना जाता है। 1998 में उन्होंने ‘हेड-लाइन’ न्यूज़ और फ़ीचर एजेन्सी शुरू की जो उस समय के लगभग तीन हज़ार समचार पत्र और पत्रिकाओं को समाचार और फ़ीचर मुहैया करवाती थी। देश के पहले निजी न्यूज़ चैनल ‘जैन टीवी’ के लिए भी संतोष भारतीय ने ‘ट्रेंड सेटर’ प्रोग्राम बनाए और यादगार एंकरिंग की।
1986 में उन्होंने पूर्व सांसद और उद्योगपति कमल मोरारका के साथ ‘चौथी दुनिया’ अख़बार शुरू किया। भारत में, हिन्दी का यह पहला साप्ताहिक अख़बार है । इस अख़बार ने एक प्रधानमंत्री को हटाने और एक को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही ।
1989 में संतोष भारतीय ने फ़र्रुखाबाद से लोक सभा का चुनाव जीता। वे उस नौंवीं लोक सभा के सदस्य रहे जिसमें वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री थे और संसद में चंद्रशेखर, राजीव गाँधी, लालकृष्ण आडवाणी, सोमनाथ चटर्जी, एन.जी रंगा और रबी रे जैसे दिग्गजों की मौजूदगी थी। संसद सदस्य रहते हुए संतोष भारतीय ने ‘ प्रसार भारती बिल’ रखते हुए माँग की, कि संसद की कार्यवाही जनता को दूरदर्शन के माध्यम से लाइव दिखाई जानी चाहिए, यह नौंवीं लोक सभा थी पर दसवीं लोक सभा ने इसे मान दूरदर्शन पर लाइव दिखाना शुरु किया। सांसद रहते हुए उन्होंने ‘धर्मयुग’, ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’. ‘पंजाब केसरी’ और ‘करंट’ जैसी चर्चित पत्रिकाओं में सामाजिक विषयों पर लगातार लिखा। कुछ समय के बाद पुन: ‘चौथी दुनिया’ शुरू किया। इस अखबार के अंतर्गत लगभग 600 ऐसी ‘ब्रेकिंग स्टोरी’ की गईं, जिसने देश की राजनीति और उद्योग जगत पर कई बार निर्णायक प्रभाव डाला । लोक सभा और राज्य सभा में अनेक बार ‘चौथी दुनियां’ अख़बार की प्रतियाँ लहराई गईं और उन पर वाद-विवाद हुआ। संतोष भारतीय लगातार सभी महत्वपूर्ण न्यूज़ चैनलों के मुख्य पैनेलिस्ट के तौर पर दिखाई देते रहे हैं।
इन दिनों, चौथी दुनिया के अलावा संतोष भारतीय डिजिटल जगत का बहुचर्चित ब्रांड ‘लाउड इंडिया टी.वी के फाउंडर-एडिटर-डायरेक्टर हैं और लोकप्रिय विश्लेषक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों के त्वरित टिप्पणीकार के रूप में जाने जाते हैं। 2021 ‘ किसान आंदोलन काल’ के नाम से जाना जाएगा। किसानो के समर्थन में सही और सटीक जानकारी जनता को देने के लिए संतोष भारतीय इन दिनों चर्चा में हैं। उनके लाखों प्रशंसक और फॉलोअर्स हैं।
प्रकाशित पुस्तकें
निशाने पर-समय,समाज और राजनीति (2005),
पत्रकारिता – नया दौर नए प्रतिमान (2005),
चुनाव रिपोर्टिंग और मीडिया (2006),
दलित, अल्पसंख्यक सशक्तिकरण (2008 इसी वर्ष पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद Dalit and Minority Empowerment शीर्षक से छपा),
कमज़ोर दुनिया का रास्ता (2009)
