हमारे सांसद कुछ ज़्यादा ही सेंसेटिव हो गए हैं. उन्हें लगता है कि वे संसद के लिए चुन लिए गए हैं तो वे लोकतंत्र के देवता हो गए हैं. उन्हें कोई कुछ कह नहीं सकता है. अगर देश में भ्रष्टाचार की बात हो तो सांसदों को लगता है कि उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. बेकारी, महंगाई, लूट, ग़ैर बराबरी, विकास न होना, उन्हें लगता है कि इन मुद्दों के ऊपर कुछ भी कहना उनके ऊपर ऊंगली उठाना है. अगर बड़े पैमाने पर देखें तो इसमें कोई गलती भी नहीं है. संसद इस देश के लिए बनने वाली सारी योजनाओं के लिए ज़िम्मेदार है. जो भी दिशा-निर्देश और नीतियां संसद बनाती है, उन्हीं दिशा निर्देशों और नीतियों के ऊपर राज्य काम करते हैं. योजना आयोग केंद्र के पास है. बजट बंटवारे का अधिकार केंद्र के पास है. अगर देश में कुछ अच्छा होता है तो उसकी वाहवाही संसद लेती है, तो देश में जो कुछ खराब हो रहा है, उसकी ज़िम्मेदारी लेने से संसद क्यों डरती है. जब हम सांसदों की बात करते हैं तो सारे सांसदों को मिलाकर ही संसद के पांच साल का स्वरूप सामने आता है. जैसे सांसद होंगे, वैसे ही संसद काम करेगी. सांसद ज़िम्मेदार होंगे तो संसद ज़िम्मेदार होगी और सांसद ग़ैर ज़िम्मेदार होंगे तो संसद भी ग़ैर ज़िम्मेदार होगी.
आजकल अचानक सांसदों को लगने लगा है कि उनका अपमान हो रहा है, उनके ऊपर उठाया गया सवाल उन्हें बेइज्जत करने के लिए उठाया गया है. इसलिए कुल मिलाकर देश बहुत सावधानी के साथ अपनी प्रतिक्रिया दे, यानी सांसदों के ऊपर कोई न बोले. सांसदों को किसी चीज के लिए ज़िम्मेदार न ठहराया जाए. अगर हम उन्हें ज़िम्मेदार ठहराएंगे तो हम उनका विशेषाधिकार हनन करेंगे. अगर सवाल पूछें सांसदों से कि क्या आपको पता है, विशेषाधिकार का मतलब क्या है. आप विशेषाधिकार शब्द का इस्तेमाल धमकी के रूप में करते हैं. जबकि विशेषाधिकार सांसदों को इसलिए संविधान या संसद के नियमों में दिए गए, ताकि उनका उपयोग जब कोई अभूतपूर्व स्थिति आ जाए तब किया जाए, लेकिन हमारे सांसदों को अक्सर लगता है कि उनके विशेषाधिकारों का हनन हो गया. ऐसा शायद उन्हें इसलिए लगता है, क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियों का पालन छोड़ दिया है. चुनाव के अलावा हमारे सांसद कितनी बार अपने क्षेत्र में गए, यह जानना बहुत मुश्किल है. लोगों को अपने सांसदों से बातचीत करने के लिए भी जी-जान लगाना पड़ता है. वे उन्हें वैसे ही नज़र आते हैं, जैसे कभी-कभी, कोई त्योहार के अवसर पर अचानक सजा-धजा देवता सामने आ जाए. पार्टी के नेता भी जो संसद में हैं, वे भी लोगों के सामने तभी पहुंचते हैं, जब चुनाव का व़क्त हो या फिर उनके सम्मान का कोई अवसर हो. इस स्थिति में अगर कोई सवाल उठाए कि देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सड़क आदि मुद्दों पर सांसद क्यों नहीं बोलते तो सांसदों को लगता है कि यह उनका अपमान है.
आजकल अचानक सांसदों को लगने लगा है कि उनका अपमान हो रहा है, उनके ऊपर उठाया गया सवाल उन्हें बेइज्जत करने के लिए उठाया गया है. इसलिए कुल मिलाकर देश बहुत सावधानी के साथ अपनी प्रतिक्रिया दे यानी सांसदों के ऊपर कोई न बोले. सांसदों को किसी चीज के लिए ज़िम्मेदार न ठहराया जाए. अगर हम उन्हें ज़िम्मेदार ठहराएंगे तो हम उनका विशेषाधिकार हनन करेंगे. अगर सवाल पूछें सांसदों से कि क्या आपको पता है, विशेषाधिकार का मतलब क्या है. आप विशेषाधिकार शब्द का इस्तेमाल धमकी के रूप में करते हैं.
दो चीजों पर संसद में एक राय दिख जाती है. एक तो जब सुविधाओं में बढ़ोत्तरी का मसला हो या फिर सांसदों के अपमान का मामला हो. यह अभूतपूर्व एका होता है. सभी मिलकर सुविधाएं बढ़ाते हैं और सभी मिलकर अपने अपमान का बदला लेने के लिए बांहें चढ़ा-चढ़ाकर भाषण देते हैं. जिस जनता ने चुना, वह अगर कुछ कहे तो इनका अपमान! जिस जनता ने इन्हें इस लायक़ बनाया, वह अगर कुछ बोले तो विशेषाधिकार का हनन और अगर कुछ शब्दों का इस्तेमाल कर ले, जैसे शर्म, अपराध, गिरोह तो इन्हें लगता है कि इनका इतना ज़्यादा अपमान हो गया कि अब अगर सारी जनता को भी फांसी पर चढ़ाना हो तो चढ़ा देना चाहिए! पहले मनीष सिसोदिया, फिर अरविंद केजरीवाल और अब बाबा रामदेव, इनके खिला़फ सांसदों के तेवर देखने लायक़ हैं. इन तेवरों से अगर कोई बात कम्युनिकेट होती है तो स़िर्फ यह कि हमारे सांसद ग़ैर ज़िम्मेदारी की सीमा लांघ रहे हैं. संसद में उपस्थिति इनकी प्राथमिकता नहीं है, संसद में पास होने वाले बिल, संसद में होने वाली बहस इनकी प्राथमिकता नहीं है. स्वास्थ्य एवं शिक्षा के ऊपर जब बहस होती है तो कोई संसद में दिखाई ही नहीं देता, लेकिन अगर कोई ऐसा बयान आ जाए तो सब संसद में आकर भौंहे चढ़ाकर, आंखें निकाल कर टेलीविज़न के कैमरे को जनता मानकर एक विराट विलक्षण रूप ज़रूर दिखाते हैं. अगर सांसदों को जनता के सामने जाने में संकोच होता है, तो वह कमज़ोरी उनकी है.
हम यह बात सांसदों को ज़रूर बता देना चाहते हैं कि आप जितना जनता की आकांक्षाओं से दूर जाएंगे, उतना ही आप देश के लोकतंत्र के साथ मज़ाक करेंगे. कोई बात नहीं, अगर आपको लोकतंत्र पसंद नहीं आता. कोई बात नहीं, अगर लोकतंत्र आपकी रगों में नहीं है. कहने को लोकतंत्र है, लेकिन दिमाग़ से आप तानाशाही के समर्थक हैं. आप नहीं चाहते हैं कि कोई शख्स लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहे और आप उसका लोकतांत्रिक ढंग से उत्तर दें, राजनीतिक रूप से उत्तर दें. चूंकि आप यह नहीं चाहते हैं और फिर भी अपने को लोकतांत्रिक कहलाना चाहते हैं तो कहलाते रहिए, कम से कम जनता इस बात को नहीं समझेगी. जब संसद में कोई ऐसा बयान देता है तो मीडिया उसका बढ़-चढ़कर प्रचार करता है. हमारे दोस्तों को यह भी नहीं पता कि विशेषाधिकार हनन का मतलब क्या है, कब विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाया जा सकता है? एक भोंपू बजाना है और हमारे साथी भोंपू बजाने लगते हैं. जनता के खिला़फ जब आप लिखते हैं, बोलते हैं, उसकी आकांक्षाओं को जब अपने पैरों तले रौंदते हैं, तो वही होता है, जो पिछले चुनावों में आपके आकलन को लेकर हुआ. लोगों ने आपके आकलन का मज़ाक उड़ाया, आपकी रिपोर्ट को स़िर्फ मनोरंजन के तौर पर देखा. आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हमारे बहुत सारे साथियों में ज़िम्मेदारी का अभाव पैदा हो गया है. वे अपनी ज़िम्मेदारी समझते ही नहीं हैं, माफी मांगना तो दूर की बात है.
अभी हाल में एक घटना हुई. सोनिया गांधी के घर पर कुछ मंत्रियों की बैठक हुई और यह खबर चल गई कि यह बैठक तो कामराज प्लान की तरह की बैठक है, जिसमें चार मंत्रियों ने इस्ती़फा देने की पेशकश की. अंदर वे राजनेता हंस रहे थे और बाहर हमारे मीडिया के साथी कैमरा लिए उनके इस्ती़फे की प्रतीक्षा कर रहे थे. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि यह बैठक क्यों हुई. जबकि बैठक एक बहुत गंभीर विषय पर हई थी. अभिषेक मनु सिंघवी के खिला़फ एक सीडी आई थी और गृहमंत्री चिदंबरम की सीडी आने वाली है, ऐसी अफवाह तेज़ हो गई थी, जिसे लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ लोगों, जो ज़्यादा चालाक-चतुर माने जाते हैं, की बैठक गृहमंत्री चिदंबरम सहित सोनिया गांधी के घर पर हुई और लोकसभा की रणनीति के ऊपर बातचीत हुई. बेचारे नारायण सामी ने कहा भी कि यह संसद में रणनीति बनाने की बैठक है, लेकिन हमने नहीं माना. हमें लगा कि नहीं, यह तो कामराज प्लान-2 है. यह है हमारी समझ, यह है हमारी सोच. जब हम उन सांसदों का साथ देते हैं, जो जनता के हित के खिला़फ विशेषाधिकार हनन की बात करते हैं तो मैं माफी के साथ आपसे कहता हूं कि आपकी इज्जत जनता की नज़रों में कम होती है. क्या संसद में बलात्कार के आरोप लिए हुए लोग नहीं बैठे हैं, क्या संसद में दंगे का आरोप लिए लोग नहीं बैठे हैं, क्या संसद में भ्रष्टाचार का आरोप लिए लोग नहीं बैठे हैं, क्या संसद में ऐसे लोग नहीं बैठे हैं जिन्हें निचली अदालत से सज़ा हो चुकी है और वे अपील में हैं?
अगर ये लोग बैठे हैं तो किस आधार पर अगली पंक्तियों में बैठने वाले नेता फावड़े चलाकर, आंखें निकाल कर यह कहते हैं कि हम संसद के विशेषाधिकार का हनन नहीं होने देंगे यानी अपने विशेषाधिकार का हनन नहीं होने देंगे. उन्हें समझना चाहिए कि ये बातें उनके विशेषाधिकार हनन में नहीं आती हैं. अभी पिछले तीन महीनों में आपने बहुत बार मुंह की खाई है. आपने सेना के मामले में मुंह की खाई है. अब तो संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी कह दिया कि जनरल वी के सिंह की बातें ग़लत नहीं थीं. आईबी ने कह दिया कि उसके दफ्तर से कोई कागज़ लीक नहीं हुआ और सरकार ने भी मान लिया कि सेना की यह हालत है. उस समय जो लोग भौंहें चढ़ाकर, हाथ उठाकर, मुट्ठियां बांधकर धमकी दे रहे थे, वही आज फिर धमकी दे रहे हैं. इस बार जनता सामने है, थोड़ा संभलिए और थोड़ा समझिए.