यह राहुल के लिए है

ye rahulसंसद गरम लावे की तरह सुलग रही है. इस सुलगन का कितना अंदाज़ा सोनिया गांधी, राहुल गांधी और भाजपा के नेताओं को है, हमें नहीं पता पर हम चाहेंगे कि उन्हें पता चले, क्योंकि जो राज्यसभा में हुआ वह अगर आने वाले कल का संकेत है तो हमें यह मान लेना चाहिए कि कुछ अशुभ भविष्य में भी होने वाला है.

महिला आरक्षण बिल संसद में चौदह साल पहले गुजराल सरकार के ज़माने में रखा गया था. इस पर आम राय नहीं बन पाई इसलिए इसे संसदीय समिति के सुपुर्द कर दिया गया. एक ओर महिला संगठन इसे पास करने की मांग करते रहे, वहीं दलित पिछड़े और मुस्लिम समाज से जुड़े वर्ग कहने लगे कि इस बिल में उनके वर्गों के लिए अलग से कोटा निर्धारित किया जाए, अन्यथा उनके वर्ग की महिलाएं कभी संसद में आ ही नहीं पाएंगी. दोनों के तर्कों में अलग अलग दम तो है, पर सही तौर से दोनों ही अधूरे हैं. अब जब कि यह बिल राज्यसभा ने पास कर दिया है तो इस पर गहन विचार करने की ज़रूरत है. लेकिन यह तो देखें कि राज्यसभा में यह पास कैसे हुआ.

आठ मार्च को राज्यसभा में संसदीय समिति की रिपोर्ट के आधार पर बिल रखा जाना था. राज्यसभा में सांसदों ने हंगामा किया तथा बिल की प्रतियां सभापति हामिद अंसारी से लेकर फाड़ दीं. जो सांसद इसमें शामिल थे, उनकी पहचान डॉ. एजाज़ अली, कमाल अख्तर, आमीर अली ख़ान, साबिर अली, नंद किशोर यादव, वीरपाल सिंह यादव व सुभाष यादव के रुप में हुई. नौ मार्च को सभापति ने इन्हें बजट सत्र के लिए सदन से निष्कासित कर दिया. ये सातों सदन में धरने पर बैठ गए. इनका कहना था कि जब सरकार, भाजपा व वामपंथ ने दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के ख़िला़फ हाथ मिला लिया है तो उनके पास अंतिम चारा यही बचा है कि वे सदन में धरने पर बैठे रहें ताकि गंभीरता का अंदाज़ा कांग्रेस के लोगों को हो. पर इनकी आशा निराशा में बदल गई.

तीन बजे सदन प्रारंभ हुआ. ये सातों सांसद नारे लगाने लगे, मुस्लिम विरोधी, पिछड़ा विरोधी और दलित विरोधी बिल वापस लो. बीस मिनट इंतज़ार के बाद सभापति ने वोटिंग का फैसला लिया और सदन में मार्शल बुला लिए. सांसद हैरान रह गए. सदन में मार्शलों की संख्या सौ के आसपास नज़र आई. सातों को कंधों पर लाद कर सदन से बाहर निकाल दिया गया. देश ने यह सब शर्म से देखा. राज्यसभा के सभापति ने अगर राज्यसभा के पहले के सभापतियों की परंपरा का पता किया होता तो वे राज्यसभा की गरिमा बचा सकते थे. एक छोटा किस्सा हम बताना चाहेंगे.

शंकरदयाल शर्मा राज्यसभा के सभापति थे. कुछ सांसद उन्हें अनवरत परेशान करते थे. राज्यसभा के ही कुछ सदस्य उनके पास गए और कहा कि आप इन सांसदों का नाम लीजिए और सदन से कुछ दिनों के लिए निष्कासित कर दीजिए. शंकरदयाल जी ने बिना एक मिनट लगाए इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि यह लोकतंत्र है, तानाशाही नहीं, सभी को अपनी राय व्यक्त करने का हक़ है. मैं उस हक़ की रक्षा के लिए हूं. बाद में सदन में शंकर दयाल शर्मा इन सांसदों के परेशान करने के कारण रो तक दिए, पर उन्होंने इन्हें निकाला नहीं. काश हामिद अंसारी साहब शंकरदयाल शर्मा से कुछ सीख ले पाते. उनके फैसले पर कांग्रेस सांसदों की प्रतिक्रिया थी कि यह अशोभनीय हुआ. लोकतंत्र में बातचीत के अनगिनत रास्ते और तरीक़े हैं, अगर उन्हें नहीं अपनाएंगे तो आप तानाशाही और गुंडागर्दी के लिए रास्ता आसान करेंगे. क्या इसकी शुरुआत राज्यसभा ने नौ मार्च को कर दी है, यह बड़ा अनुत्तरित सवाल है.

आ़खिर महिला आरक्षण का तमाशा कराकर कांग्रेस और भाजपा कौन सी क्रांति करने जा रही है? न तो इससे महिला समाज बदलने वाला है, न ही आम महिलाओं की आर्थिक दशा में कोई बड़ा अंतर आने वाला है. फिर भी सभी राजनैतिक दलों में मारामारी मची है.

इस घटना से पहले ममता बनर्जी ने कहा कि सभी की सहमति से बिल पास होना चाहिए. प्रणब मुखर्जी ने एक दिन पहले मुलायम सिंह यादव और लालू यादव को दोपहर के भोजन पर बुलाकर बात की. उन्हें प्रस्ताव दिया कि पहले क़ानून बन जाने दें, बाद में उसमें कुछ संशोधन हो जाएगा, लेकिन दोनों नहीं मानें. कांग्रेस की कोर कमेटी बैठी, इसमें प्रधानमंत्री सहित सभी जबरन पास कराने में हिचक रहे थे पर सोनिया गांधी ने कहा कि आज ही बिल पास होना चाहिए. जब इन सात सांसदों को मार्शल के भेष में सीआईएसएफ के जवान कंधों पर लाद कर ले जा रहे थे, तब उन्हीं के दल के काफी सांसद अपनी सीटों पर बैठे या खड़े थे और बाद में अरुण जेटली का भाषण सुनते रहे. वाकआउट भी देर से किया, जबकि साथ जाना चाहिए था. शायद इसकी वजह मुलायम सिंह यादव और प्रणब मुखर्जी के साथ का भोज था.

बिल पास हुआ राज्यसभा में. लोकसभा के सांसद राज्यसभा की लॉबी में थे. उनमें बात हो रही थी कि आज नक्सलवादियों को हमने तर्क दे दिया कि हम उनकी बातें नहीं सुनते. वे ग़रीबों, दलितों आदिवासियों की हिस्सेदारी चाहते हैं, पर हम नहीं देना चाहते. सामाजिक न्याय को नकारने के राज्यसभा के पहले क़दम ने नक्सलवादियों की गोली संस्कृति में आज से बढ़ोतरी होने लगेगी. भाजपा ने राज्यसभा में मार्शलों के इस्तेमाल का समर्थन किया और सीपीएम ने भी. दोनों भूल गए कि आगे उनके सामने भी ऐसी स्थिति आ सकती है.

मैं वहीं खड़ा इन प्रतिक्रियाओं को सुन रहा था. इससे पहले संसद के केंद्रीय हाल में जितने भी सांसद मिले, किसी भी दल के, किसी ने भी इस बिल का समर्थन खुले मन से नहीं किया. सबके मन में आशंकाएं थीं, डर था, और विचार अलग अलग थे. मैं संसद की शपथ लेकर कह सकता हूं कि यदि बिना व्हिप के वोटिंग हो तो यह बिल कभी पास नहीं हो सकता. इसलिए नहीं कि सांसद महिला आरक्षण के ख़िला़फ हैं, बल्कि इसलिए कि वे इसके तरीक़े के ख़िला़फ हैं. सेंट्रल हॉल में कुछ पत्रकारों ने सांसद संदीप दीक्षित को घेर लिया और बिल के पक्ष में तर्क देने लगे. संदीप दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे हैं. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप लोग तो क्रांतिकारी हैं, क्यों नहीं सारे मीडिया में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण लागू कर देते, उसके लिए तो किसी क़ानून की ज़रूरत नहीं. सभी क्रांतिकारी पत्रकार न केवल चुप हो गए, बल्कि खिसियानी हंसी हंसने लगे.

अब उन चिंताओं को देखें जो संसद के ज़्यादातार सदस्यों की है और जिनमें भाजपा व कांग्रेस की बहुसंख्या शामिल है. इनका कहना है कि पिछले साठ सालों में किसी भी राजनैतिक दल ने महिलाओं को पंद्रह प्रतिशत तक टिकट नहीं दिए. जिन्होंने दिए, उन्होंने किसी सदस्य के मरने के बाद उसकी पत्नी या किसी राजनेता की बेटी या बहू को ही दिए. आम महिला कार्यकर्ता को तो शायद ही कभी अपवाद के रुप में लोकसभा या विधानसभा का टिकट मिला हो. कोई बंधन नहीं था कि टिकट न दिया जा सकता हो, उन राजनैतिक दलों ने भी नहीं दिए जिनकी अध्यक्ष महिला रही हैं. कांग्रेस, भाजपा वामपंथ से लेकर. यह बात उन सब पर लागू है जो संसदीय राजनीति में हिस्सा लेते हैं. लगभग सभी राजनैतिक दल सत्ता में कहीं न कहीं रहे हैं, और किसी ने महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं दी. इसका उत्तर कोई तो दे.

राजनैतिक दलों की सभाओं में महिलाओं की उपस्थिति न के बराबर होती है. राजनैतिक नेता अपने घर की महिलाओं के अलावा बाक़ी को चाहते हैं कि वह राजनैतिक सभा में शामिल हों. परिणाम होता है कि ज़्यादातर सभाओं में ग़रीब तबके की लाई गई महिलाएं ही शामिल होती है क्योंकि उस दिन उन्हें कुछ कमाई हो जाती हैं . जिसकी वजह से उस दिन भरपेट खाना मिल जाता है. समाज के ढांचे को बदलने की कोशिश राजनैतिक दलों ने कभी की ही नहीं.

इतना ही नहीं, इस बिल को जिसने भी बनाया या बनवाया है वह भी कमाल के दिमाग़ का आदमी है. इस बिल के सबसे कमाल के हिस्से के बारे में जनता को पता ही नहीं है. वह हिस्सा यह है कि तैंतीस प्रतिशत सीटें जो, आरक्षित होंगी,  वे हर पांच साल के बाद बदलेंगी. इसका परिणाम होगा कि तैंतीस प्रतिशत सीटों पर जीतने वाली महिलाओं में एक संख्या ऐसी महिलाओं की होगी, जो कोई काम नहीं करेंगी क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगली बार यह सीट उनकी नहीं रहने वाली है. वे उस कतार में आसानी से शामिल हो जाएंगी जो भ्रष्ट सांसदों की कतार है. ऐसी आशंका है पर यह केवल तैंतीस प्रतिशत महिला सीटों पर ही नहीं होगा, इसका असर बाक़ी तैंतीस प्रतिशत सीटों पर होगा जहां के सांसद को पता है कि उनके पास यह सीट अब नहीं रहने वाली क्योंकि यह अगली बार महिलाओं के लिए रिज़र्व हो जाएगी. छियासठ प्रतिशत सीटें इस नकारात्मक प्रभाव में आ जाएंगी. लूट खसोट का बाज़ार गर्म हो जाएगा. सांसदों का ख़ुद कहना है कि सांसद निधि भ्रष्टाचार और लूट के आरोपों से लबालब है. यह फ्लोटिंग सीट प्रावधान लूटखसोट और भ्रष्टाचार का खुला बाज़ार बन जाएगा, क्योंकि ज़िम्मेदारी किसी के कंधों पर होगी ही नहीं.

सवाल है कि होना क्या चाहिए. मौजूदा बिल जिसे राज्यसभा ने पारित किया सही नहीं है और इसमें यदि पिछड़े दलित और मुसलमानों को आरक्षण मिल भी जाए, तो भी वह सही नहीं है. दोनों से अपेक्षित परिणाम आज तो नहीं निकलने वाला. उदाहरण के तौर पर दलितों के लिए लोकसभा के आरक्षण को देखना चाहिए. साठ साल के बाद भी दलितों के लिए कुछ खास दलित सांसद भी नहीं कर पाए हैं. होना यह चाहिए कि हर जगह नौकरियों में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को मिलना चाहिए. चाहे वे पटवारी या लेखपाल हों,  पी सी एस अधिकारी हों या आईएएस अधिकारी हों, स्वास्थ्य सेवाएं हों या सामान्य सरकारी नौकरियां. इतना ही नहीं पुलिस, अर्धसैनिक बल और सेनाएं भी एक तिहाई नौकरियां महिलाओं के लिए आरक्षित होनी चाहिए. इससे महिलाएं आर्थिक रुप से, सामाजिक रुप से आत्मनिर्भर होंगी. साथ ही क़ानून में प्रावधान होना चाहिए कि प्राइवेट कंपनियां भी 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए रिज़र्व रखेंगी. अगले दस सालों में इसे कार्यरुप में परिणत कर दस साल बाद संसद में भी यह आरक्षण लागू होना चाहिए. सीटें फ्लोटिंग नहीं होनी चाहिए हर शिक्षण संस्था में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए रिज़र्व होनी चाहिए. यही न्यायपालिका में भी होना चाहिए.

अगर ऐसा नहीं होता तो अगले पचास सालों तक समाज के कमज़ोर तबके की महिलाओं के लिए न नौकरियों का रास्ता खुलेगा और न संसद का. वे हमेशा उन्हीं मूल्यों से जुड़ी रहेंगी जिन्हें मानने के लिए उनके पति या उनका समाज प्रतिबद्ध है. समाज बदलने की जगह वह उन्नीसवीं शताब्दी की ओर मुड़ जाएगा. इसका परिणाम होगा कि बंदूक़ लेकर अपना हिस्सा मांगने वाले वर्ग और ताक़त वर होंगे, क्योंकि उन्हें विश्वास हो जाएगा कि हमारे महान लोकतंत्र में कमज़ोर वर्ग की, या कमज़ोर वर्ग के लिए आवाज़ उठाने का कोई मतलब ही नहीं बचा है. मार्शल के भेष में सीआईएसएफ के जवानों को जिन्होंने राज्यसभा में देखा है, उन्हें उस समय राज्यसभा डरावनी दिखाई दे रही थी, सांसद चूहे जैसे बैठे थे और मार्शल के भेष में बाउंसर की तरह उन्हें खा जाना चाहते थे.

आज संसदीय लोकतंत्र चलाने और उसकी साख बनाए रखने में कांग्रेस और भाजपा का बड़ा हाथ है. इन्हें संसद को, उसकी परंपराओं को, गांधी को, नेहरु को याद रखना चाहिए. कहीं इतिहास यह न कह दे कि लोकतंत्र के बिखेरने की शुरुआत हुई और सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रणब मुखर्जी, शरद पवार, ममता बनर्जी के साथ भाजपा के लोग भी सो रहे थे.

वृंदा-सुषमा-अंबिका एक हैं

सोनिया गांधी को सुषमा स्वराज, वृंदा करात और अंबिका सोनी ने सफलतापूर्वक समझा दिया कि अगर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण का बिल पास हो जाता है तो वे दुनिया के इतिहास में अमर हो जाएंगी और उनका नाम कार्ल मार्क्स और लेनिन की तरह  लिया जाएगा तथा यह भी कि इसके बाद सारी दुनिया में महिलाओं के आरक्षण की मांग उठ खड़ी होगी. ये वे महिला नेत्रियां हैं जिन्होंने महिलाओं को बीस प्रतिशत भी  टिकट देने के लिए कभी लड़ाई नहीं लड़ी, और न ही इन लोगों ने रोज़गार के लिए रोज़ी रोटी के लिए, जिसकी वजह से महिलाओं को सचमुच आर्थिक आज़ादी मिल सकती है, कभी आवाज़ उठाई हो. इतना ही नहीं, ये तीनों और चौथी सोनिया गांधी, हमेशा निर्णायक स्थिति में रहीं, अगर वे चाहतीं तो ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को विधानसभा और लोकसभा में भेज सकती थीं, क्योंकि टिकटों के बंटवारे में इनकी मुख्य भूमिका रहती है. किसी भी फैसले का आधार यह बनना चाहिए कि उससे समाज बदलेगा या नहीं. बदलेगा तभी जब उसमें पिछड़े, ग़रीब, दलित और अल्पसंख्यकों की भागीदारी होगी. जिस तरह से इस बिल को लाया गया है, और जैसे पास कराने की कोशिश हो रही है उससे न सामान्य महिलाओं की भागीदारी होगी और न पिछड़ी, दलित और अल्पसंख्यकों की महिलाएं आएंगी. वे जो दिखने में महिला लगेंगी लेकिन पुराने मूल्यों और पुराने ढांचे को बरकरार रखने में अपने परिवार के मूल्यों को देश पर थोपेंगी. इससे अरंतविरोध बढ़ने की ज़्यादा संभावना है.

विरोध का मतलब निकाल बाहर…

राज्यसभा में साबिर अली, डॉ. एजाज़ अली, कमाल अख्तर, आमीर अली खान, नंद किशोर यादव, वीरपाल सिंह यादव व सुभाष यादव ने महिला आरक्षण बिल का विरोध किया. इनका कहना था कि जब कोई आवाज़ नहीं सुन रहा हो तो क्या करें. गांधी का तरीक़ा और भगत सिंह का तरीक़ा दो ही रास्ते बचते हैं. इन्होंने बहरे कानों में आवाज़ पहुंचाने के लिए गांधी का रास्ता चुना.

मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू यादव ने लोकसभा में विरोध का मोर्चा संभाला. मुलायम सिंह और लालू यादव तो सदन के वेल में चले गए. कम ही ऐसे मौक़े आए हैं जिनमें इनके जैसे वरिष्ठ नेता वेल में गए हों. संसदीय परंपरा में वेल में जाना विरोध का अंतिम तरीक़ा माना जाता है.

इन तीनों ने कांग्रेस को समझाने की पूरी कोशिश की लेकिन कांग्रेस नहीं मानी. और उसने मार्शलों का प्रयोग कर राज्यसभा में बिल पास करा लिया. इन तीनों ने सफलतापूर्वक देश में यह बात पहुंचा दी कि कांग्रेस मुसलमानों और पिछड़ों के ख़िला़फ है. कांग्रेस को राज्यसभा में वोटिंग के बाद अहसास हुआ कि उसे नुक़सान हो सकता है. इसके पहले कांग्रेस एक त्वरित सर्वे में आई बी से जानकारी ले चुकी थी कि यदि सरकार गिरती है और चुनाव होते हैं, तो उसे चार सौ से ज़्यादा सीटें मिल सकती हैं.

यहां प्रणब मुखर्जी बीच में आए. उनसे सांसदों ने, विशेषकर कांग्रेस सांसदों ने अपनी आपत्तियां जताई. आरक्षित सीटों के फ्लोटिंग होने की सभी को चिंता थी. सांसदों ने कहा कि पिछले साठ सालों में हम, दूसरा प्रणब मुखर्जी, दूसरा शरद पवार तो पैदा नहीं कर पाए, इस व्यवस्था में इन्हें राजनीति से अलग तो कर ही देंगे. ममता बनर्जी ने इन सारी हलचलों से अपने को दूर रखा, जिसका फायदा उन्हें बंगाल के आने वाले चुनावों में शायद मिले.

प्रणब मुखर्जी ने सोनिया गांधी को समझाया कि लोकसभा में मार्शल का इस्तेमाल आने वाले चुनावों में उल्टा पड़ेगा. इतनी जल्दबाज़ी की ज़रूरत नहीं है. साथ ही यह भी समझाया कि अगर इस तरह बिल पास हुआ तो फाइनेंस बिल पर सरकार को भाजपा और मार्क्सवादी मिलकर गिरा देंगे. सबूत में उन्होंने सोनिया गांधी को सुषमा स्वराज और वृंदा करात का गहराई से गले मिलता हुआ फोटो दिखाया. सोनिया को समझ में आ गया कि वह भाजपा के चंगुल में आधा फंस गई हैं. उन्हें शरद पवार का यह कथन भी बताया गया कि जब जब महिला विधेयक आया, सरकार गिर गई और मध्यावधि चुनाव हुए. ऐसा पहले भी दो बार हो चुका है.

हालांकि कुछ न्यूज़ चैनलों ने यह ख़बर चलाकर भ्रम फैलाने की कोशिश की कि निलंबित सांसदों ने अपने किये की माफी मांग ली है. चौथी दुनिया ने इन सातों सांसदों से बात की. सभी का एक सुर में यही कहना है कि उनका विरोध हर हाल में जारी रहेगा वे अपने स्टैंड पर क़ायम रहेंगे. लिहाज़ा माफी मांगने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता.


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