यह वसुंधरा के ख़िलाफ़ साजिश है

Santosh Bhartiyaराजस्थान की राजनीति को समझे बिना हम यह अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि भविष्य में देश में क्या होने वाला है. राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़  दिल्ली के भाजपा नेता शुरू से एकजुट थे. वसुंधरा राजे को एक बार राजनीति से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की टीम से हटाने की काफी मजबूत कोशिश की गई थी, लेकिन चुनाव में नेतृत्व वसुंधरा राजे को ही सौंपना पड़ा, क्योंकि राजस्थान में पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक राय से अपने केंद्रीय नेतृत्व को बता दिया कि वसुंधरा राजे के बिना राजस्थान में चुनाव नहीं जीता जा सकता. अब जब वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हैं, तो पहले तो उन्हें संपूर्ण निर्णय प्रक्रिया से एक तऱफ रखने की कोशिश की गई और अब उनके ख़िलाफ़  केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक महत्वपूर्ण सदस्य ने साजिश रची. दरअसल, यह सारी योजना भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों को एक किनारे करने के लिए बनाई गई थी, जिसमें पहला निशाना सुषमा स्वराज थीं और दूसरा निशाना राजनाथ सिंह थे. अभी 2019 तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कोई ख़तरा  नहीं है और उनकी पूरी पकड़ संघ और पार्टी पर है, लेकिन जो लोग पांच साल से आगे की राजनीति करना चाहते हैं, वे अपनी गोटियां अभी से बैठा रहे हैं.

केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक महत्वपूर्ण सदस्य ने सबसे पहले सुषमा स्वराज के ख़िलाफ़  कागज कुछ टीवी चैनलों के तक पहुंचाए, जिनमें से एक टीवी चैनल ने उसे अपना एजेंडा बनाया. वे कागज, जिनसे ललित मोदी और सुषमा स्वराज का रिश्ता ज़ाहिर होता था. ललित मोदी की महान बुद्धिमानी और केंद्रीय मंत्रिमंडल के उस सदस्य की चालाकी के कारण वसुंधरा का नाम इस लपेटे में आ गया और वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़  मीडिया में एक कैंपेन शुरू हो गया. इस कैंपेन को चलाने में संघ का वह धड़ा शामिल था, जो वसुंधरा राजे को पसंद नहीं करता है. वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़ और भी कागज कांग्रेस के नेताओं को पहुंचाए गए, जिनमें धौलपुर महल के स्वामित्व का सवाल वाला कागज भी था. कांग्रेस ने इसका भरपूर इस्तेमाल किया. टीवी चैनलों ने वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़  किसी भी ख़बर  को दिखाने में काफी रुचि दिखाई. और, अब जबकि राजस्थान में या देश के पैमाने पर ललित मोदी और धौलपुर महल का सिक्का नहीं चला, तो संघ ने एक साल पुराने मुद्दे को अपना हथियार बनाया. वह मुद्दा है राजस्थान में एक मंदिर को हटाया जाना. यह मंदिर मैट्रो के प्रस्तावित रूट में आ रहा था और अगर इसे नहीं हटाया जाता, तो मैट्रो का काम रुक जाता. वसुंधरा राजे ने इस मंदिर को हटाने का आदेश दिया और मैट्रो का रास्ता सुगम किया.

मुझे याद है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो ढाई सौ से ज़्यादा मंदिरों-मजारों, जो सड़क के बीचोबीच में थे या जिनसे आवागमन प्रभावित होता था या जो किसी प्रस्तावित मार्ग के लिए बाधा बन रहे थे, को नरेंद्र मोदी ने बेहिचक हिम्मत के साथ हटा दिया और उस समय विश्व हिंदू परिषद, जिसमें प्रवीण तोगड़िया प्रमुख थे, कुछ छोटे-मोटे पटाखे छोड़कर खामोश हो गए. नरेंद्र मोदी ने किसी की बात नहीं सुनी और उन्होंने उन ढाई सौ मंदिरों या मजारों को रास्ते से हटा दिया. लेकिन, जब वही काम वसुंधरा राजे ने शुरू किया और स़िर्फ एक मंदिर हटाया, तो संघ के लोगों को लगा कि यही मा़ैका है, जब वसुंधरा राजे को नाथा या बांधा जा सकता है. बस खुलेआम संघ ने, भारतीय जनता पार्टी के एक हिस्से ने राजस्थान में आंदोलन शुरू कर दिया और संयोग की बात यह कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के महत्वपूर्ण धड़े वसुंधरा राजे के ख़िलाफ़  इस आंदोलन में शामिल हैं.

मैंने अपनी जयपुर यात्रा में जानने की कोशिश की कि आ़िखर क्यों संघ वसुंधरा राजे का विरोध कर रहा है और ऐसा क्या है कि वसुंधरा राजे को संघ हटा भी नहीं पा रहा है. पहले प्रश्न का उत्तर यह मिला कि वसुंधरा राजे संघ के लोगों की सिफारिशें नहीं सुनती हैं. संघ यह चाहता था कि वसुंधरा राजे एक तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने शरणागत हो जाएं और दूसरा यह कि वसुंधरा राजे संघ के लोगों की बातें सुनने लगें.

वसुंधरा राजे दोनों ही मोर्चों पर अपनी असहमति जता चुकी थीं. ललित मोदी कांड ने वसुंधरा राजे को उस समय परेशान कर दिया, जब उन्होंने देखा कि पार्टी के प्रवक्ता सुषमा स्वराज का तो बचाव कर रहे हैं, लेकिन उनके पक्ष में एक शब्द नहीं बोल रहे हैं. वह दिल्ली आईं, दिल्ली में आकर उन्होंने एक तरीके से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सामने दंडवत होने का इशारा किया. नितिन गडकरी से मिलीं. कुछ नेताओं से गुप्त रूप से मिलीं और उन्होंने कहा कि वह वही करेंगी, जो केंद्रीय नेतृत्व चाहेगा. कुछ लोगों का अंदाज़ा है कि वसुंधरा राजे, केंद्रीय पार्टी को हर महीने जितने पैसों की अपेक्षा थी, उसे राजस्थान से नहीं भेज पा रही थीं. शायद इसका भी वादा वसुंधरा राजे ने पार्टी से कर लिया और इसके बाद ही पहली बार भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने वसुंधरा राजे का समर्थन किया और उनके पक्ष में बयान दिए.

मेरे दूसरे सवाल का जवाब जयपुर में मिला कि वसुंधरा राजे राजस्थान में 163 विधायक जिताकर लाईं. उनमें से 120 आज भी चट्टान की तरह वसुंधरा राजे के साथ हैं. केंद्रीय नेतृत्व को यह डर है कि अगर उसने वसुंधरा राजे को हटाने की कोशिश की या वसुंधरा राजे कोे हटाने की संघ की बात मानी, तो राजस्थान में पार्टी दो फाड़ हो जाएगी और सरकार के ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा. वसुंधरा राजे की सरकार 120 के बहुमत से आसानी से चल सकती है. और, अगर यह सिलसिला राजस्थान में शुरू हुआ, तो देश में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां वसुंधरा राजे के समर्थन में लोग न खड़े हो जाएं या  विधायक न खड़े हो जाएं. इसका मतलब यह कि वसुंधरा राजे के रूप में भारतीय जनता पार्टी एक नए राजनेता को जन्म नहीं देना चाहती. इसीलिए संघ की बात केंद्रीय नेतृत्व ने नहीं मानी और अब संघ राजस्थान में अकेले वसुंधरा राजे का सड़क पर विरोध करने की रणनीति पर चल रहा है.

दूसरी तऱफ राजस्थान में वसुंधरा राजे का कोई विकल्प नहीं है, न गृहमंत्री और न कोई मंत्री. गुलाब चंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी, ये दोनों संघ के नज़दीक हैं और वसुंधरा राजे के समर्थक नहीं माने जाते हैं. लेकिन, इन दोनों में यह क्षमता नहीं है कि ये वसुंधरा राजे का स्थान भर सकें. इसलिए जब तक राजस्थान में वसुंधरा राजे भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं, तब तक वहां भारतीय जनता पार्टी का राज्य है और जिस दिन वसुंधरा राजे हट गईं, उसी दिन भारतीय जनता पार्टी का राज्य राजस्थान में समाप्त हो जाएगा. यह सोच ग़लत है कि अगर केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे को हटा देगा, तो उनके साथ स़िर्फ 15 या 20 विधायक रह जाएंगे, बाकी सब पार्टी में बने रहेंगे. अपनी जयपुर यात्रा में वसुंधरा राजे के इस पहलू को देखते हुए उनके कई बुनियादी निगेटिव पहलू भी हमें मिले, जो हमें बड़ी रिपोर्ट के लायक लगे, पर राजस्थान में सरकार और संघ का द्वंद्व हल्का-हल्का दिल्ली में भी दिखाई दे रहा है. अभी स़िर्फ मध्य प्रदेश इस द्वंद्व से अछूता है. वहां पर संघ और सरकार एक राय से चल रहे हैं.

अगर नरेंद्र मोदी का रास्ता सा़फ करना है, तो फिर किसी भी हालत में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को अगले छह महीने के भीतर अपने पद त्याग कर केंद्रीय राजनीति में शामिल होना पड़ेगा और उनकी जगह पर दो नए लोग मुख्यमंत्री बनाए जाएं. ऐसा भाजपा और संघ के जानने वाले लोगों का आकलन है. हम नहीं जानते कि क्या होगा, लेकिन राजस्थान संघ और सरकार के द्वंद्व की एक मिसाल है. पर हमें यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी और संघ मिलकर इस द्वंद्व का निराकरण कर लेंगे और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इन हिचकोलों से बच जाएंगी. राजस्थान का दूसरा दुर्भाग्य विपक्षी पार्टी का है. अशोक गहलोत खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट लोगों को अपने साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं. उनके साथ स़िर्फ उनका जातिगत समूह है, राजस्थान के लोग नहीं. कांगे्रस को इस पहलू के ऊपर ध्यान देना चाहिए और अगर उसे वसुंधरा राजे का विरोध करना है, तो राजस्थान के तमाम नेताओं को सचिन पायलट के साथ खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए.


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