यह संसद के चेतने का समय है

jab-top-mukabil-ho1संसद को चेतना होगा. देश की सारी संस्थाओं पर विशेषकर संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल खड़े हो गए हैं. इन्हें सवालों के दायरे में आने से बचाना चाहिए, नहीं तो व्यवस्था पर विश्वास का संकट पैदा हो जाएगा. नए संकट के बादल दिखाई दे रहे हैं. इसरो ने एक कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए नियम-क़ानून तोड़ डाले. प्रधानमंत्री पर एक नया सवाल खड़ा हो गया, क्योंकि इसरो प्रधानमंत्री के पास है. क्या प्रधानमंत्री के पास इतना भी समय नहीं है कि वह अपने अधीन आने वाले मंत्रालयों का कामकाज देख सकें, क्योंकि अगर प्रधानमंत्री के संज्ञान में यह मामला आया होता तो यह नहीं हो पाता.

आख़िर क्यों प्रधानमंत्री की दिलचस्पी अपनी नाक के नीचे होने वाले घपलों पर नहीं है. सीवीसी थॉमस का सवाल कांग्रेस की किरकिरी करा ही चुका है. कांग्रेस पहले ख़बर फैलाती है कि सीवीसी अपने आप इस्ती़फा दे देंगे, लेकिन सीवीसी कहते हैं कि वह इस्ती़फा क्यों दें. वह सुप्रीम कोर्ट में भी आधिकारिक तौर पर अपने जवाब में कहते हैं कि जब सांसद उनसे ज़्यादा आरोपी हैं तो वह क्यों पद से हटें. क्या अब भी प्रधानमंत्री को नहीं सोचना चाहिए कि ग़लती कहां हो रही है. पर एक बात जो सभी जानते थे, अब बिना हिचक बोली जा रही है.

अब सांसद कहने लगे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को रोकना चाहिए, क्योंकि वह अब प्रधानमंत्री से भी इस्ती़फा मांगने लगा है. सभी का सभी पर अविश्वास है. किसी का किसी एक पर भी विश्वास नहीं है. यह स्थिति तो अपराधी समाज से भी बदतर है, क्योंकि अपराधी भी आपस में एक-दूसरे का विश्वास करते हैं. इस स्थिति में जनता कहां जाए? क्या किसान आत्महत्या करते रहें? नौजवान रोज़गार की तलाश में अपराधी बनने का रास्ता तलाशने लगें और मज़दूर नरेगा जैसे कार्यक्रम लागू होने के बाद भी भूखे मरते रहें?

विधायिका और कार्यपालिका आपस में लड़ रहे हैं. परिणामस्वरूप दोनों में कितनी गंदगी है, आरोपों के रूप में सामने आ रही है. पर नुक़सान तो संवैधानिक संस्थाओं का हो रहा है. उनकी स्थिति हास्यास्पद बनती जा रही है. जिस तरह प्रसार भारती के सीईओ लाली को राष्ट्रपति ने हटाया, ध्यान देने योग्य है. लाली ने भी प्रसार भारती की मर्यादा उछाली थी तथा उन्होंने सोचा था कि उन्हें हटाने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि वह कभी पूरी की ही नहीं जा सकेगी. अब वही पी जे थॉमस सोच रहे हैं और वैसा ही कर रहे हैं. संसद क्या करेगी और क्या सांसद देशहित को सर्वोपरि रखेंगे? लेकिन देशहित और पार्टी हित में अंतर्विरोध है. अक्सर पार्टी हित को देशहित मान लिया जाता है और कमोबेश सभी पार्टियां ऐसा ही कर रही हैं.

किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. वामपंथी पार्टियां नियंत्रित लोकतंत्र के दायरे में चलती हैं और ग़ैर वामपंथी पार्टियां परिवारों की संपत्तियां बन गई हैं. भाजपा में भी केंद्रीय स्तर पर इस बीमारी ने असर नहीं दिखाया है, पर पांच साल बाद यह पार्टी भी इसी बीमारी का शिकार दिखाई देगी, क्योंकि लगभग हर बड़े नेता का बेटा या बेटी राजनीति में या तो आ चुका है या आने वाला है. आना बुरा नहीं है, लेकिन बिना काम किए, बिना जनता के बीच गए, सीधे विधायक या सांसद बनना जनता के दर्द का मज़ाक उड़ाना है. कार्यकर्ता इसलिए निराश हो जाता है, क्योंकि तब ये अपने साथ अपने पुराने साथियों को भी राजनीति में घुसाने की कोशिश करते हैं. ऐसे साथी, जो पैसे वाले हैं और जिन्हें जनता की समस्याओं से कोई मतलब नहीं है. तो कार्यकर्ता करे क्या? वह राजनीति से निराश होने लगता है और तब राजनीति अपराधियों और ठेकेदारों के हाथों बंधक बन जाती है.

क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, दोनों इसके शिकार हैं. इसीलिए विधानसभाओं और लोकसभा में शोर तो होता है, लेकिन समस्याओं पर बात नहीं होती. जो बात उठा सकते हैं, वे खामोश रहते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे उनका नेतृत्व उनसे नाराज़ हो जाएगा. नेता सोचते हैं कि ज़्यादा बोलेंगे तो अगली बार टिकट नहीं मिलेगा और मिल भी गया तो साधन नहीं मिलेंगे. इस ऊहापोह ने भारत की संसदीय व्यवस्था को पंगु बनाने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है. बजट सत्र कितने तमाशे दिखाने वाला है पता नहीं, पर तमाशे होंगे ज़रूर. ये तमाशे सत्ता और विपक्ष दोनों की मर्जी के ख़िला़फ होंगे. समस्याओं का दबाव और घपलों की पराकाष्ठा इतनी हो गई है कि यह भ्रष्ट व्यवस्था भी उसे सहन नहीं कर पा रही है. एक जुमला आम हो चला है कि खाओ ज़रूर, पर इतना तो मत खाओ. ए राजा, आदर्श, कॉमनवेल्थ, सेना और अब इसरो आदि. न जाने क्या-क्या.

इन घोटालों को कोई सामने नहीं लाया. कूड़ा जब ज़्यादा दिनों तक साफ नहीं होता है तो बदबू करने लगता है. भ्रष्ट व्यवस्था में भ्रष्टाचार की इतनी अधिकता हो गई है कि यह सड़ांध पैदा करने लगी है. अब लोग सोचने लगे हैं कि आख़िर हो तो क्या हो.

जज खुलेआम भाषण में केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख को मंत्री बने रहने पर अफसोस जता रहे हैं और सांसदों की स्थायी समिति सरकार से कहती है कि वह जजों को रोके, क्योंकि उनकी टिप्पणियां उन्हें असहज बना देती हैं. सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के कामकाज के तरीक़ों को लेकर टिप्पणियां करता है तथा अब सांसद कहने लगे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को रोकना चाहिए, क्योंकि वह अब प्रधानमंत्री से भी इस्ती़फा मांगने लगा है. सभी का सभी पर अविश्वास है. किसी का किसी एक पर भी विश्वास नहीं है. यह स्थिति तो अपराधी समाज से भी बदतर है, क्योंकि अपराधी भी आपस में एक-दूसरे का विश्वास करते हैं. इस स्थिति में जनता कहां जाए? क्या किसान आत्महत्या करते रहें? नौजवान रोज़गार की तलाश में अपराधी बनने का रास्ता तलाशने लगें और मज़दूर नरेगा जैसे कार्यक्रम लागू होने के बाद भी भूखे मरते रहें?

सुप्रीम कोर्ट कहता है कि अनाज सड़ाने की जगह बांटो, यह हमारा आदेश है, पर सरकार इंकार कर देती है और कहती है कि यह बाज़ार में हस्तक्षेप होगा. कोई ऐसा नहीं है जो सुप्रीम कोर्ट से कहे कि कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट की धारा क्या जनता के लिए काम करने वालों पर ही इस्तेमाल होगी. सरकार खुलेआम उसकी राय की अवहेलना कर देती है तो क्यों कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट अपनी तऱफ से नहीं करता. इतिहास का यह ऐसा मौक़ा है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष बंटे नज़र नहीं आते, बल्कि वे संसद में हैं, सत्ता पक्ष में हैं और जो वहां नहीं है यानी जनता, वही इस पक्ष में है. संसद में जाने की इच्छा रखने वाले भी जनता के ख़िला़फ मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं. इसी में मीडिया के वे लोग भी हैं, जो संसद में पिछले दरवाजे से जाना चाहते हैं. गिरावट की पराकाष्ठा है. लगभग नंगे रूप में सामने आ चुका है कि मीडिया के तीन या चार लोग भाजपा और कांग्रेस के ज़रिए राज्यसभा में जाना चाहते हैं और इसके लिए वे अपने चैनल और अख़बार का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं. अब तो जनता के लिए मीडिया भी वैसा ही होता जा रहा है, जैसी संसद है. लेकिन इसमें भी एक आशा की किरण है.

सरकार जनता की समस्याएं न हल करे, उसके शांतिपूर्ण विरोध की आवाज़ न सुने और किसी प्रकार के विरोध को दबाने के लिए कमर कस ले, वहीं विपक्ष केवल संसद में अपनी आवाज़ उठा अपना कर्तव्य पूरा मान ले तो देश की जनता के एक साथ खड़े होने का समय नज़दीक आ रहा है, यह मानना चाहिए. हमारे यहां इजिप्ट नहीं होगा. उससे भयानक होगा. भारत की जनता को संघर्ष का दो बार का अनुभव है. एक बार गांधी के साथ अंग्रेजों से लड़ने का, दूसरी बार लोक नायक जयप्रकाश नारायण के साथ इंदिरा गांधी से लड़ने का. सरकार और विपक्ष को संभलना चाहिए. हमारी ख्वाहिश है कि देश को उतने बुरे दिन न देखने पड़ें.

 


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