यह देशप्रेम नहीं, देशद्रोह है

Santosh Bhartiya

एक मजेदार स्थिति पैदा हो गई है,  जिसका देश की अर्थव्यवस्था से तो रिश्ता है, लेकिन उसका इस्तेमाल राजनीतिज्ञ अपने हक़ में करना चाहते हैं. चाहे भारतीय जनता पार्टी के लोग हों या कांग्रेस के, बिना यह जाने कि इस मांग का देश की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, उसे उठाते जा रहे हैं और देश को तबाही के रास्ते पर ले जा रहे हैं. वन रैंक-वन पेंशन की मांग रिटायर हुए सैनिक उठाते आ रहे हैं और इस मांग को शुरू किया बड़े अफसरों ने. लेफ्टिनेंट जनरल, मेजर जनरल, ब्रिगेडियर, कर्नल और वे सारे लोग, जो रिटायर हो चुके हैं. सवाल कई सारे खड़े होे जाते हैं, जब यह मांग हमारे सामने आती है और तब लगता है कि दोनों पार्टियों के शीर्षस्थ लोग इसके बारे में कुछ नहीं सोच रहे हैं. न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सोच रहे हैं और न उनकी पार्टियां.

सेना के वर्तमान अधिकारी इस मांग के ख़िला़फ हैं और उनका कहना बिल्कुल सही है. उनका कहना है कि जिन यों ने यह मांग शुरू की, उन्होंने बहुत सस्ते में महानगरों में बड़ी-बड़ी कोठियां बना लीं और अब वे आज की राशि के ऊपर ज़्यादा पैसा पेंशन के ज़रिये लेना चाहते हैं. पेंशन का सिद्धांत है कि जिस आ़िखरी तनख्वाह के ऊपर आप रिटायर हुए, उससे संबंधित नियमानुसार पेंशन तय होती है. लेकिन, आप चाहते हैं कि जो आज की तनख्वाह पर अफसर या सिपाही रिटायर हों, वही पैसा उस समय रिटायर हुए अफसर या सैनिक को मिले, जो कि निहायत ग़लत है. अगर सेना के लिए वन रैंक-वन पेंशन की मांग लागू होती है, तो इसके बाद अर्द्धसैनिक बलों द्वारा यह मांग उठाई जाएगी कि हमने भी अपनी जान हमेशा जोखिम में डाली और हमें भी वन रैंक-वन पेंशन मिलनी चाहिए. इसके बाद पुलिस के रिटायर्ड अधिकारी यही मांग उठाएंगे और देश का आईएएस तबका यह मांग उठाने के लिए अभी से तैयारी कर रहा है.

देश के सामने इस समय आर्थिक मंदी का खतरा पैदा हो गया है. हम तीन प्रतिशत मुद्रा अवस्फीति (डिफ्लेशन)  की तऱफ चले गए हैं, बाहर से निवेश आ नहीं रहा है. सरकार की वे तमाम योजनाएं, जिनसे रा़ेजगार सृजित हो सकते थे, न शुरू हो पाई हैं और अगर वे अगले एक साल में शुरू भी हुईं, तो इतनी जल्दी उनका कोई असर नहीं दिखने वाला. व्यापारियों के पास धन नहीं है, नौकरियां सृजित नहीं हो रही हैं. ऐसी स्थिति में कई लाख करोड़ रुपये का खर्च सरकार के ऊपर आ जाना देशप्रेम नहीं, देशद्रोह है. हम मौजूदा व्यवस्थाओं को देखते हैं कि वे चरमरा रही हैं. उदाहरण के लिए टेली कम्युनिकेशन. न इंटरनेट चल रहा है, न फोन कनेक्ट हो रहे हैं. फोन एक बार कनेक्ट हो जाए, तो तीन बार कॉल ड्रॉप होती है. हम डिजिटल इंडिया बना रहे हैं,

बड़ी-बड़ी कंपनियों को पैसा जाने वाला है और ऐसे में, अगर यह ़खतरा भी हमारे सामने पैदा हो जाए कि 15 से 20 हज़ार करोड़ रुपये भूतपूर्व सैनिकों को मिलने हैं, तो यह पैसा कहां से आएगा, किसी को नहीं पता. इसके बाद अर्द्धसैनिक बल, फिर पुलिस और उसके बाद आईएएस अधिकारी. यह देश दिवालिएपन की कगार पर चला जाएगा.

इस मांग को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी वादे के रूप में छेड़ दिया और अब उनके मंत्री एवं भूतपूर्व सैन्य अधिकारी राज्यवर्धन सिंह राठौर कहते हैं कि चूंकि प्रधानमंत्री ने दो-दो बार वादा किया है, इसलिए यह लागू होगा. जब वादा किया था, तब प्रधानमंत्री को यह नहीं पता था कि कितने पैसे का बोझ आने वाला है. और, वह देश की अर्थव्यवस्था में किन योजनाओं की कटौती करके यह पैसा निकालेंेंगे? राहुल गांधी से तो अपेक्षा रखनी ही नहीं चाहिए कि वह इन सारी चीजों से कुछ सीख लेंगे. उनकी सरकार थी और उस समय भी वन रैंक-वन पेंशन की मांग उठ रही थी, तब उन्होंने इसे क्यों नहीं लागू किया? आज मौजूदा सरकार को परेशान करने के लिए वह देश को गर्त में ले जाने की मांग कर रहे हैं. राहुल गांधी को अर्थव्यवस्था का जरा भी ज्ञान होता, तो वह चुनाव में ़फायदा लेने के नाम पर या भूतपूर्व सैनिकों को अपने पाले में लाने की कोशिश की जगह देश को गिरती अर्थव्यवस्था के दायरे से निकालने वाले सुझाव देते.

इसलिए मैं प्रधानमंत्री से यह आग्रह करता हूं, पूरी सरकार से आग्रह करता हूं तथा कांग्रेस पार्टी से भी आग्रह करता हूं कि देश को बर्बाद करने वाली इस मांग कोे स्वीकार नहीं करना चाहिए. सेना के मौजूदा अफसरों से राय लेनी चाहिए और अगर उनकी राय इसके ख़िला़फ है, तब तो इस मांग को हरगिज लागू नहीं करना चाहिए.

टेलीविजन पर बार-बार आ रहा है कि अन्ना हजारे ने इसका समर्थन किया. आज मैं पहली बार कह रहा हूं कि अन्ना हजारे किसी चीज को नहीं समझते हैं. सारी जगह यह चर्चा है कि अन्ना हजारे की मौजूदा पेंशन छह हज़ार रुपये है, यह मांग लागू होते ही उनकी पेंशन तीस हज़ार रुपये हो जाएगी. अन्ना हजारे ने पहले मांग की कि देश से भ्रष्टाचार हटाने वाली संस्थाएं बननी चाहिए, यह मांग उन्होंने बीच में छोड़ दी. लोकपाल बिल पास हो गया, लोकपाल नहीं नियुक्त हुआ, इस मांग को भी छोड़ दिया. किसानों का सवाल उठाया, उसे भी छोड़ दिया. दस बार यह वादा करने के बाद कि मैं पदयात्रा करूंगा, देश भर में भ्रमण करूंगा, लोगों को तैयार करूंगा, ताकि किसानों के सवाल को देश और सरकार समझे. लेकिन, किया कुछ भी नहीं, हर बार बहाना बनाकर रास्ते से भाग गए. शब्द बहुत कठोर हैं, लेकिन मेरे दर्द से जुड़े हुए हैं. बहुत सारे नौजवानों की ज़िंदगी ऐसे लोगों के प्रेम में आकर बर्बाद हो गई, उनके साल बर्बाद हो गए, जिन्हें वे देश बदलने का अग्रदूत मानते थे.

सेना में जो सिपाही गए और जो आज मांग कर रहे हैं कि वन रैंक-वन पेंशन होनी चाहिए, हमारा अधिकार है, तो उनसे सवाल यह है कि क्या उन्हें किसी ने आमंत्रण भेजा था कि आप सेना में आइए और अपनी जान जोखिम में डालिए? आप क्यों सेना में गए? सेना से आने के बाद जो उस समय की सेवा शर्ते थीं, उनके अनुसार आपको जो मिल रहा है, उसके ऊपर संतोष करना चाहिए. सारे देश को आर्थिक भंवर में डालने वाली मांग करने वाले भूतपूर्व सैनिक आ़िखर कैसे देशप्रेमी हैं? क्या उन्हें देश के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं है?

इसलिए मैं सेना के मौजूदा अफसरों के साथ हूं, जो कम से कम देश के बारे में सोच रहे हैं, देश की अर्थव्यवस्था के बारे में सोच रहे हैं और आने वाले वक्त को देख रहे हैं. इसलिए राजनीतिक दलों की इस मांग को मैं देशभक्ति की मांग नहीं मानता. मुझे यह मांग निहायत स्वार्थी मांग लगती है और मैं आ़िखर में सभी भूतपूर्व सैनिकों से यह सवाल करना चाहता हूं कि आप सेना में देशप्रेम का ज़ज्बा लेकर गए थे और आज आप देश को बर्बाद करने की मांग कर रहे हैं. आप एक ऐसा मुद्दा उठा रहे हैं, जो स़िर्फ सेना के भूतपूर्व सैनिकों के लिए क्यों लागू हो? फिर पैरामिलिट्री फोर्सेस, बीएसएफ, सीआरपीएफ, पुलिस और आईएएस के लिए क्यों नहीं? आप इतने स्वार्थी कैसे हो गए? मैं इस मुद्दे पर चाहता हूं कि सरकार और विपक्ष देश को सामने रखकर सोचे, न कि चुनावी स्वार्थ को ध्यान में रखकर.

सेना के मौजूदा अफसर और सिपाही इसलिए भी मांग उठाने वाले भूतपूर्व सैनिकों और अधिकारियों के ख़िलाफ़  हैं, क्योंकि उन्होंने उस समय चुप्पी साध ली, जब भूतपूर्व सैनिकों का सरकारी नौकरियों में कोटा कम किया जा रहा था. दरअसल, भूतपूर्व अधिकारी आज भी भूतपूर्व सैनिकों को कुछ भी दिए जाने के ख़िलाफ़  हैं. इसीलिए आज सेना के भीतर इस मांग को लेकर गुस्सा है और अ़फसोस भी.


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