जस्टिस काटजू की बातों पर हंगामा क्यों

jab-top-mukabil-ho1आखिर जस्टिस काटजू ने ऐसा क्या कह दिया कि दिल्ली में तू़फान खड़ा हो गया. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जितने महान सरदार हैं, वे सब तन कर खड़े हो गए, जैसे लगा कि उनका बलात्कार होने वाला है और उन्हें अपनी इज्ज़त की रक्षा करनी है. जस्टिस काटजू ने जो कहा, उसे इस देश का हर आदमी सही मानता है, क्योंकि पत्रकार की ज़िम्मेदारी किसी भी सिपाही, किसी भी डॉक्टर और किसी भी न्यायाधीश से कम नहीं होती. पत्रकारिता एक ऐसा हथियार है, जिससे हर बुराई का सामना किया जा सकता है. पत्रकारिता विश्वास का वह संबल है कि जब कहीं भी आशा न रहे तो लोग पत्रकार के पास जाते हैं और ऐसे में अगर पत्रकार पैसे लेकर ख़बरें छापने लगे, अगर पत्रकारों के नेता अपने संवाददाताओं से कहें कि तुम हमारे लिए इतनी उगाही करके लाओ तथा टेलीविजन पर बैठने वाले लोग मूर्खता भरी बातें करें तो फिर जस्टिस काटजू अगर प्रधानमंत्री को पत्र न लिखें तो क्या करें? जस्टिस काटजू ने लिखा है कि पत्रकारों को समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र की जानकारी होनी चाहिए और यह स़िर्फ शास्त्रीय जानकारी नहीं होनी चाहिए. समाज में क्या चल रहा है, समाज में क्या कैसे घटता है, समाज में अंतर्विरोध कैसे पैदा होते हैं, समाज में कौन सी शक्तियां किन शक्तियों के ख़िला़फ आवाज़ उठाती हैं, समाज में कौन दबाता है और कौन दबता है, समाज में कौन विद्रोह करता है, व्यक्ति विद्रोह क्यों करता है, विद्रोह करने के लिए कौन लोग उकसाते हैं और क्या विद्रोह सत्य पर आधारित होता है या नकली कारणों पर, यह सारी जानकारी अगर एक पत्रकार को नहीं है तो वह पत्रकारिता के क्षेत्र में रहने लायक नहीं है. वैसे तो हर प्रोफेशन में का़फी भीड़ होती है, जो किसी न किसी तरह अपना स्थान बना लेती है और गीदड़ की तरह हुंआ-हुंआ कहकर अपने को शेर होने का भ्रम पैदा करती है, लेकिन वह भ्रम उस दिन टूट जाता है, जब असली शेर सामने आ जाता है.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हमारे साथी अपनी ग़लती को देखना नहीं चाहते हैं. मैं बहुत बड़ी बात नहीं कहता, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सरदारों में अधिकांश ऐसे हैं, जिन्हें हिंदुस्तान के सामाजिक बदलाव के इतिहास की जानकारी ही नहीं है, जिन्हें हिंदुस्तान में परिवर्तन की प्रक्रिया का सामान्य ज्ञान भी नहीं है. उसके फिजियोलॉजी और एनाटॉमी को तो दूर जाने दीजिए, उन्हें यह पता नहीं है कि हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन में वे कौन से देश थे, जिन्होंने हिंदुस्तान को आज यहां तक पहुंचा दिया, जहां पर हम खड़े होकर भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं. ये सारे लोग भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाने की बात करते हैं. इनके लिए लोगों के दु:ख-दर्द, तकली़फ, आंसू, बीमारी, भूख और मौत, यह सब कुछ टीआरपी है. अगर किसी चीज़ से टीआरपी नहीं मिलती तो ये टेलीविजन में उसे जगह नहीं देना चाहते हैं. इसलिए उनकी ख़बरों में बिहार ग़ायब है, उड़ीसा ग़ायब है, बंगाल ग़ायब है, नॉर्थ-ईस्ट ग़ायब है और दक्षिण भारत तो पूरा ग़ायब है. दिल्ली में बैठकर ये अपने को महान संत समझते हैं.

आज जस्टिस काटजू ने तालाब में पत्थर फेंका है. हमें अंदाज़ा नहीं था कि इस पत्थर की प्रतिक्रिया इतनी भयानक होगी. दरअसल, प्रधानमंत्री को उनका पत्र लिखना लोगों के मन की तकली़फ को शब्दों में बांधना है. बस एक पत्थर से हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सरदार डरते हैं. उन्हें लगा कि उनके ऊपर कुछ अंकुश आ जाएगा. जस्टिस काटजू अगर कहते हैं कि पत्रकारों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ज्ञान होना चाहिए तो क्या ग़लत कहते हैं, क्योंकि अगर यह ज्ञान नहीं होगा तो आप ख़बरों को नौकरी बनाएंगे. अगर आपको यह ज्ञान नहीं होगा तो आपके लिए उड़ीसा, बिहार एवं मध्य प्रदेश के पिछड़े इलाक़े और राजस्थान, ये सब विषय होंगे ही नहीं, आप प्राइम टाइम में हीरो-हीरोइन और फिल्मों के बारे में बात करेंगे. प्राइम टाइम में जब सारे लोग टेलीविजन को टकटकी बांधकर देखते हैं, उस समय आप उन्हें बहकाने वाले शो के प्रोमोज़ चलाएंगे और इतना ही नहीं, पैसा लेकर किसी भी घटना की अच्छाई या बुराई के बारे में बात करेंगे. मैं ये बातें इसलिए कह रहा हूं कि इन सब बातों से दर्द होता है. दर्द इसलिए होता है, क्योंकि हम बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जो पत्रकारिता को पत्रकारिता की तरह जीना चाहते हैं, जो पत्रकारिता को लोगों के दु:ख-दर्द का हिस्सा बनाना चाहते हैं, जो पत्रकारिता को इस देश को बदलने का हथियार बनाना चाहते हैं.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हमारे साथी अपनी ग़लती को देखना नहीं चाहते हैं. मैं बहुत बड़ी बात नहीं कहता, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सरदारों में अधिकांश ऐसे हैं, जिन्हें हिंदुस्तान के सामाजिक बदलाव के इतिहास की जानकारी ही नहीं है, जिन्हें हिंदुस्तान में परिवर्तन की प्रक्रिया का सामान्य ज्ञान भी नहीं है. उसके फिजियोलॉजी और एनाटॉमी को तो दूर जाने दीजिए, उन्हें यह पता नहीं है कि हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन में वे कौन से देश थे, जिन्होंने हिंदुस्तान को आज यहां तक पहुंचा दिया, जहां पर हम खड़े होकर भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं. ये सारे लोग भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाने की बात करते हैं

यह मैं किसी कमिटेड जर्नलिज्म की बात नहीं कर रहा हूं. मैं किसी भारतीय जनता पार्टी या वामपंथी पार्टी के अ़खबार जैसी पत्रकारिता की बात नहीं कर रहा हूं. मैं उस पत्रकारिता की बात कर रहा हूं, जिसके वाहक गणेश शंकर विद्यार्थी, गांधी जी, पराड़कर जी, अज्ञेय जी, धर्मवीर भारती और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे लोग थे. आज के बौने लोग ऊंची एड़ी की सैंडिल पहन कर, चाहे वे लड़के हों या लड़कियां, टेलीविजन के सामने बैठते ही लगता है कि जैसे उनके मुंह में सरस्वती का वास है. वे इस तरह बोलते हैं कि देश का हर आदमी हंसता है. कोई भी टेलीविजन की ख़बरों पर भरोसा नहीं करता है. अगर कहीं कोई घटना घटती है और ये उसका लाइव दिखा रहे होते हैं, फिर भी हम उस पर विश्वास नहीं करते, क्योंकि विश्वास का हनन खुद टेलीविजन पत्रकारिता ने हिंदुस्तान में कर दिया है.

मैं जब टेलीविजन पत्रकारिता की बात करता हूं तो इसका यह मतलब नहीं कि प्रिंट में सारे लोग ठीक हैं. प्रिंट में भी इसकी एक प्रतिस्पर्धा चल रही है. यहां भी वे चीजें कहीं नहीं दिखतीं, जिनसे लोगों की ज़िंदगी का रिश्ता हो. जिस तरह टेलीविजन वाले ग़रीबों के चेहरे को नहीं दिखाते कि सुंदर चेहरा न होने पर लोग चैनल बदल देंगे, वे एफ टीवी या एम टीवी पर चले जाएंगे, उसी तरह इन अ़खबारों को लगता है कि अगर सुंदर-सुंदर चीजें प्रकाशित नहीं करेंगे और ग़रीबी की दास्तान प्रकाशित करेंगे तो लोग हमारा अ़खबार नहीं खरीदेंगे. इससे बड़ी बेवक़ूफी और क्या हो सकती है. इसलिए देश के लोग विकल्प की तलाश में हैं. वह विकल्प की तलाश ही अ़खबारों की साख कम कर रही है, टेलीविजन की साख कम कर रही है और पूरी पत्रकारिता की साख कम कर रही है और दूसरी तरफ देश की आम जनता बैठकर आपस में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं एक-दूसरे से बांटती है. जस्टिस काटजू ने प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में ये तमाम चीजें व्यक्त की हैं. पत्रकारिता में रहने वाले लोग सोचें कि उन्हें किस तरीके का व्यवहार करना चाहिए, किस तरह की ख़बरें सामने लानी चाहिए. उन्हें सोचना चाहिए कि जिन चीजों को वे दिखा रहे हैं, वे लोगों के मन पर कितना ग़लत असर डाल रही हैं और इसलिए वह दिन दूर नहीं लगता, जब पत्रकारों को पकड़-पकड़ कर लोग सड़कों पर धकियाएंगे, इसलिए नहीं कि पत्रकार ने कोई सही चीज़ लिखी है, बल्कि इसलिए कि पत्रकार ग़लत चीजें क्यों लिख रहे हैं.

प्रधानमंत्री को लिखे पत्र से कम से कम हम सहमत हैं. अगर किसी ख़बर में, किसी रिपोर्ट में और किसी स्टोरी में उसका सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण न हो तो वह बेकार है. अगर लिखने वाले को यह समझ न हो कि वह जो लिख रहा है, उसका देश से कोई रिश्ता है या नहीं अथवा वह जो रिपोर्ट कर रहा है, उससे कहीं ऐसा तो नहीं कि दंगा भड़क जाएगा. अगर वह इन चीजों को नहीं समझता तो उसे पत्रकारिता में आने से रोकना चाहिए. हम जस्टिस काटजू की भावना से भी सहमत हैं और उनके लिखे पत्र से भी. हम आशा करेंगे कि जो बहस जस्टिस काटजू ने शुरू की है, वह ईमानदार तरीके से चलेगी और उसका कोई पॉजिटिव रिजल्ट, कोई सार्थक नतीज़ा हमारे सामने आएगा. इस बहस में देश की जनता को भी शामिल होना चाहिए, ऐसा हमें लगता है.


    Leave a Reply