इस सच को कहने की हिम्मत कौन करेगा?

jab-top-mukabil-ho1चुनावों में हार के बाद कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी द्वारा हार के कारणों की तलाश में की गई कोशिश और उसका क्या परिणाम निकला, यह जानना ज़रूरी है. पहले चुनावों में हार की वजह तलाशने और ज़िम्मेदारी तय करने के लिए पार्टी की समीक्षा बैठकें हुआ करती थीं. अब इन बैठकों का चलन बंद हो गया है. अब पार्टी एक कमेटी बनाती है, जिसमें 3 या 4 सदस्य होते हैं और उन्हें यह ज़िम्मेदारी दी जाती है कि वे पार्टी की हार के कारणों का पता लगाएं. कमेटी कई बैठकें करती है और एक रिपोर्ट दे देती है. उस रिपोर्ट पर न पार्टी के भीतर बातचीत होती है और न पार्टी के बाहर. यह राजनीतिक दलों के सिकुड़ते जाने का एक प्रमाण है. कम से कम दो पार्टियों के बारे में तो हमेशा बात होनी चाहिए, क्योंकि ये दोनों पार्टियां दो गठबंधनों की अगुवा पार्टी हैं, भारतीय जनता पार्टी एनडीए की और कांग्रेस यूपीए की.

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में क्यों हारी, यह जानने के लिए एक कमेटी बनाई गई, जिसके सदस्य शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे एवं ए के एंटनी थे. ए के एंटनी इस कमेटी के संयोजक थे, इसलिए इसे एंटनी कमेटी का नाम दिया गया. इस कमेटी ने कितनी बैठकें कीं, कितने लोगों से बातचीत की, नहीं पता. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भी बातचीत की या नहीं, नहीं पता. इस कमेटी ने एक रिपोर्ट लिखी, जिसने न कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं को चिंतित किया, न कांग्रेस अध्यक्ष को चिंतित किया और न प्रधानमंत्री को. इस रिपोर्ट ने कुछ बिंदुओं को रेखांकित किया, जैसे सांगठनिक कमज़ोरी, ज़मीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, कांग्रेसी नेताओं की आपसी गुटबाज़ी, नेताओं का बड़बोलापन, नेताओं के रिश्तेदारों को टिकट देना, प्रत्याशी चयन की ग़लत प्रक्रिया, बाटला हाउस एवं मुस्लिम आरक्षण जैसे मुद्दे उठाने का ग़लत असर और पार्टी में अनुशासनहीनता. इसके अलावा दो और छोटे कारण इस कमेटी ने बताए. जैसे पर्सेप्शन ऑफ करप्शन. मतलब भ्रष्टाचार कांग्रेस की वजह से है, इसका प्रचार और महंगाई.

इन सारे कारणों को देखें और इस कमेटी की रिपोर्ट की भाषा को देखें तो पाएंगे कि जैसे कांग्रेस संगठन कांग्रेस कार्यकर्ता चला रहे हैं, न कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह. ये दोनों बेचारे हैं, क्योंकि जितने कारण दिए गए, उनका ज़िम्मा एक तरीके से कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर ही थोप दिया गया. संगठन कमज़ोर है तो कार्यकर्ताओं की ग़लती, नेता बड़बोलापन कर रहे हैं तो कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी, प्रत्याशी चुने गए तो कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी. सवाल यह है कि इस कमेटी ने इन सारी चीज़ों या सारे कारणों के ज़िम्मेदार लोगों के नाम क्यों नहीं दिए या ज़िम्मेदारी क्यों नहीं तय की.

हम जब बाहर से देखते हैं और हमें देखना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां नहीं हैं. ये इस देश में लोकतंत्र को चलाने वाले दो मुख्य हथियार हैं. अगर इन दोनों हथियारों में गड़बड़ी आती है तो देश के लोकतंत्र के ऊपर इसका सीधा असर होता है. इसलिए हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि एंटनी कमेटी ने जितने कारण गिनाए हैं, उनके लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है या इस हार की ज़िम्मेदारी तय होती है तो वह सीधी-सीधी सोनिया गांधी की ज़िम्मेदारी है, उनकी कोर कमेटी की ज़िम्मेदारी है, उनके महामंत्रियों की ज़िम्मेदारी है और उत्तर प्रदेश में चुनाव के दूल्हे, चुनाव प्रचार के दूल्हे राहुल गांधी की ज़िम्मेदारी है. इन्हीं लोगों की वजह से संगठन कमज़ोर है, इन्हीं लोगों की वजह से नेताओं में गुटबाज़ी चल रही है, इन्हीं के अनदेखेपन की वजह से नेताओं ने बड़बोलापन किया, नेताओं के रिश्तेदारों को टिकट इनकी आंख और नाक के नीचे जानते-बूझते दिए गए. प्रत्याशियों के चयन का सिस्टम राहुल गांधी और उनके परम सखा कनिष्क सिंह ने तय किया. फ्रंट में दिग्विजय सिंह एवं परवेज हाशमी को रखा गया. इतना बड़ा संगठन, इतने बड़े नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और मोतीलाल बोरा! इन सभी के रहते पार्टी में अनुशासनहीनता कैसे बढ़ गई, कौन ज़िम्मेदार है? अगर माना जाए तो ये सभी ज़िम्मेदार हैं. उत्तर प्रदेश में तो लोगों ने इनकी महान बुद्धि और महानतम समझ का फायदा उठाया है.

जिस एक बात को यहां रेखांकित करना चाहिए, वह यह है कि हमारे देश में सरकार में जब पार्टी होती है तो पार्टी प्रमुख नहीं होती, सरकार प्रमुख हो जाती है. सरकार जो करती है, उसका फायदा या नुक़सान पार्टी को मिलता है. देश या उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के क्रियाकलापों, केंद्र सरकार द्वारा किए गए कामों का फायदा या ख़ामियाजा कांग्रेस को भोगना पड़ रहा है. हार का अगर कोई और बड़ा कारण है तो वह यह है कि लोगों का यह मान लेना कि कांग्रेस पार्टी भ्रष्टाचार से नहीं लड़ सकती, बल्कि वह भ्रष्टाचारियों को बचाने का रास्ता तलाशती है, जिसे एंटनी कमेटी ने पर्सेप्शन ऑफ करप्शन कहा. देश में महंगाई का सबसे बड़ा कारण कांग्रेस पार्टी है. ये दोनों चीज़ें सोनिया गांधी से कम और मनमोहन सिंह से ज़्यादा जुड़ी हैं. पर्सेप्शन ऑफ करप्शन के लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है तो मनमोहन सिंह हैं और प्राइस राइज का भी अगर कोई ज़िम्मेदार है तो मनमोहन सिंह हैं.

जिस एक बात को यहां रेखांकित करना चाहिए, वह यह है कि हमारे देश में सरकार में जब पार्टी होती है तो पार्टी प्रमुख नहीं होती, सरकार प्रमुख हो जाती है. सरकार जो करती है, उसका फायदा या नुक़सान पार्टी को मिलता है. देश या उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के क्रियाकलापों, केंद्र सरकार द्वारा किए गए कामों का फायदा या ख़ामियाजा कांग्रेस को भोगना पड़ रहा है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में कई प्रधानमंत्री हैं. मनमोहन सिंह जी के पास समय नहीं है कि वह उन प्रधानमंत्रियों से पूछें कि आप क्या कर रहे हैं. ये प्रधानमंत्री अपने-अपने मंत्रालयों में मनमाने फैसले लेते हैं. कोई कॉर्डिनेशन नहीं है और कॉर्डिनेशन न होने का सबसे बड़ा फायदा उन लोगों को मिलता है, जो ऑर्गनाइज्ड या सिस्टमेटिक भ्रष्टाचार के एक्सपर्ट हैं. इसलिए जो भ्रष्टाचार पहले व्यक्तिगत हुआ करता था या व्यक्तिगत आधार पर होकर कुछ लाख या कुछ करोड़ में बंधकर रह जाता था, अब वह लाखों करोड़ में पहुंच चुका है, क्योंकि मनमोहन सिंह की सरकार ने मनमोहन सिंह की अगुवाई में भ्रष्टाचार को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह एक ऑर्गनाइज्ड सेक्टर में बदल दिया है. इसलिए महंगाई बढ़ रही है और महंगाई जानबूझ कर बढ़ाई जा रही है. दुनिया में यह चीज़ महंगी है, दुनिया में वह चीज़ महंगी है, दुनिया में ऐसा है, दुनिया में वैसा है, कहकर देश के लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है.

हमने कई बार आंकड़े दिए और रिपोर्ट छापी कि यह ग़लत है, लेकिन उस ग़लत को सही साबित करने में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह जुटी हुई है. अफसोस इस बात का है कि इस कांग्रेस पार्टी में एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो हिम्मत करके यह कह सके कि इन कारणों को, जिन्हें एंटनी कमेटी ने शीला दीक्षित और सुशील कुमार शिंदे के साथ मिलकर रेखांकित किया है और पहचान की है, उनके लिए किसे ज़िम्मेदार माना जाए. यह मांग कांग्रेस के भीतर उठाने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है. 125 साल पुरानी कांग्रेस, जो अपने सीने पर महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे शानदार तमगे लगाए हुए है, उसमें आज एक भी ऐसा आदमी नहीं है, जो यह सवाल उठाए कि अगर कारण ये हैं तो इनका ज़िम्मेदार कौन है. न कोई यह कहने की हिम्मत रखता है कि पर्सेप्शन ऑफ करप्शन और प्राइस राइज की ज़िम्मेदार तो सरकार है. सरकार ने क्यों इस मामले पर इतनी ढील दे रखी है या क्यों पर्सेप्शन ऑफ करप्शन और प्राइस राइज के साथ खड़ी दिखाई दे रही है. अगर कांग्रेस के भीतर यह सवाल उठाने वाला कोई नहीं है तो इसतरह की कमेटियां सिवाय बुद्धि विलास के और कुछ नहीं हैं.

भारतीय जनता पार्टी के बारे में भी ऐसी ही बातें कह सकते हैं, क्योंकि भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी लगभग हर जगह असफल हुए हैं, लेकिन वह दूसरी बार अध्यक्ष बनने के लिए जोड़-तोड़ बैठा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में वह क्यों सिमट गए, इसके बारे में वह बात नहीं करना चाहते हैं. शायद भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता इस बारे में बात नहीं करना चाहता. भारतीय जनता पार्टी भी उसी अवसाद का, उसी रोग का शिकार है, जिसकी शिकार कांग्रेस पार्टी है. अब भारतीय जनता पार्टी में तब तक कोई चेतना नहीं आएगी, जब तक लालकृष्ण आडवाणी अपने गुस्से का इज़हार सार्वजनिक रूप से नहीं करेंगे. अफसोस इस बात का है कि हार के कारण सबको पता हैं, आईडेंटिफाई कर लेते हैं, लेकिन उन कारणों को दूर करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया जाता. हम जनता को एक और नए भ्रम में पड़ते हुए देखते रहते हैं.


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