एक फिल्म आई थी, जिसका एक बहुत मशहूर संवाद था, तारीख़ पर तारीख़, तारीख़ पर तारीख़, तारीख़ पर तारीख़. दरअसल, यह वाक्य हमारी न्याय-व्यवस्था की उस कमज़ोरी को दर्शाता है, जिसमें न्याय पाने की चाह लिए पीढ़ियां गुज़र जाती हैं. लेकिन फिर भी न्याय नहीं मिलता. सच तो यह है कि आज देश के जो हालात हैं, उनके ऊपर टिप्पणी करने से भी लोग अलसा जाते हैं. एक घोटाला सामने आता नहीं कि दूसरा घोटाला नज़र आ जाता है. हक़ीक़त यह है कि लोगों ने अब घोटालों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है. पिछले 30 सालों से, जो एक नाम सबके दिमाग़ में घूम रहा है, वह बोफोर्स है. बोफोर्स की कुल रक़म 64 करोड़ थी और देश में वह नाम ऐसा गूंजा कि इसने राजीव गांधी की सत्ता ही पलट दी और दरअसल, इसी वजह से वीपी सिंह नाम का एक नया प्रधानमंत्री देश को मिल गया. यह अलग बात है कि वीपी सिंह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता में आए थे, लेकिन बाद में उन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही छोड़ दिया और सामाजिक परिवर्तन के मुद्दे को पकड़ लिया. सच तो यह है कि यह आज भी बहस का विषय है कि अगर वीपी सिंह भ्रष्टाचार के मुद्दे को पकड़े रहते, तब देश की जनता ज़्यादा लाभान्वित होती या जिस तरह उन्होंने सामाजिक बदलाव से जुड़ा मंडल का मुद्दा या मंडल कमीशन को लागू करने का फैसला लिया, उससे देश ज़्यादा लाभान्वित हुआ है. वीपी सिंह के बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और आम चुनाव के बाद नरसिम्हा राव के हाथ में सत्ता आई. उसी समय मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने.
अगर कोई भी पिछले दस साल में डॉलर और रुपये के मूल्य का अध्ययन करे, तो मनमोहन सिंह द्वारा बताए गए विकास के सपने का चिट्ठा अपने नंगे रूप में हमारे सामने आ जाएगा और जब हमारे माननीय प्रधानमंत्री कहें कि मुल्क 1991 की अर्थव्यवस्था में फिर से पहुंच गया है, तो ऐसे प्रधानमंत्री को क्या कहें, जिसने देश को 22 साल पीछे धकेल दिया. नौजवानों की आंखों से सपने और भविष्य छीन लिए. क्या करें ऐसे प्रधानमंत्री का?
मनमोहन सिंह ने देश को जो आशाएं दीं और जो रोडमैप दिया, उसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि अगले 20 सालों में देश इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले, ग़रीबी के मामले और बिजली के मामले में बहुत हद तक आत्मनिर्भर हो जाएगा.आज मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं और वे कह रहे हैं कि देश की आर्थिक हालत सन 91 जैसी हो गई है. इसका मतलब पिछले 22 सालों में देश में क्या हुआ? क्या यह देश नादान लोगों के हाथों में अपनी इज्ज़त लुटा रहा था या फिर एक सोची-समझी साज़िश के तहत इस देश को ऐसे मकड़जाल में फंसा दिया गया, जहां से इसका निकलना अब असंभव दिखाई दे रहा है. मनमोहन सिंह के पहले भाषण और देश को न्यू लिबरल पॉलिसी या नव उदारवादी बाज़ार व्यवस्था के हवाले करने के बाद जो पहला घोटाला सामने आया, वह पांच हज़ार करोड़ रुपये का था. पांच हज़ार करोड़ रुपये विदेशी बैंकों ने हिंदुस्तान से बाहर ट्रांसफर कर दिए. आश्चर्य की बात तो यह है कि इस घोटाले की मनमोहन सिंह ने कोई जांच ही नहीं कराई और ग़रीब हिंदुस्तान के पांच हज़ार करोड़ रुपये इस लूट की भरपाई करने में झोंक दिए गए. एक भी बैंक के ख़िला़फ़ कार्यवाई नहीं हुई. ऐसी स्थिति में क्या यह मान लिया जाए कि इस पैसे को बाहर भेजने में स्वयं मनमोहन सिंह भी कोई भूमिका निभा रहे थे? सन 88 में 64 करोड़ का बोफोर्स और सन 92 में पांच हज़ार करोड़ का बैंक स्कैम, दोनों की कोई तुलना ही नहीं. नव उदारवादी नीतियों ने पूरे विपक्ष को अपने मोहजाल में फंसा लिया. इसके बाद योजनापूर्वक देश अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के बताए हुए रास्ते पर चलने लगा. देश की खेती अमेरिका के हवाले हो गई और देश में बीज का समझौता हो गया. इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे देश के अपनी बीज-व्यवस्था की जगह विदेशों से बीज लाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई और आज हालत यह है कि अमेरिकन कंपनियां जिस दिन चाहें, उस दिन हमें भूखा मार सकती हैं, क्योंकि अब बीज से बीज पैदा नहीं होता. अटल जी की सरकार इन फैसलों को पलट नहीं पाई. इसके दो कारण थे, एक तो स्वयं भारतीय जनता पार्टी नव उदारवादी बाज़ार व्यवस्था के पक्ष में खड़ी थी और दूसरे नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने देश की तरफ़ से समझौते इतनी सख्त भाषा में किए थे कि दूसरी सरकारें, जिनमें देवगौ़डा और गुजराल की सरकार भी शामिल थीं, कुछ कर नहीं पाईं. इन समझौतों को बदलने और देशहित के फैसले लेने के लिए जैसी हिम्मत वाला प्रधानमंत्री चाहिए था, वैसा प्रधानमंत्री हमें नहीं मिला. अपनी सारी ईमानदारी के बावजूद अटल जी राष्ट्रहित में फैसले नहीं ले पाए और जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, तो उनके सामने कोई अवरोध था ही नहीं.उन्होंने फैसले तो लिए, उन पर अमल भी किया, लेकिन उसका असर यह हुआ कि देश एक नए संकट के कगार पर खड़ा हो गया. कम से कम सत्तर छोटे-बड़े घोटालों की फेहरिस्त है और ये घोटाले इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि मनमोहन सिंह ने जिस रास्ते पर देश को धकेल दिया है, वहां देश के 80 प्रतिशत लोगों के सपनों के लिए कोई जगह है ही नहीं. पांच हज़ार करोड़ का घोटाला सन 92 में और 26 लाख करोड़ का कोयला घोटाला मनमोहन सिंह के प्रधान-मंत्रित्वकाल में, लेकिन इसके बावजूद पूरी सरकार घोटालों को रफ़ा-दफ़ा करने में सफल हो गई. मनमोहन सिंह के प्रधान-मंत्रित्वकाल में मनरेगा जैसी योजनाओं का भी इस्तेमाल देश के ग़रीब और देश के गांव को भ्रष्ट बनाने के लिए हुआ. ग़रीब के हित के सारे क़दम ग़रीब के ख़िला़फ़ खड़े दिखाई देने लगे. शेख़चिल्ली जैसे फैसले हुए, जिसका एक उदाहरण यूआईडी कार्ड है, जिस कार्ड को ख़ुद भारत सरकार के मंत्रालय नहीं मानते, बैंक नहीं मानते, पासपोर्ट ऑफिस नहीं मानता, जिस योजना के बजट की संसद से स्वीकृति नहीं ली गई और 60 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च कर दिए गए. पिछले 22 सालों में बिजली की हालत ख़राब हुई, सड़कों की हालत ख़राब हुई, पीने का पानी तो ख़त्म हुआ ही, सिंचाई का पानी भी लोगों की पहुंच से दूर हो गया. किसानों ने आत्महत्याएं शुरू कीं और किसानों की क़र्ज़माफ़ी के नाम पर दिया जाने वाला पैसा भी एक बड़े घोटाले की भेंट चढ़ गया. पिछले आठ सालों से किसान और मज़दूर अपनी छाती पीट रहे हैं. पिछले पांच सालों में 50 लाख रोज़गार समाप्त हो गए. हमारा योजना आयोग अंधे-बहरों की जमात बन गया है, जिसके पास न बेरोज़गारी दूर करने की कोई योजना है और न ही रोज़गार सृजित करने का कोई ख़ाका. लेकिन योजना आयोग है और वह देश को बर्बाद करने की योजनाएं लगातार बना रहा है. इस दौर का सबसे बड़ा अभिशाप है महंगाई, जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. देश के विकास का एक पैमाना हमारे रुपये की साख भी है. रुपया डॉलर के मुक़ाबले बुरी तरह गिरता चला गया और आज डॉलर के मुक़ाबले अपनी दुर्दशा पर बुरी तरह आंसू भी बहा रहा है. अगर कोई भी पिछले दस साल में डॉलर और रुपये के मूल्य का अध्ययन करे, तो मनमोहन सिंह द्वारा बताए गए विकास के सपने का चिट्ठा अपने नंगे रूप में हमारे सामने आ जाएगा और जब हमारे माननीय प्रधानमंत्री कहें कि मुल्क 1991 की अर्थव्यवस्था में फिर से पहुंच गया है, तो ऐसे प्रधानमंत्री को क्या कहें, जिसने देश को 22 साल पीछे धकेल दिया. नौजवानों की आंखों से सपने और भविष्य छीन लिए. क्या करें ऐसे प्रधानमंत्री का? कितनी पूजा करें? क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में अर्थशास्त्र का वह माद्दा है, जो हिंदुस्तान जैसे देश को बदलने वाले अर्थशास्त्री में होना चाहिए? ऐसा लगता है, जैसे मनमोहन सिंह ने और उनके साथियों ने मान लिया है कि इतिहास उन्हें गाली देता रहे, देश के ग़रीब रोते हैं, तो रोते रहें, वे तो खा-पी के मौज उ़डाकर चले जाएंगे. तो क्या उन्हें इस देश में पैदा होने के क़र्ज़ का अहसास नहीं है? आने वाली पीढ़ियां किन-किन नामों से पुकारेंगी, इसका कोई भी डर नहीं है उन्हें. शायद डर नहीं है, इसीलिए यह सब हो रहा है. प्रधानमंत्री के उस वक्तव्य की प्रतीक्षा कीजिए, जिसमें वह कहें, अब हम कुछ नहीं कर सकते, इस देश को चलाने के लिए हमें अमेरिकी मूल का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति लाना ही पड़ेगा.