पिछले हफ्ते मैंने चौथी दुनिया की रिपोर्ट में इंडियन एक्सप्रेस और शेखर गुप्ता की पत्रकारिता पर कई सवाल उठाए. उन सवालों को उठाते हुए मुझे हमेशा याद रहा कि पिछले कुछ सालों में इंडियन एक्सप्रेस ने कैसी पत्रकारिता की और शेखर गुप्ता ने अपना आज का मुक़ाम कितनी मेहनत से बनाया है, लेकिन सवाल तो सवाल हैं और कभी ये सवाल इतने बड़े आकार में हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं कि हमें न चाहते हुए भी वह लिखना पड़ता है, जो नहीं लिखना चाहिए. इंडियन एक्सप्रेस की पूरी पत्रकारिता और इस एक घटना को अगर तौलें तो लोग अलग-अलग निष्कर्ष निकालेंगे. उन्हें लगेगा कि अब तक की हुई पूरी पत्रकारिता हल्की है और यह घटना, जिसका रिश्ता सेना की इज़्ज़त और देश में चल रहे मौजूदा विवाद से है, ज़्यादा भारी है. इसके बावजूद यह आशा करनी चाहिए कि यह घटना केवल एक घटना बनकर रह जाएगी, ट्रेंड नहीं बनेगी और शेखर गुप्ता एवं इंडियन एक्सप्रेस भविष्य में उन चुनौतियों का सामना करेंगे, जो पत्रकारिता के पेशे के सामने आकर खड़ी हो गई हैं और अगर बड़े पैमाने पर देखें तो देश के सामने आकर खड़ी हो गई हैं.
जब हम भारतीय पत्रकारिता के परिदृश्य को देखते हैं, तब हमें लगता है कि पत्रकारिता के बहुत सारे मानदंड समाप्त हो रहे हैं. दोस्ती, रिश्ते और दबाव ज़्यादा मायने रखने लगे हैं. अब पत्रकारों के बीच वैसे रिश्ते भी नहीं रहे, जिन्हें हम अपनत्व का रिश्ता कह सकते हैं. मुझे याद है, आज से पंद्रह-बीस साल पहले के पत्रकार एक-दूसरे के नज़रिए से सहमत नहीं होते थे, एक-दूसरे के खिला़फ रिपोर्ट भी लिखते थे, लेकिन उनके आपस के रिश्ते बहुत मधुर रहते थे. आज ऐसा नज़र नहीं आता. आज अगर कोशिश भी करें तो यह कोशिश कितनी सफल होगी, कह नहीं सकते. पत्रकरिता चाहे हिंदी की हो या अंग्रेजी की, पत्रकारिता तो पत्रकारिता है और पत्रकारिता का सबसे बड़ा चैलेंज सच्चाइयों को सामने लाना है, लेकिन आज हमारे साथी सच्चाई सामने लाने की जगह सच्चाई छुपाने में अपनी ताक़त लगा रहे हैं और ऐसे-ऐसे तर्क गढ़ रहे हैं, जो उन्हें फायदा पहुंचाते हैं, जिनका इस देश के बुनियादी सवालों से कोई लेना-देना नहीं है. जैसे, एक तर्क यह गढ़ा जा रहा है कि हमारा समाज इस कदर भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसता जा रहा है कि हर आदमी सौ रुपये की घूस देकर अपना काम कराना ज़्यादा पसंद करेगा, बनिस्पत थोड़ी तकलीफ सहने के.
अब यह तर्क कितना ख़तरनाक है? जब कुछ पत्रकारों ने मेरे सामने यही तर्क रखा तो मैंने उनसे कहा कि सौ रुपये की घूस की बात कहकर हमारे साथी एक लाख करोड़, दो लाख करोड़, छब्बीस लाख करोड़ की घूस या लूट को तार्किक जामा पहनाते हैं. मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि अगर सौ रुपये की घूस देकर आम आदमी सुविधा पा सकता है तो उसे यह सुविधा लेनी चाहिए. मुझे यह भी कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं इस सौ रुपये की घूस के खिला़फ नहीं हूं, लेकिन मैं कभी नहीं चाहूंगा कि एक लाख करोड़ या छब्बीस लाख करोड़ की लूट, चाहे वह घूस के रूप में हो या चोरी के रूप में हो, इस देश में चले. मेरा सीधा तर्क है कि अगर उच्च पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को रोकते हैं, घूस या चोरी को रोकते हैं, तो यह सौ रुपये की घूस अपने आप कटकर पचास रुपये तक पहुंच जाएगी. लेकिन वे सारे लोग, जो समाज में फैले व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को आधार बनाकर सर्वोच्च शिखर पर होने वाले भ्रष्टाचार को अनदेखा करने की बात करते हैं, तो इस देश को तबाह करने की बात करते हैं.
इसी तरह पत्रकारिता में भी मेरा मानना है कि अगर संपादक अपने किसी प्रिय व्यक्ति के संदर्भ में रिपोर्ट छापने के लिए संवाददाता को इशारा करता है या जिन्होंने बहुत गड़बड़ की है, उन्हें अनदेखा करने का इशारा करता है तो संपादक यह काम एक बार करेगा, लेकिन उसका रिपोर्टर इस काम को सौ बार करेगा. यहां पर भी वही नियम लागू होता है कि संपादक अगर अपने दायित्व के निर्वहन में 100 प्रतिशत खरा उतरने की कोशिश करेगा, तभी उसका रिपोर्टर भी 100 प्रतिशत खरा उतरने के लिए जी-जान लगाएगा. चुनौतियां बहुत ज़्यादा हैं और इसलिए भी ज़्यादा हैं क्योंकि लोगों का विश्वास बहुत सारी संस्थाओं से उठ रहा है और अब उन संस्थाओं के दायरे में न्यायपालिका भी आ गई है. जिस देश में ब्यूरोक्रेसी, विधायिका यानी संसद एवं विधानसभाएं और न्यायपालिका लोगों के शक के दायरे में आ जाएं, उस देश में लोगों का व्यवस्था से भरोसा उठ जाना स्वाभाविक है, क्योंकि यही तीनों मिलकर व्यवस्था बनाते हैं. ऐसे समय में अगर किसी को मज़बूत रोल निभाना है या निभाना चाहिए तो वह स़िर्फ पत्रकारिता हो सकती है. अगर पत्रकार ही अपना फर्ज़ न निभाएं और उन चीजों के ख़िला़फ हाथ मिला लें, जिनकी वजह से देश के आम आदमी का भरोसा टूटता है या निराशा पैदा होती है तो फिर क्या कह सकते हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की पूरी पत्रकारिता और इस एक घटना को अगर तौलें तो लोग अलग-अलग निष्कर्ष निकालेंगे. उन्हें लगेगा कि अब तक की हुई पूरी पत्रकारिता हल्की है और यह घटना, जिसका रिश्ता सेना की इज़्ज़त और देश में चल रहे मौजूदा विवाद से है, ज़्यादा भारी है. इसके बावजूद यह आशा करनी चाहिए कि यह घटना केवल एक घटना बनकर रह जाएगी, ट्रेंड नहीं बनेगी और शेखर गुप्ता एवं इंडियन एक्सप्रेस भविष्य में उन चुनौतियों का सामना करेंगे, जो पत्रकारिता के पेशे के सामने आकर खड़ी हो गई हैं और अगर बड़े पैमाने पर देखें तो देश के सामने आकर खड़ी हो गई हैं.
क्या हम पत्रकारों का किसी राजनीतिक दल या किसी राजनेता के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल होना सही माना जा सकता है. यह किसी के ऊपर आक्षेप नहीं है, स़िर्फ एक काल्पनिक स्थिति है. स़िर्फ एक काल्पनिक स्थिति की बात मैं कर रहा हूं कि अगर हम दो मंत्रियों के बीच में किसी एक की लड़ाई अपने सिर ले लें या देश में भ्रष्टाचार बनाम ईमानदारी की लड़ाई में हम भ्रष्टाचारी के पक्ष में खड़े हो जाएं, क्योंकि अगर हम यह कहें कि हमें दोनों पक्षों की बात कहनी है और ज़ाहिर है जिसमें ईमानदार पक्ष अपनी बात कभी कह नहीं पाता, क्योंकि वह कॉन्सपिरेटर नहीं होता, वह षड्यंत्र नहीं करता. इसलिए इस बात का फैसला हम पत्रकारों को ख़ुद करना चाहिए कि सचमुच सच्चाई कहां खड़ी है. मुझे एक बात की ख़ुशी है कि लगभग हर संस्थान के अधिकांश पत्रकार मुझे फोन करते हैं और मुझसे मिलने भी आ रहे हैं. वे अपने-अपने संस्थानों में चल रहे एक अजीब तरह के विषाक्त वातावरण से बहुत परेशान हैं. इतने ज़्यादा परेशान हैं कि वे कहते हैं कि यह कैसे टूटेगा. उन लोगों के यहां भी यह परेशानी है, जो बहुत लोकतांत्रिक संस्थान माने जाते हैं, ऊपर से निर्देश आता है.
मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का एक अलग मिज़ाज होता है, लेकिन अगर आपके यहां काम करने वाला पत्रकार ही, उप संपादक ही यह मानने लगे कि हमारे संस्थान का काम किसी अमुक साहब या अमुक पार्टी के लिए तर्क गढ़ना है तो यह स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती. हमारे पेशे के ऊपर बहुत लोग भरोसा करते हैं. हमारे लिखे हुए को लोग सबूत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. जहां इतना विश्वास और आदर मिलता हो, वहां पर उस आदर का असम्मान करें, हम उस विश्वास को तोड़ें तो यह पत्रकारिता के प्रति हमारा दुर्भाग्यपूर्ण रवैया होगा. मैं विनम्रता से अपने साथियों और ख़ासकर साथी संपादकों से यह कहना चाहता हूं कि कृपा करके आम आदमी के, इस देश में रहने वाले लोगों के विश्वास को तो बिल्कुल मत तोड़िए, जो इस देश के भविष्य में आस्था रखते हैं और जिनका मानना है कि आज कठिनाइयां हैं, लेकिन कल ये कठिनाइयां शायद दूर हों. आज अविश्वास है, लेकिन कल विश्वास होगा.
मैं जानता हूं, मेरी इस बात को मेरे बहुत सारे संपादक साथी पसंद नहीं करेंगे, लेकिन फिर भी मुझे विश्वास है कि अभी भी सिद्धार्थ वरदराजन, शेखर गुप्ता, एम जे अकबर, रजत शर्मा एवं राजदीप सरदेसाई जैसे लोगों में कहीं न कहीं वह साहस, वह जज़्बा बाक़ी है, जो हिंदुस्तान जैसे मुल्क में राष्ट्र विरोधी ताक़तों से लड़ने के लिए बुनियादी शर्त बन सकता है. अगर अभी भी पत्रकार यह ठान लें कि वे इस देश के आत्म सम्मान को तोड़ने वालों से समझौता नहीं करेंगे तो ऐसी कोई ताक़त नहीं है, जो हमारे मुल्क के मोरल को डाउन कर सके. बस ख्याल यह रखना चाहिए कि हम अनजाने में वह काम न कर बैठें, उतनी बड़ी ग़लती न कर बैठें कि लोग कहें कि इन्होंने देश का इतना नुक़सान कर दिया, जितना कि चीन और पाकिस्तान भी नहीं कर पाए. हमेशा अच्छे की कामना करनी चाहिए और मैं यह कामना प्रार्थना के रूप में कर रहा हूं, उनसे जो इस मुल्क में पत्रकारिता को दिशा देने के लिए खड़े हैं. यह छोटी आशा नहीं है, बल्कि यह देश के हर उस आदमी की आशा का प्रकटीकरण है, जो यहां के अख़बारों, पत्रिकाओं और ख़ासकर समाचार चैनलों से सच्चाई, ईमानदारी और हिम्मत की उम्मीद किए बैठा है.