दुनिया में बहुत सारे देश हैं, जिनमें सरकार, पुलिस, सेना और अदालत एक तरह से सोचते हैं, एक तरह से फैसला लेते हैं और मिलजुल कर देश की संपदा और जनता पर राज करते हैं, लेकिन बहुत सारे देश ऐसे हैं, जहां एक-दूसरे के फैसलों के ऊपर गुण-दोष के आधार पर यह तय होता है कि एक पक्ष दूसरे का साथ दे या न दे. पहली तरह के देश तानाशाही वाले देश माने जाते हैं और दूसरी तरह के देश लोकतांत्रिक. लोकतांत्रिक देशों में विधायिका एवं कार्यपालिका एक सुर में बोलती हैं, लेकिन न्यायपालिका इन दोनों के सुरों की जांच करती है कि इनका स्वर संविधान सम्मत है या नहीं और लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाने वाला मीडिया इन तीनों अंगों के ऊपर अपनी पैनी नज़र रखता है. लोकतंत्र कितना भी भ्रमित हो जाए या उसका कितना भी अपभ्रंश हो, फिर भी गिरावट की एक सीमा होती है और इस सीमा का पालन सभी अंग करते हैं. जब इस सीमा का पालन न हो तो फिर मन में सवाल उठता है कि कहीं हम लोकतंत्र के दायरे से बाहर तो नहीं जाना चाहते?
लोकतंत्र भारत जैसे देश के लिए अति आवश्यक है, क्योंकि हमारा देश 120 करोड़ लोगों का मुल्क होने के साथ-साथ विभिन्न जातियों, संप्रदायों एवं भाषाओं का गुलदस्ता है और इस देश को बांधे रखने में यहां के संविधान ने बहुत अहम रोल अदा किया है. संविधान के दिशा निर्देशक तत्व, भावना और भाषा यह बताते हैं कि अभिव्यक्ति का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. स़िर्फ आपातकाल में अभिव्यक्ति का अधिकार छीना गया था, जिसका परिणाम बहुत अच्छा नहीं निकला था. दरअसल, अभिव्यक्ति का अधिकार आम आदमी के लिए है और जब अभिव्यक्ति के अधिकार का इस्तेमाल पत्रकार या मीडिया के लोग करते हैं तो यह लोकतंत्र को बचाए और बनाए रखने की अनिवार्य शर्त बन जाता है. अभिव्यक्ति का अधिकार सरकार को यह जानकारी देता है कि कहां पर बीमारी पल रही है, ताकि वह उसका इलाज तलाश सके. अभिव्यक्ति का अधिकार कार्यपालिका एवं विधायिका को भी यह जानकारी देता है कि देश में नीतियों के निर्माण और उनके पालन के स्तर पर क्या कुछ चल रहा है, लेकिन इधर एक नया ट्रेंड देखने में आ रहा है. लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग, जिसे हम न्यायपालिका कहते हैं, अपनी ज़िम्मेदारी से कहीं-कहीं भाग रहा है.
देश में बहुत बड़ा हिस्सा है, जहां के लोग नक्सलवादियों का साथ देते हैं. नक्सलवादियों का साथ वे इसलिए देते हैं, क्योंकि उनके यहां न रोटी है, न रोजगार है, न पानी है, न सिंचाई है, न शिक्षा है, न स्वास्थ्य है. जहां विकास के लिए जाने वाला पैसा उन लोगों की जेब में पहुंच जाता है, जिनका निहित स्वार्थ विकास न करना बन गया है. उनके शोषण के खिला़फ, अत्याचार के ख़िला़फ अगर आवाज़ उठाएं तो क्या यह लोकतांत्रिक नहीं है? अगर उनकी आवाज़ न सुनी जाए और वे हथियारों का इस्तेमाल करें, तो व्यवस्था यह क्यों नहीं समझती कि यह उसकी नाकामी है, अक्षमता है
इस देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध हैं और लोकतंत्र का सिद्धांत यह कहता है कि अगर हमें तकली़फ है तो उसकी जानकारी देना हमारा अधिकार है, लेकिन कुछ घटनाएं अजीब देखने में आ रही हैं. देश में बहुत बड़ा हिस्सा है, जहां के लोग नक्सलवादियों का साथ देते हैं. नक्सलवादियों का साथ वे इसलिए देते हैं, क्योंकि उनके यहां न रोटी है, न रोजगार है, न पानी है, न सिंचाई है, न शिक्षा है, न स्वास्थ्य है. जहां विकास के लिए जाने वाला पैसा उन लोगों की जेब में पहुंच जाता है, जिनका निहित स्वार्थ विकास न करना बन गया है. उनके शोषण के खिला़फ, अत्याचार के ख़िला़फ अगर आवाज़ उठाएं तो क्या यह लोकतांत्रिक नहीं है? अगर उनकी आवाज़ न सुनी जाए और वे हथियारों का इस्तेमाल करें, तो व्यवस्था यह क्यों नहीं समझती कि यह उसकी नाकामी है, अक्षमता है, जिसकी वजह से लोगों ने हथियार उठाए या उनका समर्थन किया, जो हथियार उठा रहे हैं.
होना तो यह चाहिए कि सरकार पूरी ताक़त से उन जगहों से भ्रष्टाचार समाप्त करे और अपने ही देश में रहने वाले अपने ही लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए ताक़त लगाए, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही है. अगर पत्रकार उनकी इस तकली़फ को लिखे तो क्या उसका लिखना लोकतंत्र का विरोध माना जाएगा, राजद्रोह माना जाएगा, देशद्रोह माना जाएगा? अ़फसोस की बात यह है कि देश जो नहीं चाहता, वही होता दिखाई दे रहा है. पत्रकार अगर लिखता है कि मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, भ्रष्टाचार हो रहा है, कहीं पर एक बड़े षड्यंत्र की वजह से लोगों की बात नहीं सुनी जा रही है तो क्या यह देशद्रोह है? अगर अदालतें तकली़फ के वर्णन को देशद्रोह मानेंगी, तो लोगों का विश्वास न्याय व्यवस्था से उठ जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट ने कई मौक़ों पर देश का विश्वास बनाए रखा है. अभी तक यह मांग नहीं हुई कि अगर किसी स्तर पर निचली अदालतें ग़लत फैसला देती हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट बदल देता है, उस फैसले की वजह से जिन लोगों की ज़िंदगी में सालों अंधेरा रहा, जिनकी इज्ज़त चली गई, प्रतिष्ठा समाप्त हो गई और जिन लोगों ने ग़लत सबूतों पर विश्वास कर फैसले दिए, उनकी ज़िम्मेदारी भी तय होनी चाहिए. इस मांग के न उठने के पीछे भारत की न्याय व्यवस्था पर हमारा अटूट विश्वास है. इस विश्वास को क़ायम रखने के लिए हम इस मुल्क की सर्वोच्च अदालत से यह अपील करते हैं कि वह एक सा़फ फैसला दे कि क्या अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण, ग़रीबी एवं अपराध के खिला़फ लिखना वह भी देशद्रोह मानती है, क्या ऐसा लिखने वालों को आजीवन कारावास की सज़ा किसी अदालत को देनी चाहिए?
यह सवाल किन्हीं एक या दो म़ुकदमों का नहीं है. दरअसल, एक ऐसा ट्रेंड देखने में आ रहा है, जिससे लोगों को डराने और धमकाने की कोशिश की जा रही है. क्या इस कोशिश में अदालतें उन वेस्टेड इंटरेस्ट का साथ देंगी, जिनका निहित स्वार्थ इस देश में विकास न होने देना है. हम इसलिए सुप्रीम कोर्ट से आग्रह कर रहे हैं कि वह स्थिति को जल्दी से जल्दी सा़फ करे, क्योंकि अगर वह नहीं सा़फ करेगी तो हम देखेंगे कि धीरे-धीरे हर मसले में विधायिका की भाषा, कार्यपालिका की भाषा और न्यायपालिका की भाषा एक होने के रास्ते पर चल पड़ेगी और ऐसी स्थिति में मीडिया अपनी मौत अपने आप मर जाएगा. हमें नहीं पता, सर्वोच्च न्यायालय हमारी इस प्रार्थना को सुनेगा या नहीं, लेकिन हम आशा करते हैं कि उसे व़क्त मिले और वह हमारी बात पर ध्यान दे. हवा के साथ बहने की सलाह अगर मान ली जाए तो हवा क्या है और किस हवा के साथ बहना चाहिए, यह भी सर्वोच्च न्यायालय को सा़फ करना चाहिए.
हम चूंकि सर्वोच्च न्यायालय की इज्ज़त करते हैं, इसलिए आप एक बार यह बता दें कि हमें कांग्रेस की हवा के साथ बहना चाहिए, हमें भाजपा की हवा के साथ बहना चाहिए, हमें भ्रष्टाचार की हवा के साथ बहना चाहिए, हमें नक्सलवाद की हवा के साथ बहना चाहिए, हमें किस हवा में बहना चाहिए या हमें परिवर्तन की और विकास की हवा के साथ बहना चाहिए. हम जानते हैं कि हम बहुत छोटे हैं, आप हमारी बात पर शायद ध्यान दे पाएं, क्योंकि आपके सामने बहुत बड़े-बड़े मसले हैं, पर हम उन करोड़ों लोगों में से एक हैं, जिनकी आंखें हमेशा न्याय के लिए आपके ऊपर लगी रहती हैं. हिंदुस्तान की करोड़ों आंखों को न्याय मिले और हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों के मन को स़फाई मिले, इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी बात आपके सामने हमेशा रखते रहें और हम हमेशा यह आशा करेंगे कि आप हमारी इस बात को सुनेंगे और कभी न कभी हमें राय ज़रूर देंगे कि आखिर हमें करना क्या चाहिए?