अगला घमासान उत्तर प्रदेश में होने वाला है. मुख्यमंत्री मायावती राजनीतिक तौर पर सबसे आगे हैं. मायावती ने अपनी पार्टी के ऐसे सदस्यों को, जिनके प्रति स्थानीय स्तर पर आक्रोश पैदा हुआ है, बदला है और ऐसे लोगों को साथ लेने की कोशिश की है, जो उन्हें वोट दिलवा सकें. मायावती सर्वजन की भाषा बोल रही हैं. उत्तर प्रदेश में राज करने की चाबी भी इसी भाषा में है. अगर कोई भी पार्टी किसी एक वर्ग या एक जाति की पार्टी बनकर सामने आती है तो शायद उसे उस समुदाय या जाति का समर्थन तो मिल सकता है, लेकिन सत्ता उसके पास आएगी या वह सत्ता में आ पाएगा, इसमें शक़ है. मायावती के साथ दलित वर्ग अभी भी संगठित है. हालांकि राजनीतिक तौर पर लोगों का यह कहना है कि अब दलित धीरे-धीरे मायावती से दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि दलितों को लगता है कि अपनी क्षमता से मायावती इस पद को प्राप्त कर लेंगी. पर मायावती मुख्यमंत्री हैं, उनके किए हुए कामों का आकलन शुरू हो चुका है. लखनऊ में जिस तरह से पत्थरों का इस्तेमाल हुआ, जिस तरह से लखनऊ का चेहरा बदला, उससे ग़रीबों में भी बहुत खुशी नहीं है. जब भी लखनऊ जाना हुआ, ग़रीब वर्ग में ऐसे बहुत सारे लोग मिले, जिनका कहना है कि सड़क, पानी, बेरोज़गारी, भूख और स्वास्थ्य जैसे एजेंडे मौजूदा सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं. शायद ये प्राथमिकता में हों, पर ये ज़मीन पर ट्रांसलेट होते नहीं दिखाई देते, क्योंकि ब्यूरोके्रसी अगर नहीं चाहेगी तो कोई भी अच्छी योजना धरती पर आकार नहीं ले पाएगी.
उत्तर प्रदेश में एक तरफ राजनीतिज्ञ कितनी इच्छाशक्ति रखते हैं, यह जनता को पता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में अगर ब्यूरोक्रेसी खुलकर यह कहने लगे कि हम ऊपर पैसा देते हैं, हम नीचे काम करें या ना करें, तो फिर चिंता बढ़ जाती है और उत्तर प्रदेश में ऐसे अधिकारी एक-दो नहीं हैं, बड़ी संख्या में हैं. मैं खुद एक घटना का गवाह हूं. एक बड़े प्राधिकरण के मुख्य अधिकारी ने मेरी उपस्थिति में कहा कि इतने प्रतिशत तो मुझे लखनऊ में देना पड़ता है. इसके अलावा हमें कुछ नहीं मिलेगा तो काम कैसे होगा.
उत्तर प्रदेश में एक तऱफ राजनीतिज्ञ कितनी इच्छाशक्ति रखते हैं, यह जनता को पता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में अगर ब्यूरोक्रेसी खुलकर यह कहने लगे कि हम ऊपर पैसा देते हैं, हम नीचे काम करें या ना करें, तो फिर चिंता बढ़ जाती है और उत्तर प्रदेश में ऐसे अधिकारी एक-दो नहीं हैं, बड़ी संख्या में हैं. मैं खुद एक घटना का गवाह हूं. एक बड़े प्राधिकरण के मुख्य अधिकारी ने मेरी उपस्थिति में कहा कि इतने प्रतिशत तो मुझे लखनऊ में देना पड़ता है. इसके अलावा हमें कुछ नहीं मिलेगा तो काम कैसे होगा. वह अधिकारी मुझे पहचानता नहीं था. मैंने भी उसे परिचय नहीं दिया, पर मैं उस घटना का गवाह हूं. शायद मायावती जी को नहीं पता कि उनके नाम पर उत्तर प्रदेश में कितनी लूट चल रही है. कोई भी ठेका, कोई भी काम, कोई भी प्रोजेक्ट बिना एक निश्चित कमीशन लिए नहीं दिया जाता. मायावती जी को शायद कोई बताएगा भी नहीं, पर उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी के महत्वपूर्ण लोग इस बात को जानते हैं. अ़फसोस इस बात का है कि इसे सुधारने की कोई योजना न प्रमुख अधिकारियों के पास है और न स्वयं मुख्यमंत्री के पास.
मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री रहे हैं. उन्हें लगता है कि वह दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की छवि समाजवादी नेता से ज़्यादा एक जाति विशेष के नेता जैसी बन गई है. इसे उनके आसपास के लोगों ने बहुत मज़बूत किया है. मुलायम सिंह को अगर उत्तर प्रदेश में दोबारा मुख्यमंत्री पद का दावा करना है या दावेदार होना है तो उन्हें जनता के सभी वर्गों को साथ लेने की कोशिश करनी होगी और अपने नेतृत्व में विभिन्न वर्ग के नेताओं को चलता हुआ दिखाना होगा. लोगों को बताना होगा कि लोग उनके बारे में जो ग़लत प्रचार कर रहे हैं, वैसा है नहीं. कांग्रेस की हालत बहुत ही ढुलमुल है. कांग्रेस को जिस तरह खुद को संगठित करना चाहिए, अ़फसोस की बात है कि उस तरह वह उत्तर प्रदेश में खुद को संगठित नहीं कर पा रही है. परिणाम यह हो रहा है कि ज़िलों में कांगे्रस का संगठन बिल्कुल कोमा की हालत में पहुंच गया है, मूर्छित अवस्था में पहुंच गया है. राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी नए सिरे से अपने कंधों पर ली है. उन्होंने वाराणसी अधिवेशन में यह घोषणा कि है कि वह उत्तर प्रदेश की गली-गली में जाएंगे, गांव-गांव में जाएंगे. राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के गांवों और गलियों में जाने की बात कही है, लेकिन एक वर्ष से भी कम समय रह गया है और अभी तक ऐसी कोई योजना नज़र नहीं आ रही है, जिसमें राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के गांवों में जाते हुए दिखाई दे रहे हों या उत्तर प्रदेश के सवालों को लेकर लड़ने के रास्ते पर चलते हुए दिखाई दे रहे हों.
भारतीय जनता पार्टी टेक ऑफ की स्थिति में नज़र नहीं आती. उत्तर प्रदेश में पहले स्थान के लिए दो पार्टियों में लड़ाई है, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी. ज़ाहिर है, इन्हीं में से कोई पहले स्थान और दूसरे स्थान पर होगा. तीसरे स्थान के लिए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में लड़ाई है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कौन इस जगह को अपने लिए सुरक्षित कर पाता है, यह देखना इस बार मज़ेदार होगा. एक और पार्टी बीच में धीरे-धीरे अपनी पैठ बना रही है, पीस पार्टी. इसके अध्यक्ष डॉ. अयूब हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश से इसका स़फर शुरू हुआ और यह लखीमपुर खीरी तक पहुंच गया. पिछले जितने चुनाव हुए हैं, उनमें कहीं दूसरे नंबर पर, कहीं तीसरे नंबर पर पीस पार्टी के उम्मीदवार रहे हैं. पीस पार्टी के साथ मुस्लिम समाज का समर्थन ज़्यादा दिखाई दे रहा है. हालांकि पीस पार्टी का कहना है कि उसकी लीडरशिप या उसके सदस्यों में स़िर्फ मुसलमान ही नहीं हैं, बल्कि समाज के सभी तबकों के लोग हैं. वह बहुजन समाज पार्टी के रास्ते पर चल रही है, जिसमें लीडरशिप दलित वर्ग की है, पर बाकी दूसरे वर्ग भी उससे जुड़ रहे हैं. यही रणनीति पीस पार्टी ने बनाई है. पीस पार्टी का भविष्य कैसा होगा, यह चुनाव बताएंगे. एक और पार्टी उत्तर प्रदेश में इन चुनावों में सामने दिखाई देगी, जमात-ए-इस्लामी हिंद द्वारा प्रवर्तित पार्टी वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया. यह पार्टी भी मुस्लिम वोटों की दावेदार है. अब एक तऱफ समाजवादी पार्टी मुसलमानों का वोट चाहती है, दूसरी तऱफ कांगे्रस चाहती है. बहुजन समाज पार्टी की रणनीति है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करे, ताकि उसे मुस्लिम मत मिलें. और मुसलमानों की दो पार्टियां आ गई हैं, जिनमें एक पीस पार्टी है और दूसरी वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया. मुसलमान वोट आने वाले चुनाव में निर्णायक रह पाएगा या नहीं, इसका फैसला भी इस बार मुसलमान ही करेंगे. अगर वे तीन या चार जगह बंट गए तो ज़ाहिर है कि उनके वोटों का कोई भी राजनीतिक असर चुनाव में देखने को नहीं मिलेगा. लेकिन अगर वोट नहीं बंटे और उन्होंने बुद्धिमानी से फैसला किया और किसी एक पार्टी का साथ दिया तो उत्तर प्रदेश के चुनाव का समीकरण बदल जाएगा. जिसके साथ मुसलमान पूरी तरह से होंगे, वह पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता की सशक्त दावेदार होगी.
इसके अलावा बहुत सारी छोटी-छोटी पार्टियां हैं. उत्तर प्रदेश दरअसल पार्टियों का दलदल है. यहां पर पार्टियां ही पाटिर्र्यां हैं. इन पार्टियों के बीच में कहां दलित रहता है, कहां ग़रीब रहता है, कहां अल्पसंख्यक रहता है और वह अपना असर बनाए रख भी पाता है या नहीं, यह सवाल बड़ा है, महत्वपूर्ण है. उत्तर प्रदेश में आम लोगों को अपने हितों के हिसाब से वोट देते देखने का मौक़ा देश को मिलेगा या नहीं, अभी नहीं कह सकते. लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव अगर बिहार और बंगाल की तर्ज पर हुआ और लोगों ने जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमा से अलग हटकर वोट डाले तो सत्ता में कौन आएगा? क्या उस संभावना का लाभ मायावती जी को मिलेगा या मुलायम सिंह जी को मिलेगा या राहुल गांधी जी की कांग्रेस को मिलेगा या फिर भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा, अभी नहीं कह सकते, लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव होगा बहुत दिलचस्प, इसमें कोई दो राय नहीं है.