लोकसभा में एफडीआई के मुद्दे पर दो दलों ने जो किया, वह भविष्य की संभावित राजनीति का महत्वपूर्ण संकेत माना जा सकता है. शायद पहली बार मुलायम सिंह और मायावती किसी मुद्दे पर एक सी समझ रखते हुए, एक तरह का एक्शन करते दिखाई दिए. यह मानना चाहिए कि अब यह कल्पना असंभव नहीं है कि चाहे उत्तर प्रदेश का चार साल के बाद होने वाला विधानसभा का चुनाव हो या फिर देश की लोकसभा का आने वाला चुनाव, ये दोनों साथ मिलकर भी चुनाव लड़ सकते हैं. सवाल केवल यह है कि अगर ये मिलकर चुनाव लड़ते हैं, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को कुछ सीटें मिल पाएंगी या नहीं मिल पाएंगी? इसका सीधा जवाब है कि अगर दोनों मिलकर सीट शेयरिंग के आधार पर चुनाव लड़ते हैं, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को मिलने वाली सीटों की संख्या आठ से नीचे ही होगी. बाक़ी सारी सीटें इन दोनों दलों के खाते में चली जाएंगी. लेकिन क्या ऐसा ही रिजल्ट हिंदुस्तान के दूसरे प्रदेशों में होगा? इसका जवाब है नहीं, क्योंकि सारी कोशिशों के बावजूद उत्तर प्रदेश के बाहर न सपा कोई स्थान बना पाई है और न बसपा. इसका एक कारण तो यह है कि दोनों ही नेताओं का सौ प्रतिशत से ज़्यादा ध्यान केवल उत्तर प्रदेश पर ही रहता है. दूसरा यह कि ये दूसरे प्रदेशों में चुनाव लड़ते हैं, तो केवल इसलिए कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर सकें. ऐसी स्थिति में तीसरे मोर्चे की तस्वीर क्या होगी? अभी चंद हफ्ते पहले कांस्टीट्यूशन क्लब के विट्ठल भाई पटेल हॉल में एक सभा हुई, जिसमें वामपंथी दलों के प्रतिनिधि और सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव शामिल हुए. वहां एबी बर्द्धन, जो जीवित नेताओं में सबसे बुज़ुर्ग और सबसे समझदार नेता हैं, ने मंच से खुलेआम यह प्रस्ताव रखा कि अगर मुलायम सिंह व़क्तदेते हैं, तो शायद तीसरा मोर्चा बन सकता है. लगभग सभी नेताओं ने इसी तरह की बात कही और मुलायम सिंह ने भी ऐसा करना स्वीकार किया. वामपंथी नेताओं ने एक होकर कुछ साल पहले मायावती जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. उस घोषणा के बाद भी इन लोगों ने न चुनाव मिलकर लड़ा और न देश को यह विश्वास दिलाया कि सचमुच वे मायावती को प्रधानमंत्री बनाना ही चाहते हैं. उन्होंने अब तक मायावती के राजनीतिक दुश्मन रहे मुलायम सिंह को तीसरा मोर्चा बनाने की कमान इस आशा के साथ सौंपी है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में तीसरा मोर्चा जीतेगा और इस सरकार के मुखिया मुलायम सिंह होंगे. इस तीसरे मोर्चे में मायावती कहीं नहीं हैं. मायावती ही नहीं, इस तीसरे मोर्चे में कोई दूसरा दलित नेता भी नहीं है. डी राजा जो कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव हैं, अवश्य दलित हैं, लेकिन उनको न कोई उत्तर में और न दक्षिण में दलित नेता मानता है. उन्हें केवल कम्युनिस्ट पार्टी का सेक्रेट्री माना जाता है.
अब जबकि भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उपयुक्त उम्मीदवार बता रही है, ऐसे समय तीसरे मोर्चे की स्थिति क्या बनने वाली है. यह देखना दिलचस्प होगा. पहली वास्तविकता यह है कि इस समय लोकसभा में तीन सौ से ज़्यादा ऐसे सांसद हैं, जिन्होंने ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा की कभी न कभी राजनीति की है. विडंबना यह है कि ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपा की राजनीति करते हुए कुछ कांग्रेस में चले गए और कुछ भाजपा में चले गए. यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि देश के लोग उन लोगों को अपेक्षाकृत ज़्यादा ईमानदार मान रहे हैं, जो परंपरा से न कांग्रेस में रहे हैं और न भाजपा में. इसका मतलब यह है कि अगर ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपाई दल इकट्ठे हो जाते हैं, तो उनकी संभावना थोड़ी तो बेहतर हो सकती है. लेकिन क्या यह तीसरा मोर्चा या ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपाई दल आपस में मिल सकते हैं? तीन दल हैं. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और जनता दल यूनाइटेड. इन तीनों के नेता आपस में ही बात नहीं करते हैं. मुलायम सिंह की बात न तो नीतीश कुमार से होती है और न मायावती से. मायावती की बात न नीतीश कुमार से होती है और न मुलायम सिंह से और नीतीश कुमार की तो दोनों से ही बात नहीं होती है. इनमें आपस में बात न हो, समझ में आता है. लेकिन कुछ और दल हैं, इनकी उन दलों के नेताओं से भी बातचीत नहीं होती. चंद्रबाबू नायडू, जयललिता, करुणानिधि, नवीन पटनायक, ओमप्रकाश चौटाला, ये ऐसे नाम हैं, जो अपने-अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. ग़ैर कांग्रेसी या ग़ैर भाजपाई जो भी मोर्चा बनेगा, उस मोर्चे में इनमें से एक को छोड़कर सभी को शामिल करना पड़ेगा, नहीं तो तीसरा मोर्चा माना ही नहीं जाएगा. भारतीय जनता पार्टी से कर्नाटक में येदुरप्पा बाहर निकल आए हैं. उनसे कौन दल पहले बातचीत करता है, यह भी देखना का़फी दिलचस्प होगा. लेकिन हम फिर उत्तर भारत के दलों की तऱफ आएं. हमने कई दक्षिण भारत के या उड़ीसा जैसे राज्यों के नेताओं से बात करनी शुरू की, तो सबका यही कहना है कि जब तक उत्तर भारत में कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती, तब तक देश में राजनीतिक बदलाव का ऩक्शा नहीं बन सकता. उत्तर भारत में जिनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार शामिल हैं, में मुलायम सिंह, मायावती, नीतीश कुमार के आगे आए बिना शायद हलचल पैदा नहीं होगी. इन प्रदेशों का कार्यकर्ता चाहे वह समाजवादी पार्टी में हो या जनता दल यू में, वह यही चाहता है कि कम से कम मुलायम सिंह और नीतीश कुमार आपस में मिल जाएं. लेकिन यहीं पर एक अंतर्विरोध लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान के रूप में है. मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव को साथ रखना चाहेंगे और नीतीश कुमार, लालू यादव से दूर रहना चाहेंगे. अभी तक तो यही दिखाई दे रहा है कि रामविलास पासवास कहने को तो राज्यसभा में अपनी पार्टी के इकलौते प्रतिनिधि हैं, लेकिन उनके घूमने और लड़ने की क्षमता को कम करके नहीं आंका जा सकता. इसके बाद भी दलित समाज में मायावती और रामविलास पासवान, ये दोनों नाम कहीं नज़दीक आते दिखाई नहीं देते, बल्कि इनकी कोशिश होती है कि कौन, कब दूसरे को नीचा दिखा दे. हरियाणा की तीसरे मोर्चे को गठित करने में कोई अहम भूमिका नहीं है, लेकिन उसका शामिल होना बाज़ी की महत्वपूर्ण कड़ी है. चूंकि इन तीनों नेताओं में आपस में बात नहीं होती या फिर तीनों नेताओं में बातचीत करने की या फिर तीनों नेताओं की बातचीत करने की इच्छाशक्ति नहीं है. इसकी वजह से कार्यकर्ता सचमुच बहुत निराश दिखाई दे रहे हैं. अब कार्यकर्ता भी का़फी होशियार हो गए हैं. पहले वे अपने नेता से कहते थे कि नेताजी थो़ड़ा आप दूसरों से बातचीत कीजिए, देश में यह परेशानी है, ये समस्याएं हैं. आज केकार्यकर्ता भी चापलूसी में उस्ताद हो गए हैं. वे अपने-अपने नेताओं चाहे वह मुलायम सिंह हों, मायावती हों या नीतीश कुमार जी हों, से कहते हैं कि आपके बिना सरकार बन ही नहीं सकती. पावर ऑफ स्मॉल की तर्ज़ पर वे कहते हैं कि बस तीस या पैंतीस एमपी होने चाहिए और तीस या पैंतीस एमपी वाली पार्टी के मुखिया को लोगों को मजबूर होकर प्रधानमंत्री बनाना प़डेगा.
वामपंथी नेताओं ने एक होकर कुछ साल पहले मायावती जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. उस घोषणा के बाद भी इन लोगों ने न चुनाव मिलकर लड़ा और न देश को यह विश्वास दिलाया कि सचमुच वे मायावती को प्रधानमंत्री बनाना ही चाहते हैं. उन्होंने अब तक मायावती के राजनीतिक दुश्मन रहे मुलायम सिंह को तीसरा मोर्चा बनाने की कमान इस आशा के साथ सौंपी है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में तीसरा मोर्चा जीतेगा और इस सरकार के मुखिया मुलायम सिंह होंगे.
अपने कार्यकर्ताओं की इसी थ्योरी पर उत्तर भारत की तीनों प्रमुख पार्टियां चल रही हैं. कहां होना यह चाहिए कि देश की समस्याओं को ध्यान में रखकर नेता दरवाज़े-दरवाज़े जाते और उन्हें एक होकर ल़डने के लिए या संगठित होकर दिल्ली की सत्ता प्राप्त करने के लिए उत्प्रेरित करते, लेकिन ये तीनों नेता इस बात में भरोसा करते हैं कि तीस से पैंतीस सांसद इनके रहे तो इन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता. यह खतरनाक स्थिति है. वामपंथी दबाव डालने की स्थिति में नहीं हैं. प्रकाश करात का दामन बिल्कुल सा़फ है, लेकिन प्रकाश करात कोई भी इनिशिएटिव लेने में हिचकते हैं. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सारे देश में सिकु़ड गई है और कोई भी इनिशिएटिव वह हिंदी प्रदेशों में नहीं लेना चाहती. कम्युनिस्ट पार्टी के पास हिंदी बेल्ट में अच्छे नेता हैं, जिनमें एक नाम अतुल कुमार अनजान का है. अतुल कुमार अनजान किसानों के बीच में का़फी अच्छा काम कर रहे हैं और शुरुआत उन्होंने छात्र नेता के तौर पर की थी. लेकिन अतुल कुमार अनजान या उत्तर भारत के किसी भी राज्य के कम्युनिस्ट पार्टी के सामने कोई भी ऐसा खाका नहीं है, जिसे लेकर वह लोगों के पास जा सके और आम लोगों को अपने साथ शामिल होने का रास्ता बता सके. हो यह रहा है कि संपूर्ण वामपंथ केरल और पश्चिम बंगाल में सिमट कर रह गया है. इस स्थिति में बदलाव का दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं दिखाई देता. मुलायम सिंह, मायावती, नीतीश कुमार अपने-अपने प्रदेशों के अलावा बाहर कुछ असर डालते दिखाई नहीं दे रहे. ज़रा इन तीनों नेताओं को नज़दीक से देखें. मुलायम सिंह की राजनीति की बीस प्रतिशत दलित विरोध से शुरुआत होती है. मायावती के किसी भी सूत्र से मुलायम सिंह असहमत दिखाई देते हैं. उनके साथ उत्तर प्रदेश में सारी पिछ़डी जातियां थीं और मुलायम सिंह सबसे ल़डाकू नेता माने जाते थे. उन्हें चौधरी चरण सिंह जी का भी विश्वास प्राप्त था और आगे चलकर उन्होंने चंद्रशेखर जी से जब हाथ मिलाया और खासकर जब अमर सिंह जी उनके साथ आए, तो मुलायम सिंह के साथ अग़डी जातियों का भी कुछ हिस्सा जु़डा. लेकिन मुलायम सिंह कभी भी संपूर्ण पिछ़डे वर्ग के नेता नहीं बन सके. उत्तर प्रदेश में दो मज़बूत जातियां लोध और शाक्य कही जाती हैं. ये दोनों भारतीय जनता पार्टी के साथ अब तक रही हैं, जबकि छोटी-छोटी जातियां कुम्हार, धोबी, ब़ढई मायावती के साथ अक्सर रही हैं. मुलायम सिंह जी जब सरकार में थे, तो स्वयं किसान होते हुए उन्होंने किसानों के हितों का ध्यान नहीं रखा. शायद इसकी वजह उनके मित्र अमर सिंह रहे हों, जिन्होंने बंबई के सारे ब़डे बिजनेस मैन को लखनऊ में बुला लिया था और लगता था कि उन सारे बिजनेस मैन का वज़न मुलायम सिंह की पीठ के ऊपर है और वे मुलायम सिंह को पीएम के रूप में देखना चाहते हैं. अमर सिंह के जाने के बाद थो़डे दिन तक तो मुलायम सिंह जी ने सभी से किनारा किया, लेकिन अचानक फिर उनके साथ अनिल अंबानी और कभी-कभी मुकेश अंबानी नज़र आने लगे. इस बार मुलायम सिंह को सत्ता में लाने में मायावती की कुछ ग़लतियों ने ब़डी भूमिका निभाई. मायावती उत्तर प्रदेश में अहंकारी महिला के रूप में मशहूर हो गईं. मायावती के आसपास रहने वालों ने उनकी ऐसी तस्वीर बना दी, जो किसी तानाशाह की होती है. मायावती के सामने कोई भी राजनेता या किसी वर्ग का प्रतिनिधि जाए, इस अ़फवाह को मायावती के राजनीति करने के तरीक़े ने पुष्ट किया. परिणाम यह हुआ कि सारी ब़डी, मध्यम और अग़डी जातियां मायावती से दूर हो गईं, जिसका नतीजा मुलायम सिंह को विजय के रूप में मिला. मुलायम सिंह ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया. लोगों ने अखिलेश यादव में नई संभावना देखीं और अखिलेश यादव के स़िर्फ एक सिम्बोलिक काम ने उन्हें अब तक समाजवादी पार्टी की लीक से हटकर चलने वाला नेता बना दिया. वह घटना थी विधानसभा चुनाव में ग़ाज़ियाबाद के बाहुबली नेता डीपी यादव को समाजवादी पार्टी में शामिल करने की पहले आज़म खां द्वारा घोषणा करना और फिर अखिलेश यादव द्वारा उस पर वीटो लगा देना. लोगों को लगा कि अखिलेश यादव कुछ अलग तरह की राजनीति करेंगे. लेकिन अब उत्तर पदेश में अखिलेश यादव की बुरी तरह आलोचना हो रही है. एक तो उत्तर प्रदेश की नौकरशाही मुलायम सिंह, शिवपाल यादव, आज़म खां और रामगोपाल यादव केबीच विभाजित दिखाई दे रही है. सारे ब़डे नौकरशाह मुलायम सिंह जी के चुने हुए हैं, जो अखिलेश यादव को घास नहीं डालते. अखिलेश यादव भी सभ्यतावश किसी महिला सचिव को आंटी जी कहते दिखाई देते हैं, किसी आईएएस ऑफिसर को अंकल जी कहते दिखाई देते हैं. जब आंटी और अंकल उनके अ़फसर होंगे, तो फिर मुख्यमंत्री पद का रुतबा अखिलेश यादव के लिए है या वह मुख्यमंत्री पद का इस्तेमाल प्रदेश के विकास में कर पाएंगे, इसमें संदेह दिखाई देता है. उत्तर प्रदेश से बाहर यह अ़फवाह फैली हुई है कि अखिलेश यादव प्रदेश को नियंत्रित ढंग से नहीं चला पा रहे हैं. सच्चाई इसके विपरीत है, लेकिन अखिलेश यादव का पूरा तंत्र इसी सच्चाई को पुष्ट करने में लगा हुआ है, बजाय इसके कि वह अखिलेश यादव की उस तस्वीर को उभारता, जिसने उन्हें समाजवादी पार्टी की जीत का हीरो बनाया था. मायावती उत्तर प्रदेश में पुरानी रणनीति के तहत खामोश बैठी हुई हैं कि जब समाजवादी पार्टी से लोगों का भ्रम टूटेगा, तो लोग उन्हें वोट देंगे. यूं भी मायावती के इर्द-गिर्द तीसरा मोर्चा नहीं बन सकता, क्योंकि मायावती की सोच तीसरे मोर्चे को लाने या ग़ैर कांग्रेसी, ग़ैर भाजपाई दलों को साथ लाने की दिखाई नहीं देती. तीसरा मोर्चा बनाने में तीसरा आदमी जो सबसे सक्षम भूमिका निभा सकता है, वह नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार में लोगों ने बहुत संभावनाएं देखीं और बहुत लोग नीतीश कुमार के पास गए. लेकिन नीतीश कुमार के काम करने की शैली पर जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा असर डाला है, वह है उनका अपने ही राजनीतिक साथियों पर विश्वास न करना. उन्होंने बिहार में एक छाप छोड़ी है कि वह स़िर्फ और स़िर्फ ब्यूरोक्रेटिक अंदाज़ के लोगों से बात करने में अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं और ब्यूरोक्रेसी के ज़रिये काम करवाना ज़्यादा उचित समझते हैं. नतीजे के तौर पर पूरे बिहार में जनता दल यूनाइटेड एक तरह से सरकार का वह हिस्सा बन गया है, जिसका जनता में असर खत्म हो रहा है. जनता दल यूनाइटेड के लोगों का कहना है कि नीतीश कुमार के लिए पूरा हिंदुस्तान उनका अपना ज़िला है और उनकी अपनी सोच कभी दिल्ली की गद्दी पर आने की है ही नहीं. इसलिए नीतीश कुमार उन दलों से बात करने में हिचकते हैं, जो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से स़िर्फ तकनीकी तौर पर जुड़े हैं. पहले राजनीति में इस संवादहीनता का अभाव नहीं था. लोग दूसरे दलों के लोगों से बात करते थे और उन्हें बुलाते थे और कुछ व़क्तबिताते थे. अब वह परंपरा समाप्त हो गई है. इसी समाप्त हुई परंपरा ने तीसरे मोर्चे का भविष्य अंधकारमय कर दिया है. लेकिन जनता दल यूनाइटेड के नेताओं के सामने एक और मुसीबत आने वाली है. नरेंद्र मोदी को अगर सचमुच भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया, तो नीतीश कुमार क्या करेंगे? क्या नीतीश कुमार तत्काल एनडीए छोड़ेंगे? अगर वह एनडीए नहीं छोड़ते हैं, तो उनकी साख सारे देश में कौ़डी की तीन हो जाएगी. अब इसका फैसला तो नीतीश कुमार को ही करना है कि उस समय कोई क़दम उठाते हुए क्या वह उस ताक़त के साथ दूसरे दलों के साथ बात कर पाएंगे, जिससे तीसरा मोर्चा बन सके या जनता दल यूनाइटेटड बिहार तक ही सिमट कर रह जाएगी. इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की संभावना में अन्ना हजारे भी एक फैक्टर हैं. अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह अगर कोई ऐसा एजेंडा देश के राजनीतिक दलों के सामने रखते हैं, जिस एजेंडे को मानने और समझने में राजनीतिक दलों को पसीना आ जाए, तो वहां से ग़ैर कांग्रेसी, ग़ैर भाजपाई और ग़ैर स्थापित राजनीतिक दलों से अलग एक नई राजनीति की शुरुआत होती है. अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि अगले दो महीनों में अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह राजनीतिक पार्टियों और देश के सामने कैसा एजेंडा रखते हैं? इसका सीधा मतलब यह है कि फरवरी तक सीधे तीसरे मोर्चे की शक्ल उभरेगी या हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी और साथ ही यह कि क्या फरवरी तक देश में कोई ग़ैर राजनीतिक, राजनीतिक ताक़त जिसे अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह का समर्थन प्राप्त हो, उभरने की प्रकिया में आ पाएगी या नहीं? राजनीतिक दल अभी भी इस बात को भूल रहे हैं और शायद अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह भी भूल रहे हैं कि आगामी मई-जून में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हो सकता है. संसद में जो भी संकेत आएं, पर आर्थिक स्थिति का दबाव और राजनीतिक दलों के अपने अंतर्विरोध चुनाव कराने के लिए सभी को मजबूर कर सकते हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह कि मुलायम सिंह और मायावती ने सीबीआई की वजह से लोकसभा में कांग्रेस का साथ दिया. मुलायम सिंह के खिला़फ आय से अधिक संपत्ति का निर्णय सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. सुप्रीम कोर्ट इसका फैसला सुनाने वाला है. जो ख़बरें हमारे पास आ रही हैं, वे खबरें ये हैं कि फैसला सुनाया जा चुका है. उस फैसले को जल्दी न सुनाया जाए, इसकी कोशिश भारत सरकार कर रही है और क़ानून मंत्री की यह कोशिश है कि फैसला चाहे मुलायम सिंह के ख़िला़फ हो या पक्ष में, अभी न सुनाया जाए. जितना टाला जा सकता है, उतना टाला जाए. इसका एक ही मतलब निकलता है कि सरकार उस फैसले, जिस पर तीन जजों के दस्तख़त हो चुके हैं, का इस्तेमाल मुलायम सिंह को डराने के लिए कर रही है, ताकि वह कोई राजनीतिक फैसला न ले सकें.