टाइम्स ऑफ इंडिया और जंग ने जनता को धोखा दिया है

9-250x150कुछ महीनों पहले हमें दिल्ली और देश के अनेक क्षेत्रों में कुछ बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स दिखाई पड़ीं. उनमें नारा बड़ा आकर्षक था. बाद में पता चला कि ऐसी ही होर्डिंग्स पाकिस्तान में भी लगी हैं. हमारे देश के अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के एक बड़े अख़बार जंग ने हाथ मिलाया है कि वे भारत और पाकिस्तान के बीच मुहब्बत बढ़ाने वाले काम करेंगे. इस अभियान का नाम उन्होंने दिया, अमन की आशा.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत में और जंग ने पाकिस्तान में जनता को धोखा दिया है. उन्होंने इस अभियान को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. उन्होंने इस अभियान का ज़ोर शोर से प्रचार कर उनको अपना पाठक तो बना लिया जो भारत-पाकिस्तान में दोस्ती चाहते हैं, पर यह प्रचार केवल प्रचार तक ही रह गया. इस पर कोई अमल नहीं हुआ. न तो टाइम्स ऑफ इंडिया एक क़दम चला और न ही जंग.

जो लोग लड़ाई, क़त्ल, हत्या और मौतें नहीं चाहते, उन्हें लगा कि एक बड़ा काम होने वाला है, क्योंकि अब दोस्ती बढ़ाने का काम मीडिया ने अपने हाथ में लिया है. हालांकि घोषणा केवल दो अख़बारों ने की, पर आशा पैदा हुई कि और भी अख़बार और बाद में टेलीविज़न भी इस काम में

पाकिस्तान और भारत में वह पीढ़ी धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है, जिसने बंटवारा देखा था. अपने घर वालों की हत्याएं, बलात्कार और लूट देखे थे. इस पीढ़ी ने पचास साल से अपने वारिसों को ऩफरत और बदले की बातें समझाईं. बाद में दुनिया में बदलाव आने लगा. धीरे ही सही, पाकिस्तान जाने वाले हिंदुस्तानियों का स्वागत भी गर्मजोशी से होने लगा और हिंदुस्तान में भी पाकिस्तान से आने वाले अपने जैसे लगने लगे. भारत में पाकिस्तान के अठारहवीं शताब्दी में जीने के भ्रम टूटे तो पाकिस्तान से आने वाली पीढ़ी को भी लगा कि हिंदू भी उनके जैसे ही हाड़-मांस के प्यार करने वाले लोग होते हैं. पर्दा हटना शुरू हुआ तो एक दूसरे के असली चेहरे ने मिलने की, जीने की कशिश भी बढ़ा दी.

पर भारत में लगातार होने वाली आतंकवादी घटनाओं ने नज़दीक आने की कोशिशों में अड़चन पैदा करने का प्रयास किया. भारत में यह बताने वाले बहुत कम हैं कि पाकिस्तान भी आतंकवाद की उतनी ही चपेट में है, जितना कि भारत. वहां भी उतनी ही मौतें धमाकों से हो रही हैं, जितनी भारत में. वहां भी बेकार और बेरोज़गार आतंकवादी खेती के लिए वैसे ही खाद का काम कर रहे हैं, जितना भारत में कर रहे हैं. वहां की नीतियां भी उतनी ही जनता से दूर हैं, जितनी भारत में. कुल मिलाकर यह कहना वाजिब होगा कि वहां का भी वही हाल है, जो भारत में है. वहां भी अवसरों की उतनी ही कमी है, जितनी भारत में. वहां भी विदेशी ताक़तों का वर्चस्व वैसा ही है, जैसा भारत में. वहां भी जनता आतंकवादियों और कट्टरपंथियों के उतने ही ख़िला़फ है, जितनी भारत में. बस एक फर्क़ है कि वहां आतंकवादी और कट्टरपंथी मिलकर सत्ता हथियाने की योजना पर काम कर रहे हैं, पर हमारे यहां अभी इसके संकेत नहीं मिले हैं.

ऐसी स्थिति में जब अमन की आशा की घोषणा हुई तो मन में सचमुच आशा जगी. सरकारें तो कुछ करती नहीं, उल्टे ऐसा माना जाता है कि सरकारें तो यह भी नहीं चाहतीं कि दोनों देशों के लोगों को आपस में खुलकर मिलने का मौक़ा मिले और वे दोनों देशों की सच्चाई जान जाएं. जो यह बातें बता सकते हैं, जिनमें लेखक, साहित्यकार, रंगकर्मी, नाटककार और पत्रकार शामिल हैं, उन्हें दोनों सरकारें आने-जाने का वीज़ा नहीं देतीं. एक सरकार ने इनमें से कइयों का नाम आईएसआई के संपर्क सूत्र के रूप में तो दूसरे ने रॉ के संपर्क सूत्र के रूप में लिख रखा है. किसी जटिल घूसखोर सिपाही ने कभी पैसे न मिलने पर अपनी डायरी में जो लिखा, सरकारी काग़ज़ों में वही सबसे बड़ा सच बन गया है. इसीलिए आशा जगी कि आज दो बड़े अख़बार समूह मिले हैं तो कुछ नया होगा.

पाकिस्तान में कुछ पत्रकार हैं, जिन पर वहां के लोग बहुत भरोसा करते हैं. इनमें हामिद मीर, शाहिद मक़सूद, कामरान ख़ान, काशिफ अब्बासी, तलत हुसैन और मुश्ताक़ मिनहास, जावेद रशीद और मुज़ाहिद मंसूरी प्रमुख हैं. अगर ये हिंदुस्तान आएं और वापस पाकिस्तान जाकर सच्चाई लिखें तो दोस्ती की हवा और ख़ुशबू फैलाई जा सकती है. हिंदुस्तान के ज़्यादातर पत्रकार पाकिस्तान जाते हैं, लौटकर बातें अच्छी करते हैं, पर लिखते नहीं हैं. और जो लिखते हैं, उसमें दोस्ती कम होती है. इनका कहना है कि उनका अख़बार सच्चाई लिखने नहीं देता. सच्चाई तो ये जानें और अख़बार जाने, लेकिन हम इस संपादकीय में श्री कमल मोरारका की तारी़फ करना चाहते हैं, जिन्होंने हमेशा सच्चाई लिखने के लिए दबाव डाला है. मुंबई से निकलने वाला ऑफ्टरनून और दिल्ली से निकलने वाला चौथी दुनिया इसका प्रमाण है और आशा करते हैं कि इस वर्ष दिल्ली और मुंबई से एक साथ प्रकाशित होने वाला अंग्रेज़ी दैनिक द डेली भी इसका जीता जागता उदाहरण बनेगा.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत में और जंग ने पाकिस्तान में जनता को धोखा दिया है. उन्होंने इस अभियान को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. उन्होंने इस अभियान का ज़ोर शोर से प्रचार कर उनको अपना पाठक तो बना लिया जो भारत-पाकिस्तान में दोस्ती चाहते हैं, पर यह प्रचार केवल प्रचार तक ही रह गया. इस पर कोई अमल नहीं हुआ. न तो टाइम्स ऑफ इंडिया एक क़दम चला और न ही जंग. इन अख़बारों ने दरअसल अपनी-अपनी सरकारों का बहाना लिया कि वे नहीं चाहतीं कि अमन की आशा पैदा हो. सवाल है कि क्या सचमुच सरकारें ऐसा चाहती हैं? अगर चाहती भी हों तो अख़बारों का और फिर पत्रकारिता का धर्म क्या है? सरकारों का भोंपू बजाना या जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरना? दरअसल भारत और पाकिस्तान के इन दोनों बड़े अख़बार समूहों ने जनता के साथ विश्वासघात किया है. साख खोती पत्रकारिता का यह बेशर्म उदाहरण है. पर आशा करनी चाहिए कि लोग खड़े होंगे और अमन की आशा को मुर्झाने नहीं देंगे.


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