प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील हैं. देश के कुछ वकील जिनका नाम सब लोग जानते हैं, उनमें प्रशांत भूषण भी हैं. उनके चेंबर में घुसकर चार युवकों ने मारपीट की. ये चारों लोग भारतीय जनता पार्टी के दफ्तर में नियमित जाने वालों में से हैं और भाजपा की विचारधारा से जुड़े हुए किन्हीं अनाम से संगठन के सदस्य भी हैं. इनका कहना है कि प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर एक वक्तव्य दिया, जिससे ये नाराज़ थे और इसीलिए इन्होंने प्रशांत भूषण के साथ मारपीट की. इन युवकों ने बाद में यह भी कहा कि प्रशांत भूषण को उनके घर में घुसकर फिर मारेंगे. यह घटना बताती है कि हम लोकतंत्र के सैचुरेशन प्वाइंट की तरफ बढ़ रहे हैं. हमने लोकतंत्र की अच्छाइयों को छोड़ दिया और उसके उस बुरे हिस्से को पकड़ने की कोशिश की, जिसके तहत हम अपने लिए सारी आज़ादी चाहते हैं, लेकिन दूसरों को कोई आज़ादी देना नहीं चाहते. जैसा हम सोचें, वैसा दूसरा बोले, जैसा हम चाहें, वैसा दूसरा करे. यह लोकतंत्र का बुरा हिस्सा है, जिसे इन युवकों ने अपनाया और शायद भारतीय जनता पार्टी आस्था के नाम पर इसी चीज को देश में फैलाने की कोशिश कर रही है. इन चारों लोगों में से कुछ ऐसे हैं, जो लगभग किसी भी आंदोलन में अगुवा पंक्ति में खड़े हो जाते हैं. ये स़िर्फ चार होते हैं या दो, लेकिन ये उनमें शामिल हैं, जो अपना फोटो खिंचवा कर अपनी प्रासंगिकता कुछ विशिष्ट नेताओं के सामने रखते हैं और बताते हैं कि यह सब हमारी ही वजह से हुआ. हमारे पास बहुत सारी तस्वीरें ऐसी हैं भिन्न-भिन्न आंदोलनों की, जिनमें इनमें से कुछ चेहरे हर जगह आगे-आगे विभिन्न मुद्राओं में देखे जा सकते हैं.
अगर लोकतंत्र का यह हिस्सा हमारी जीवनशैली का अंग बन गया तो इससे एक बड़ा खतरा है और उसे भारतीय जनता पार्टी नहीं समझ रही है. कांग्रेस भी शायद नहीं समझ रही है. बड़ा खतरा यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी का उदाहरण दें तो वहां इस समय नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार जो भाजपा की सहयोगी पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और अब लालकृष्ण आडवाणी, ये सभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. क्या भाजपा यह चाहेगी कि जब कभी लालकृष्ण आडवाणी गुजरात जाएं तो नरेंद्र मोदी के समर्थक उनके साथ मारपीट करें, क्योंकि वे नहीं चाहते कि नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और प्रधानमंत्री बने. या जब सुषमा स्वराज या अरुण जेटली उत्तर प्रदेश जाएं तो राजनाथ सिंह के समर्थक उनके साथ मारपीट करें. या राजनाथ सिंह जब मध्य प्रदेश जाएं तो उमा भारती के समर्थक उनके साथ मारपीट करें. जिस आधार पर किसी की बात पसंद न आने पर उसके साथ मारपीट का तर्क ये युवक देते हैं और इनकी विचारधारा के शीर्षस्थ लोग उसका खंडन नहीं करते, उनकी लानत-मलामत नहीं करते, उन्हें संगठन से निकालते नहीं हैं, बल्कि उन्हें साथ बैठाकर शाबासी देते हैं, उनके लिए वकीलों का इंतजाम करते हैं, ऐसे लोग इस खतरे से आज अनजान हैं, लेकिन यह खतरा उनके सिर पर आ रहा है. भारतीय समाज, भारतीय राजनीति और भारतीय लोकतंत्र में सहिष्णुता का प्रमुख स्थान है यानी दूसरे को उसकी बात कहने का हक़ देना, उसे सुनना, फिर यह कहना कि हम आपकी बात से सहमत नहीं हैं और इसका फैसला जनता के बीच करेंगे. सहिष्णुता और लोकतंत्र के इस मूल तत्व को अब कुछ लोगों ने खारिज़ करना शुरू कर दिया है. क्या यह रास्ता लोकतंत्र को खारिज़ करने की दिशा में जाएगा कि लोकतंत्र में वही होगा, जो हम चाहते हैं, जो हम लिखते हैं, जिसकी हमने कल्पना की है. जो लोग ऐसा सोचते हैं, वे जब भी फैसले का व़क्त आता है, चुनाव में अल्पमत में आ जाते हैं.
हिंदुस्तान का लोकतंत्र सारी दुनिया में आदर्श लोकतंत्र है. यह ज़िम्मेदारी है स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली एवं राजनाथ सिंह जैसे लोगों की. वे इस बात को खुलेआम कहें कि हिंदुस्तान में हरेक को अपनी बात कहने का उतना ही हक़ है, जितना हमें. जो कोई इस हक़ को मारने की बात करता है, वह हमारा साथी नहीं है, हमारा सदस्य नहीं है, वह लोकतंत्र का विरोधी है, पार्टी का विरोधी है, समाज का भी विरोधी है, क्योंकि वह समाज में टूट पैदा करना चाहता है. इस सवाल को टालिए मत, क्योंकि यह सवाल वैसा ही है, जैसे जंगल में छोटी सी चिंगारी से आग लगती है और अगर उसे बुझाया न जाए तो पूरा जंगल इतनी बुरी तरह धू-धू करके जलता है कि बस्तियों, इंसानों और जानवरों को अपनी चपेट में ले लेता है.
बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भारतीय जनता पार्टी ने ज़ोर-शोर से चुनाव लड़ा. लोगों ने उसकी सरकारों को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल में रिपीट नहीं किया. इसका मतलब देश का बहुमत इस पक्ष में नहीं है कि आप अपनी ही बात कहें और उसे समर्थन दे दें. किसी भी धर्म-जाति के लोग, जो वोट देते हैं, जो फैसला करते हैं, उनका बहुमत किसी भी तरह के कठमुल्लेपन, इक्स्ट्रीमिज्म और परस्पर संघर्ष को पसंद नहीं करता. यह बात उन सभी लोगों को, चाहे वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हों या कांग्रेस से, समझनी चाहिए. इस देश के लोग बेबस हैं, लाचार हैं, अपने हक के लिए नहीं लड़ सकते, लेकिन वे बेवकूफ नहीं हैं. वे जब भी फैसला करते हैं, बहुत सोच-समझ कर करते हैं. मैं असहिष्णुता की एक और बात याद दिलाना चाहता हूं. अटल जी गुजरात गए थे, वहां उन्होंने राजधर्म की बातें कीं और जब वह लौट रहे थे हवाई अड्डे की तरफ, तो भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने उनकी कार को रोका, उनके खिला़फ नारे लगाए. इतना ही नहीं, उनकी कार पर कूद-कूदकर वीभत्स नृत्य भी किया. वे कांग्रेस के लोग नहीं थे, वे किसी ऐसे दल के लोग भी नहीं थे, जो भाजपा को पसंद नहीं करता. वे भाजपा की विचारधारा के ही लोग थे. उस समय अगर उनमें कोई शैतान होता तो वह अटल जी के साथ मारपीट कर सकता था. उस घटना से जब भारतीय जनता पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया तो यह स्थिति आनी ही थी और यह चीज नीचे सर्कुलेट होनी थी कि आप ऐसे लोगों को न बोलने दें, न चलने दें और न नारे लगाने दें, जिनकी बातों को आप पसंद नहीं करते.
शायद इसीलिए दिल्ली में पटियाला हाउस कोर्ट के बाहर उन लोगों के साथ मारपीट की गई, जो अन्ना हज़ारे के समर्थक थे. क्या विडंबना है कि एक तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत दावा करते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन को संगठित करने, उसे चलाने, फैलाने के पीछे उन्हीं का हाथ है और दूसरी तरफ उनकी विचारधारा से जुड़े लोग अन्ना हज़ारे के लोगों को पीटते हैं. वे यह चाहते हैं कि अन्ना हज़ारे या उनके लोग स़िर्फ वही बात करें, जिससे उन्हें फायदा हो यानी स़िर्फ भ्रष्टाचार की बात. बाकी चीजों को वे सुनना नहीं चाहते, चाहे वह किसानों की बात हो, मज़दूरों की बात हो, कश्मीर की बात हो. हम कश्मीर के मुद्दे पर प्रशांत भूषण से सहमत नहीं हैं. हम कश्मीर को भारत का टुकड़ा नहीं मानते. हम कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग इसलिए नहीं मानते, क्योंकि हमें कश्मीर पर क़ब्ज़ा करना है, बल्कि हम कश्मीर को भारत की धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में मानते हैं. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के साथ एक बातचीत में चंद्रशेखर जी ने कहा था कि अगर आप कश्मीर को इस तर्क के आधार पर पाकिस्तान में मिलाने की बात करेंगे या कश्मीर के लोग इस तर्क के साथ पाकिस्तान में मिलाने की बात करेंगे कि वहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं तो यह तर्क हिंदुस्तान के15 करोड़ मुसलमानों के लिए बड़ा खतरनाक साबित होगा, क्योंकि यह हिंदुस्तान के गांवों में रहने वाले करोड़ों मुसलमानों के खिला़फ हिंदुओं को एक तर्क दे देगा, गैर मुस्लिमों को एक तर्क दे देगा कि हम अपने गांव में इन्हें नहीं रखना चाहते. तब उन्हें वहां से निकाला जाएगा. अगर वहां से निकाला गया तो दूसरे गांव वाले उन्हें रखेंगे नहीं तो वे वहां से कहां जाएंगे. नतीजा एक संघर्ष के रूप में सामने आएगा और वह संघर्ष सांप्रदायिक होगा. हिंदुस्तान के गांव-गांव में सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान बहुत प्यार से, आराम से, एक-दूसरे की इज्जत करते हुए, सह अस्तित्व यानी तुम भी रहो, हम भी रहें के सिद्धांत के आधार पर जीते हैं, दु:ख-सुख में शरीक होते हैं, उस चीज को तोड़ने का काम जो तर्क करेगा, वह हिंदुस्तान की संप्रभुता और लोकतंत्र के खिला़फ होगा. हम अपनी मां को जब मां कहते हैं तो वह प्यार से हमारे सिर पर हाथ फेरती हैं, लेकिन मां कहना जितना सत्य है, उतना ही बड़ा सत्य है अपनी मां को अपने पिता की पत्नी के रूप में बताना. अगर हम अपनी मां से कहें कि हमारे फलाने पिता की पत्नी हमको ज़रा यह दो, तो मां दो झापड़ मारेगी. ठीक यही कश्मीर के साथ हो रहा है.
भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रशांत भूषण तीनों ही कश्मीर को साथ रखने के ग़लत तर्क दे रहे हैं. हमारा मानना यहळ है कि कश्मीर को धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के तौर पर साथ रखने का तर्क सही है, पर इसके बावजूद हिंदुस्तान का लोकतंत्र यह कहता है कि भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कश्मीर को लेकर अपनी सारी बात निर्भीक ढंग से सामने रखे. वही तर्क प्रशांत भूषण को भी अपनी बात हिंदुस्तान के लोगों के सामने निर्भीक ढंग से रखने की इजाज़त देता है. यह नहीं हो सकता कि भारतीय जनता पार्टी अपना तर्क रखे और प्रशांत भूषण न रखें. हमारा मानना है कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र को उसके बुरे पहलुओं के जाल में मत फंसने दीजिए. हिंदुस्तान का लोकतंत्र सारी दुनिया में आदर्श लोकतंत्र है. यह ज़िम्मेदारी है स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली एवं राजनाथ सिंह जैसे लोगों की. वे इस बात को खुलेआम कहें कि हिंदुस्तान में हरेक को अपनी बात कहने का उतना ही हक़ है, जितना हमें. जो कोई इस हक़ को मारने की बात करता है, वह हमारा साथी नहीं है, हमारा सदस्य नहीं है, वह लोकतंत्र का विरोधी है, पार्टी का विरोधी है, समाज का भी विरोधी है, क्योंकि वह समाज में टूट पैदा करना चाहता है. इस सवाल को टालिए मत, क्योंकि यह सवाल वैसा ही है, जैसे जंगल में छोटी सी चिंगारी से आग लगती है और अगर उसे बुझाया न जाए तो पूरा जंगल इतनी बुरी तरह धू-धू करके जलता है कि बस्तियों, इंसानों और जानवरों को अपनी चपेट में ले लेता है. हिंदुस्तान के सामाजिक ताने-बाने और लोकतंत्र को, जो लोग जलाने की कोशिश करना चाहते हैं, उनसे बचाने के लिए मोहन भागवत, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली एवं राजनाथ सिंह को तत्काल आगे आना चाहिए और देश के सामने अपनी स्पष्ट राय रखनी चाहिए.