कितना भी कहें और कितना भी सोचें, लेकिन ऐसा लगता है कि फर्क पड़ने वाला नहीं है. देश की बुनियादी समस्याओं को हल करने के कई सारे तरीके हैं, पर अगर ऐसे रास्ते को, जो कहीं पहुंचता ही न हो या दुनिया में जिसे आजमाया जा चुका है, हम फिर एक बार आजमाएं तो इसे बुद्धिमानी नहीं, बेवकूफी ही कहेंगे. यह सवाल दिमाग में उठता है. देश में बाज़ार है, जो लोगों की ज़रूरतें पूरी करता था, लेकिन वह समाज और राजनीति को दिशा नहीं देता था. जबसे मानव सभ्य हुआ, तबसे बाज़ार समाज के पीछे रहा. उसने समाज को निर्देशित नहीं किया. हिंदुस्तान में, जब इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था, तब भी बाज़ार था, लेकिन उसने हिंदुस्तान को डिक्टेट नहीं किया. हजारों साल से चलती आई परंपरा को अगर किसी एक व्यक्ति ने बदलने की कोशिश की और सफल कोशिश की तो उन इतिहास पुरुष का नाम श्री मनमोहन सिंह है, जो हमारे पीएम हैं. मनमोहन सिंह ने ऐसी नीतियां लागू कीं, जिनसे पहली बार बाज़ार ने समाज और राजनीति को प्रभावित करना शुरू किया. 1991 से 2011 के बीच गंगा में काफी पानी बह चुका है और 2011 में समाज और राजनीति का कौन सा ऐसा हिस्सा है, जिसे बाज़ार प्रभावित नहीं कर रहा है. समाज और राजनीति ही क्यों, मीडिया को भी बाज़ार प्रभावित कर रहा है, बल्कि कहें कि प्रभावित नहीं, निर्देशित कर रहा है. जैसा बाज़ार चाहता है, समाज में वैसे ही मूल्य बन रहे हैं. जैसा बाज़ार चाहता है, वैसी ही राजनीति चल रही है, वैसा ही मीडिया लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है. बाज़ार को इस ताकतवर स्थिति में पहुंचाने वाले मनमोहन सिंह उसे महाशक्तिशाली बनाने पर तुले हुए हैं. एफडीआई, जिसके ऊपर सारे देश में शोर मच रहा है, इसका एक खूबसूरत उदाहरण है. हिंदुस्तान बदले हुए वक्त में दो सांस्कृतिक, वैचारिक युद्ध में लगे समाजों के बीच खड़ा है. एक तरफ क्रिश्चियन विचारधारा है और दूसरी तरफ इस्लाम की विचारधारा. दोनों विचारधाराएं बहुत दिनों से आपस में संवाद नहीं कर रही थीं, लेकिन अब संवाद तो दूर, उनमें विरोध की स्थिति भी नहीं है, बल्कि वे युद्ध की स्थिति में आ गई हैं और इसी युद्ध की स्थिति में हिंदुस्तान इनके बीच खड़ा है.
एक तरफ हिंदुस्तान के ऊपर इस्लाम के सांस्कृतिक युद्ध में, जिसे इस्लाम मानवता के लिए जंग कहता है, साथ देने का दबाव बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ क्रिश्चियन समाज, जो इस्लाम के सांस्कृतिक मूल्यों को बहुत कम मानता है, चाहता है कि हिंदुस्तान उसका साथ दे. दुनिया के ज़्यादातर देश या बहुमत के देश क्रिश्चियनटी के साथ हैं. पहले योजना बनी कि हिंदुस्तान को राजनीतिक तौर पर अपने साथ रखने की कोशिश करो. वह कोशिश असफल हो गई और पश्चिमी ताकतों को लगा कि हिंदुस्तान में ऐसा बहुमत है, जो कभी भी उनकी इस कोशिश को नकार सकता है या उनकी इस कोशिश के विरोध में खड़ा हो सकता है. इसलिए शायद यह योजना या रणनीति बनी कि भारत के बाज़ार पर कब्जा करो. हिंदुस्तान का बाज़ार तीन तरह का है. पहला, जो 8 से 12 प्रतिशत लोगों के लिए है. ऐसे लोगों के बाज़ार में मॉल्स, कारें, सौंदर्य प्रसाधन, बड़ी-बड़ी इमारतें, हवाई जहाज, मल्टीप्लेक्स शामिल हैं. दूसरा बाज़ार उनके लिए है, जो इनमें जाना चाहते हैं, लेकिन जिनकी हैसियत इनमें जाने की मुश्किल से बन पाती है, मध्य और उच्च मध्य वर्ग. तीसरा बाज़ार उनके लिए है, जो रोटी खाने के लिए मेहनत करते हैं और अच्छा खाना खाने के लिए हमेशा तरसते रहते हैं.
पहला हमला पहले वाले बाज़ार के ऊपर हुआ. इस बाज़ार में जितने हिंदुस्तानी लगे हैं, उन्हें यहां से निकालो, पैसे के बल पर इस बाज़ार को अपने कब्जे में करो और उसका पहला चरण उनमें बिकने वाली चीजों को सस्ता करके ले आओ. अभी हम देख रहे हैं कि चीजें महंगी हैं, लेकिन एफडीआई के इस फैसले के बाद हो सकता है कि बड़े मॉलों में चीजें कुछ सस्ती हों, ताकि जो दूसरी तरह का बाज़ार है, उन्हें लगे कि हमें चीजें कुछ और सस्ती मिल सकती हैं. विदेशी कंपनियां, खासकर खाने-पीने के सामान में लगी कंपनियां तेजी के साथ हिंदुस्तान में घुसना चाहती हैं, ताकि हिंदुस्तान का वह बाज़ार, जिसमें 10 से 15 करोड़ लोग किसी न किसी तरह शामिल हैं, उनके हाथ में आ जाए. जब यह बाज़ार उनके हाथ में आ जाए तो वे छोटे वाले बाज़ार की तरफ भी रुख कर सकती हैं. इससे हिंदुस्तान का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताना-बाना पूरे तौर पर पश्चिमी कंपनियों, बड़ी कंपनियों और पश्चिम की राजनीति के हाथ में गिरवी हो जाएगा. वे जैसा चाहेंगे, वैसा फिर हिंदुस्तान बोलेगा और हिंदुस्तान इस सांस्कृतिक लड़ाई में पश्चिम का एक लठैत, एक कारिंदा बनकर खड़ा हो जाएगा. मनमोहन सिंह शायद इस रणनीति को हिंदुस्तान में जल्दी से जल्दी लागू करना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने बिना किसी राजनीतिक चर्चा, राजनीतिक बहस के अल्पमत सरकार के मुखिया होने के नाते भी, क्योंकि कांग्रेस पार्टी संसद में अल्पमत में है, इसका फैसला कैबिनेट से करा दिया. उन्होंने अपने सहयोगियों, जो यूपीए मंत्रिमंडल में साथी हैं या राजनीतिक तौर पर कांग्रेस का समर्थन करते हैं, से भी औपचारिक या अनौपचारिक बातचीत नहीं की. नतीजे के तौर पर आज उनके सहयोगी भी उनसे दूर खड़े हैं, लेकिन मनमोहन सिंह को कोई चिंता नहीं है. वह कह रहे हैं कि इसे वह लागू ही करेंगे.
यह ठीक है कि देश का प्रधानमंत्री अभी नहीं बदला जाने वाला है और अगर नहीं बदला जाने वाला है तो फिर यह हड़बड़ी क्यों? बिना देश के लोगों को बताए हुए, विश्वास में लिए हुए, हारने का खतरा मोल लेते हुए भी मनमोहन सिंह इस फैसले को क्यों लागू करना चाहते हैं? अगर कोई राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री होता तो वह निश्चित रूप से अपने सहयोगियों से बात करता. मुझे इंदिरा जी याद आती हैं और राजीव गांधी जी भी याद आते हैं. मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि वे दोनों निर्णय का यह तरीका नहीं अपनाते, पर मनमोहन सिंह ने इस तरीके को अपनाया और सारे लोकतांत्रिक मूल्यों को किनारे रखते हुए यह फैसला लिया. न केवल फैसला लिया, बल्कि उन्होंने ममता बनर्जी और करुणानिधि, जो उनकी सहयोगी पार्टियों के नेता हैं, से भी बात करने की कोशिश नहीं की. जो खबरें अंदर से आ रही हैं, इससे ज़्यादा खतरनाक हैं. खबरें ये हैं कि उन्होंने इसे लागू करने से पहले अपनी पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी से भी बातचीत नहीं की.
जिस तरह के राजनीतिज्ञ हमारे बीच में हैं, उनमें न कोई लाल बहादुर शास्त्री है, न कोई इंदिरा गांधी है, न राजीव गांधी है. वी पी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर तो बहुत दूर की चीज हैं. चूंकि इस तरह के व्यक्तित्व अब लोकसभा में नहीं हैं, देश के लिए सोचने वाले लोग लोकसभा में नहीं हैं. इसलिए यही मानना चाहिए कि देश को अभी आत्महत्याओं का दौर भी देखना है.
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने आरोप लगाया है कि यह फैसला राहुल गांधी के दोस्तों को खुश करने के लिए किया गया है. राहुल गांधी ने भी अति उत्साह में बिना समझे हुए एफडीआई के फैसले का समर्थन कर दिया, जिससे यह लगा कि राहुल गांधी भी मनमोहन सिंह के साथ हैं. अगर राहुल गांधी मनमोहन सिंह के साथ हैं तो फिर वह सोनिया गांधी के साथ नहीं हैं, क्योंकि सोनिया गांधी के यहां से कई बार इस फैसले को वापस लेने की बात मनमोहन सिंह से की गई. सबसे दु:खद बात यह है कि सोनिया गांधी की मौजूदा बीमारी की खबर ने कुछ कमजोर लोगों को बहुत मजबूत बना दिया है. शायद ऐसे लोगों को यह खबर है कि सोनिया गांधी अपनी बीमारी की वजह से कोई भी सख्त कदम सरकार के खिला़फ नहीं उठा सकतीं, बल्कि एक समय मजबूर होकर उन्हें सरकार का समर्थन करना ही पड़ेगा. अब जब मनमोहन सिंह ने इसे लागू करने का पूरा मन बना लिया है तो या तो जनता में विद्रोह हो या राजनीतिक दल एकजुट हो जाएं, जो कि अभी एकजुट दिखाई दे रहे हैं और कांग्रेस के लोग भी उनके साथ हैं, तभी इसके रुकने की आशा की जा सकती है. पर ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है. तस्वीर यह बनेगी कि एफडीआई लागू होने के बाद देश के 22 करोड़ लोगों, जो इस खुदरा व्यापार में लगे हुए हैं, में से कईयों को उसी तरह आत्महत्या करनी पड़ेगी, जैसे भारत के किसानों के एक छोटे तबके को करनी पड़ रही हैं. ऐसे छोटे किसान, जो इस बाज़ार और बैंकिंग व्यवस्था के चलते नाउम्मीदी के शिकार हो गए हैं. अगर ऐसा ही कुछ व्यापारियों और खुदरा व्यापार की चेन में लगे छोटे-छोटे लोगों के साथ हुआ तो क्या होगा?
एफडीआई लागू होने के बाद विदेश का पैसा जब खुदरा व्यापार में लगेगा और फिर जो तस्वीर बनेगी, जो सिस्टम डेवलप होगा, उसमें इन लोगों के लिए शायद जगह न हो. इतनी सारी चीजों को मनमोहन सिंह ने सोचा है या नहीं, हम नहीं जानते, लेकिन हमें यह सोचते हुए डर लगता है कि हमारा प्रधानमंत्री इन चीजों पर ध्यान नहीं दे रहा है. शायद उन्होंने ध्यान दिया हो कि उनके सलाहकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया हैं, जिनका एक सबसे बडा एजेंडा अमेरिका, वर्ल्ड बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों को हिंदुस्तान में लागू करना है और हिंदुस्तान की संपूर्ण व्यवस्था को अमेरिकन सिस्टम का एक स्वीकार्य पुर्जा बनाना है. इसमें अभी तक तो मोंटेक सिंह अहलूवालिया और मनमोहन सिंह सफल हुए हैं. शायद आगे भी सफल हों, क्योंकि जिस तरह के राजनीतिज्ञ हमारे बीच में हैं, उनमें न कोई लाल बहादुर शास्त्री है, न कोई इंदिरा गांधी है, न राजीव गांधी है. वी पी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर तो बहुत दूर की चीज हैं. चूंकि इस तरह के व्यक्तित्व अब लोकसभा में नहीं हैं, देश के लिए सोचने वाले लोग लोकसभा में नहीं हैं. इसलिए यही मानना चाहिए कि देश को अभी आत्महत्याओं का दौर भी देखना है और प्राइवेट आर्मी को भी देखना बाकी है, क्योंकि जब ये बड़ी कंपनियां आएंगी तो, जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने यहां एक सेना बना ली थी, वैसे ही ये भी अपनी एक विशेष सेना अवश्य बनाएंगी और आने वाले दिनों में हिंदुस्तान सारी दुनिया में एक नए प्रकार की औपनिवेशिक दासता वाले देश के रूप में देखा या जाना जाएगा. यह बहुत दु:खद है, लेकिन इस दु:ख को देखने और सहने का माद्दा हिंदुस्तान की जनता में कितना है? बस यही देखना है. देखते हैं, घड़ा भरने में अभी कितना वक्त बाकी है?