यह बजट खतरनाक है

jab-top-mukabil-ho116 मार्च को प्रणब मुखर्जी लोकसभा में भाषण दे रहे थे. यह आम भाषण नहीं था, बल्कि 2012-13 का बजट भाषण था. सारा देश इस भाषण को ध्यान से सुन रहा था. हम भी इस भाषण को सुन रहे थे. इस भाषण को जब हमने सुनना शुरू किया तो हमें बहुत आशा थी कि प्रणब मुखर्जी इस देश के सामने आने वाली तकलीफ़ों को ध्यान में रखकर अपना बजट भाषण रखेंगे. लेकिन जैसे-जैसे व़क्त गुज़रता गया और प्रणब मुखर्जी का भाषण आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे हम देखते गए कि इस भाषण में वह नहीं है, जो होना चाहिए. और वह सब है, जो अगर नहीं हो तो उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. कहते हुए बहुत अजीब लगता है, क्योंकि ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हम हर बात की आलोचना करते हैं, लेकिन हम करें क्या. जब हम देश को देखते हैं, समाज को देखते हैं, समाज में रहने वाले सत्तर प्रतिशत लोगों को देखते हैं, उनकी भूख देखते हैं, उनकी मौत देखते हैं, तब बिना कहे रहा नहीं जाता. हम प्रणब मुखर्जी के भाषण में कृषि प्रधान भारत में रहने वाले किसानों के  लिए आशा ही तलाशते रहे, औद्योगिक क्षेत्रों को चलाने वाले मज़दूरों के लिए हम ख़ुशियों के क्षण तलाशते रहे. इस बजट में ग़रीब और वंचित कहां हैं, उनके हित की बातें कहां हैं. ये बातें मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि यह देश आशा और निराशा के मुंहाने पर खड़ा है. इस देश में रहने वाले और सरकार बनाने के लिए वोट देने वाले ग़रीब लोग, वे ग़रीब जो सरकार बनाते हैं, और वे ग़रीब जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी को बिठाते हों और किसी को नेता विपक्ष की कुर्सी पर बैठने का जनादेश देते हों, उन लोगों के लिए इस बजट में क्या है? इस सवाल को आज इसलिए उठाना ज़रूरी है, क्योंकि अगर इस देश में रहने वाले 70 प्रतिशत लोगों को आशा की जगह निराशा दिखेगी और वे अपने लिए कोई संभावना नहीं तलाशेंगे तो इस देश में एक तरफ़ अराजकता, क़ानून के प्रति अविश्वास, राजनीतिक तंत्र के प्रति ग़ुस्सा और नक्सलवाद के प्रति समर्थन बढ़ेगा. मैं नक्सलवाद शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि सरकार नक्सलवाद शब्द का इस्तेमाल बराबरी के लिए लड़ने वाले समूहों के लिए अब नहीं करती, बल्कि वह नक्सलवादी शब्द का इस्तेमाल अराजक उग्रवाद के लिए करती है. देश में नक्सलवाद की समस्या सबसे ज़्यादा है. अगर सेना में गए जवान का रिश्तेदार या दोस्त नक्सलवाद से सहानाभुति रखता है, तो इसका मतलब यह है कि जवान के मन में भी कुछ उथल-पुथल ज़रूर है. यह स्थिति देश के लिए ख़तरनाक साबित हो सकती है. इस बार विधानसभा चुनावों में सबसे ज़्यादा वोटिंग नौजवानों ने की. संभव है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में या जिन राज्यों में जल्द विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, वहां फिर से नौजवान बड़ी संख्या में वोटिंग करेंगे. लेकिन उन नौजवानों के लिए इस बजट में क्या है? मुझे कुछ ख़ास दिखाई नहीं पड़ा.

वित्त मंत्री जी कहते हैं कि वह 30 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की रक़म इन कॉरपोरेशन को बेचकर चुकाएंगे. प्रणब मुखर्जी साहब बिल्कुल उसी तरह व्यवहार कर रहे हैं, जिस तरह पुराने ज़मींदार या नवाब अपने शौक़, अपनी अय्याशी पूरी करने के लिए ज़मीनें बेच देते थे, सोना बेच देते थे, लेकिन अपनी अय्याशियां पूरी करते थे. या तो इस देश के अर्थशास्त्री रास्ता भटक गए हैं या इस देश की सरकार को चलाने वाले लोग अर्थशास्त्रियों के जाल में बुरी तरह जकड़ गए हैं और वे लोगों की बेहतरी के लिए कुछ सोच ही नहीं पा रहे हैं.

रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ेंगे, यह भी इस बजट में कहीं दिखाई नहीं पड़ा. सबसे ख़तरनाक स्थिति यह है कि नक्सलवाद को तर्क देने का काम कहीं यह बजट न कर डाले. नक्सलवाद उन राज्यों में ज़्यादा है, जिन राज्यों से सेना में सबसे ज़्यादा नौजवान जाते हैं. उन राज्यों में झारखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसग़ढ और राजस्थान शामिल हैं. इन राज्यों में रहने वाले नौजवानों के लिए या यूं कहें कि सारे देश के नौजवानों के लिए अगर यह बजट कुछ नहीं दे रहा है तो इन नौजवानों की आंखों में पलने वाले सपने टूट जाएंगे, और तब किस तरह की ध्वंसात्मक कराह निकलेगी. इसका अंदाज़ा राजनीति करने वालों को नहीं है. हिंदुस्तान अब 65 साल पहले का हिंदुस्तान नहीं है. हिंदुस्तान आज़ादी के 65 वर्ष गुज़ार चुका है. ये 65 वर्ष लोगों को समझदारी दे गए हैं, लोगों को नए सपने दे गए हैं और जब 2012-13 का बजट प्रणब मुखर्जी ने पेश किया तो उसमें इन सपनों की कोई जगह नहीं थी. अभी-अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, जिनमें नौजवानों ने बढ़-चढ़कर वोट डाला. 60, 70 और 80 प्रतिशत तक लोगों ने वोट डाले. इसका मतलब लोग आख़िरी कोशिश करके देखना चाहते हैं. उनके वोट से पैदा हुई ताक़त के बल पर जो लोग सत्ता में पहुंच रहे हैं, वे लोग उनके लिए कुछ करते भी हैं या नहीं. इसमें सबसे पहला स्थान केंद्र सरकार का है और उसके बजट का है. यह बजट प्रणब मुखर्जी साहब के शब्दों में स्थायित्व के लिए बजट है. सवाल उठता है कि अस्थायित्व को किसने पैदा किया? पिछले 8 सालों से आप सरकार में हैं. आपसे पहले भाजपा थी, तो इस स्थायित्व के न रहने का डर किसने पैदा किया? अब यह अजीब स्थिति है कि इस मुल्क में विकास का बुनियादी ढांचा अभी भी तैयार नहीं है. यह बजट विकास के उस बुनियादी ढांचे को तैयार करने के बारे में कुछ नहीं कहता. जो सबसे अद्‌भुत बात इस बजट में दिखाई दी वह यह कि भारतीय जनता पार्टी ने जिस डिसइंवेस्टमेंट की शुरुआत की थी, और उसने हमारे अच्छे-अच्छे कॉरपोरेशन औने-पौने दामों में बेच दिए. अब वित्त मंत्री जी कहते हैं कि वह 30 हज़ार करोड़ से ज़्यादा की रक़म इन कॉरपोरेशन को बेचकर चुकाएंगे. प्रणब मुखर्जी साहब बिल्कुल उसी तरह व्यवहार कर रहे हैं, जिस तरह पुराने ज़मींदार या नवाब अपने शौक़, अपनी अय्याशी पूरी करने के लिए ज़मीनें बेच देते थे, सोना बेच देते थे, लेकिन अपनी अय्याशियां पूरी करते थे. या तो इस देश के अर्थशास्त्री रास्ता भटक गए हैं या इस देश की सरकार को चलाने वाले लोग अर्थशास्त्रियों के  जाल में बुरी तरह जकड़ गए हैं और वे लोगों की बेहतरी के लिए कुछ सोच ही नहीं पा रहे हैं. मुझे यह कहते हुए बहुत अफ़सोस होता है कि देश के अर्थशास्त्री कुल मिलाकर हिंदुस्तान के लोगों के हित के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. इतने महान अर्थशास्त्री और देश में विकास न हो पाए, इतने महान अर्थशास्त्री और लोगों को रोटी न मिल पाए, इतने महान अर्थशास्त्री और लोगों को काम न मिल पाए. और इस नाकामी को दुनिया के हालात के साथ जोड़कर, यह उपदेश दिया जाए कि हमें तो उनके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलना है. अगर दुनिया के कुछ देशों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी या ख़राब हुई है, तो हमारे यहां भी इसका असर पड़ना लाज़िमी है, समझ में नहीं आता. हम अपने पड़ोसी देश चीन से भी कोई सीख नहीं लेते. अगर हम प्रतिस्पर्धा करते हैं तो पाकिस्तान से. हम चीन से प्रतिस्पर्धा करने का साहस नहीं जुटा पाते. शायद इसलिए हम अपने यहां से लोगों को चीन भेजने में ज़्यादा रूचि नहीं दिखा पाते, क्योंकि सरकार चलाने वाले लोगों को डर है कि चीन की प्रगति देखकर लोगों को लगेगा कि हिंदुस्तान में हम ऐसी प्रगति क्यों नहीं कर पा रहे हैं? इस बजट में राहुल गांधी की राजनीति के लिए क्या है? इस बजट में सोनिया गांधी के सोशल कंसर्न के लिए क्या है? सोनिया गांधी की एक आंतरिक सलाहकार समिति है, जिसमें हर्ष मंदर हैं, अरुणा रॉय हैं. ये लोग जिस सोशल कंसर्न की बात करते हैं, जिस सामाजिक ज़िम्मेदारी की बात करते हैं, उसके लिए इस बजट में क्या है? क्या यह बजट उन्हीं अर्थशास्त्रियों ने तो नहीं बना दिया, जो हिंदुस्तान की इस ख़राब हालत के ज़िम्मेदार हैं, जो हमारे देश में महंगाई के लिए ज़िम्मेदार हैं. अफ़सोस तो इस बात का है कि हमारे देश के सबसे बड़े पद पर बैठा व्यक्ति अर्थशास्त्री है. इस बजट को देखकर सेंसेक्स बढ़ गया,

उद्योगपतियों ने अपनी पीठ ठोक ली, वाहवाही कर ली. क्योंकि बहुतों को इस बात का अहसास हो गया है कि आने वाले महीने में जब यह बजट-सत्र समाप्त होगा और बजट-सत्र पर जवाब देने के लिए वित्त मंत्री खड़े होंगे, तब वित्तमंत्री भारतीय बाज़ार और भारतीय कृषि क्षेत्र के हर दरवाज़े को खोल देंगे और विदेशी पूंजी अपने लिए जगह बना लेगी. एक सोची-समझी योजना के तहत विदेशी पूंजी का प्रवेश हिंदुस्तान में हो रहा है. हम पुराने मार्क्सवादियों और पुराने समाजवादियों की तरह बात नहीं कर रहे हैं, जो हर जगह रस्सी को सांप की तरह देखते थे. लेकिन सांप को भी सांप की तरह न देखना बताता है कि सरकार चलाने वाले और विपक्ष में रहकर सरकार को चलाने में मदद करने वाले लोग दिनौंधी के शिकार हो गए हैं. एक बीमारी होती है रतौंधी, जब रात में लोगों को दिखाई नहीं देता, पर शायद दिनौंधी जैसी भी कोई बीमारी है, जिसमें लोगों को दिन में भी दिखाई नहीं देता. ये अंधे नहीं हैं, लेकिन इनकी दृष्टि राजनीतिक मोतियाबिंद की शिकार हो गई है. देखना दिलचस्प होगा कि इस बजट को लेकर लोकसभा में कैसी बहस होती है और जब लोकसभा में इस बजट को लेकर बहस हो तो टेलीविज़न देखने में और ख़ासकर लोकसभा चैनल देखने में बहुत आनंद आएगा. जब हम देखेंगे कि कोरम के लिए भी घंटियां अकसर बजा करेंगी. यह पता चलेगा कि लोगों को, ख़ासकर हमारे सांसदों को बजट कितना समझ में आता है. बजट में ग़रीबों के लिए क्या प्रावधान हैं, किसानों के लिए क्या प्रावधान हैं, उन्हें यह कितना समझ में आता है, यह अगला एक महीना बताएगा. किसान, मज़दूर, नौजवान, ग़रीब, परेशान लोग इस बजट के पास होने के बाद अपनी ज़िदंगी में कितनी ख़ुशी देख पाएंगे, इस बारे में कुछ नहीं कह सकते. इसके लिए बजट सत्र के समाप्त होने का इंतज़ार करना पड़ेगा. पर जैसा आग़ाज़ है और जैसा बजट का प्रारूप हमारे सामने आया है, उसे देखकर लगता है कि इसका अंजाम भी बहुत अच्छा नहीं होने वाला है. देश में तकलीफ़ें बढ़ने वाली हैं और एक मज़े की बात है कि देश में जब-जब परेशानियां बढ़ती हैं, तब-तब देश का सेंसेक्स ऊंचा होता है, सोने का भाव ऊंचा होता है, चांदी का भाव ऊंचा होता है. बड़ी-बड़ी इमारतें बनती हैं, लेकिन झोंपड़ियों में तो आग लग जाती है. बजट सत्र की समाप्ति का इंतज़ार करना होगा और देखना होगा कि 2012 और 2013 का साल इस देश के लिए क्या लेकर आता है. प्रणब मुखर्जी साहब, इतिहास इस देश के ग़रीबों को अनदेखा करने वाली ताक़तों को कभी माफ़ नहीं करता. आप देश के उन चंद लोगों में से हैं, जिनमें राजनीतिक समझ है. आप अपनी राजनीतिक समझ को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, हमें नहीं पता. लेकिन अब भी व़क्त है. इस मुल्क में रहने वाले 70 प्रतिशत लोगों की तरफ़ दोबारा देखिए, उनके दुख-दर्द को देखकर इस बजट में उनके लिए भी कुछ कीजिए.


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