यह टीम अन्ना की अग्नि परीक्षा का व़क्त है

jab-top-mukabil-ho1विपक्षी दल आखिर परेशान क्यों हैं? अन्ना हजारे के पार्टी बनाने के फैसले से पहले और फैसले के बाद उनकी परेशानी में कोई फर्क़ ही नहीं पड़ा है. जबकि ग़ैर कांग्रेसी विपक्ष लोकनायक जय प्रकाश नारायण के समय और विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय ऐसी स्थिति के स्वागत में लगा था. लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने बिहार में चल रहे छात्र-युवा आंदोलन को राजनीतिक दलों से दूर रखने का फैसला लिया था. उनका मानना था कि अगर राजनीतिक दल इस आंदोलन में कूदे तो वे इस आंदोलन को भटका देंगे. उस समय के सारे राजनीतिक दल अलग-अलग ढंग से जय प्रकाश जी पर दबाव डालते थे कि वह उन्हें आंदोलन में शामिल होने का मौक़ा दें, पर जय प्रकाश जी ने उसे माना नहीं. आपातकाल की समाप्ति के बाद विशेष स्थिति का निर्माण हुआ, जिसमें सभी दल चाहते थे कि वे चुनाव लड़ें और जय प्रकाश जी उनके पक्ष में प्रचार करें. जय प्रकाश जी ने शर्त रखी कि वह तभी प्रचार करेंगे, जब सभी विपक्षी दल मिलकर एक दल बना लेंगे. परिणाम स्वरूप जनता पार्टी बनी, लेकिन जनता पार्टी बनने के बावजूद फैसले कभी पार्टी के नाते नहीं हुए, बल्कि फैसले घटकों के नाते हुए. परिणाम स्वरूप जनता की आकांक्षाओं के कंधे पर सवार होकर सत्ता में पहुंचने वाली जनता पार्टी ढाई साल में ही बिखर गई.

अगले तीन महीने देश के लिए हलचल वाले महीने हैं. इन महीनों में न केवल राजनीतिक दलों का चेहरा सा़फ होगा, बल्कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों की रणनीति का भी पता चलेगा. सबसे ज़्यादा चुनौती का वक़्त अन्ना हजारे और उनके साथियों के लिए है. अगर अन्ना हजारे और उनके साथियों ने फिर वैसी ही ग़फलत दिखाई, जैसी उन्होंने पिछले साल दिखाई थी तो फिर उन पर लोगों का विश्वास कम हो जाएगा. अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के लिए स़िर्फ और स़िर्फ एक रास्ता बचता है कि वे बिना वक़्त खोए आम लोगों के बीच जाएं, देश को बदलने के अपने कार्यक्रमों से परिचित कराएं, हर ज़िले में सभाएं करें और जो लोग उन सभाओं में आते हैं, उनसे कहें कि वे क़स्बों एवं गांवों में सभाएं करें.

दूसरी स्थिति 87-88 में आई, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह राजनीति का केंद्र बने. कोई भी विपक्षी दल या नेता उन्हें गंभीरता से नहीं ले रहा था और न उन्हें नेतृत्व देने के लिए तैयार था, लेकिन जनता ने उन्हें एक मज़बूत नेता के रूप में स्थापित कर दिया. सन्‌ 87 खत्म होते-होते यह तय हो गया था कि जनता उन्हें सबसे बड़ा नेता मानती है और इसी दबाव ने कई पार्टियों को जनता दल बनाने के लिए विवश किया. यहां भी वही कहानी दोहराई गई और निहित स्वार्थों ने चंद्रशेखर और विश्वनाथ प्रताप सिंह को आमने-सामने कर दिया. इसमें निहित स्वार्थों ने चौधरी देवीलाल का ब़खूबी इस्तेमाल किया. दोनों ही सरकारें अच्छी नीतियां लिए हुए थीं, अच्छे काम करना चाहती थीं, लोगों के आंसू पोंछना चाहती थीं, लेकिन दोनों ही सरकारें बीच में टूट गईं. जनता के नाम पर एक होने वाले जनता के नाम पर ही अलग हो गए. अब 22 सालों के बाद फिर एक मौक़ा आया है. इन 22 सालों में लोगों की परेशानियां बुरी तरह बढ़ी हैं, लेकिन स्थिति में एक बहुत बड़ा बुनियादी फर्क़ है. सन्‌ 74 और सन्‌ 87 में जनता पार्टी और जनता दल में शामिल होने वाले दल कहीं भी सरकारों में नहीं थे और अभी हर राजनीतिक दल कहीं न कहीं सरकार में है. इसलिए जिस तीव्रता से कांग्रेस अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का विरोध कर रही है, उतनी ही शिद्दत से सभी ग़ैर कांग्रेसी दल इन दोनों का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इस समय सभी सरकारों का चरित्र लगभग एक है. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें, जिनमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं, यह मानते हैं कि वे जनता के लिए बहुत बेहतर कर रहे हैं, लेकिन जनता का मानना है कि उसके लिए कुछ नहीं हो रहा है.

शायद इसी वजह से सारे राजनीतिक दल परेशान हैं और अन्ना हजारे द्वारा शुरू किए गए अभियान का, चाहे पहले वह ग़ैर राजनीतिक रहा हो या अब राजनीतिक हो गया हो, विरोध कर रहे हैं. अन्ना हजारे का क़दम राजनीतिक दलों को इसलिए पसंद नहीं आ रहा है, क्योंकि शायद उन्हें अन्ना हजारे के जनता से किए गए वायदों का जवाब देना पड़ेगा या अपने समर्थकों को यह समझाना पड़ेगा कि अन्ना हजारे जो भी कर रहे हैं, वह जन विरोधी है. यह समझाना शायद राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल हो. यही राजनीतिक दल और टेलीविजन पर बहस करने वाले महापंडित पत्रकार यह बहस कर रहे थे कि अगर कांग्रेस भी खराब है, भाजपा भी खराब है, राजनीतिक तंत्र खराब है तो लोग किसे वोट दें. और अब, जब अन्ना हजारे ने एक राजनीतिक विकल्प देने की बात की तो सब परेशान हो गए. इनमें से बहुतों को यह लग रहा था कि अन्ना हजारे कभी पार्टी बनाएंगे नहीं और उनके आंदोलन का फायदा इन्हें मिल जाएगा. अन्ना हजारे के आंदोलन का सबसे ज्यादा नुक़सान कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में हुआ. अन्ना हजारे के आंदोलन का फायदा उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को हुआ. पर यह ब्लाइंड गेम था. लोगों में अपनी समस्याओं को लेकर, विशेषकर भ्रष्टाचार को लेकर जागरूकता तो बढ़ी, लेकिन वह किसी एक के पक्ष में संगठित नहीं हुई. अब राजनीतिक दलों को लगता है कि किसी को भी अन्ना हजारे के आंदोलन का फायदा नहीं मिलने वाला, इसलिए सभी ने एक सुर से इसका विरोध करना शुरू कर दिया है.

अब बाबा रामदेव की समझ का सवाल है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह प्रचार किया कि उसी के कार्यकर्ताओं ने अन्ना हजारे का आंदोलन संगठित किया है और उसी के कार्यकर्ताओं ने रामदेव का आंदोलन संगठित किया है. अन्ना हजारे ने अपनी भाषा, कार्यक्रम और घोषणाओं से यह साबित कर दिया कि आरएसएस ने यह अ़फवाह स़िर्फ श्रेय लेने और अन्ना हजारे को डिस्क्रेडिट करने के लिए फैलाई थी. अब बाबा रामदेव को यह साबित करना है कि उनका रिश्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और दूसरी राजनीतिक पार्टियों से कितना है. बाबा रामदेव राजनीतिक बाबा माने जाते हैं, उनकी फोटो हर राजनीतिक नेता के साथ है. राहुल गांधी, आडवाणी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, रामविलास पासवान एवं नरेंद्र मोदी सहित सभी से उनके संबंध हैं. संबंध होना एक बात है, राजनीतिक मित्रता होना दूसरी बात है. बाबा रामदेव के लिए यह सा़फ करना कि उनकी राजनीतिक शैली कैसी है, इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि इस देश के लोग राजनीतिक दलों की एंटी पीपुल अप्रोच से बहुत दु:खी हो चुके हैं. अगर वह लोगों को भरोसा दिला पाए कि उनकी शैली और उनके वायदे राजनीतिक दलों से भिन्न हैं तो लोग उनका भरोसा करेंगे.

अगले तीन महीने देश के लिए हलचल वाले महीने हैं. इन महीनों में न केवल राजनीतिक दलों का चेहरा सा़फ होगा, बल्कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों की रणनीति का भी पता चलेगा. सबसे ज़्यादा चुनौती का वक़्त अन्ना हजारे और उनके साथियों के लिए है. अगर अन्ना हजारे और उनके साथियों ने फिर वैसी ही ग़फलत दिखाई, जैसी उन्होंने पिछले साल दिखाई थी तो फिर उन पर लोगों का विश्वास कम हो जाएगा. अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के लिए स़िर्फ और स़िर्फ एक रास्ता बचता है कि वे बिना वक़्त खोए आम लोगों के बीच जाएं, देश को बदलने के अपने कार्यक्रमों से परिचित कराएं, हर ज़िले में सभाएं करें और जो लोग उन सभाओं में आते हैं, उनसे कहें कि वे क़स्बों एवं गांवों में सभाएं करें. अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण एवं मनीष सिसौदिया की यह अग्नि परीक्षा है. उन्हें इस इल्ज़ाम को ग़लत साबित करना है कि वे ग़ैर राजनीतिक लोग हैं, उन्हें न राजनीतिक भाषा आती है, न राजनीतिक शैली आती है, न उनके पास सोच है और न उनके पास कार्यक्रम हैं. अगर अन्ना हजारे एवं उनके साथी यह साबित कर पाए कि वे अपनी बात समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों और सभी वर्गों के ग़रीबों को समझा सकते हैं तो उनकी जीत में संदेह कम हो जाएगा. जीत की ओर क़दम बढ़ाने के लिए आज ही आम लोगों के बीच जाने का फैसला उन्हें लेना होगा. लेकिन, फैसला तो उन्हें ही लेना है.


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