लोकतंत्र की गुंजाइश खत्‍म हो रही है

jab-top-mukabil-ho1क्या कहें, अपना माथा पीटें, भगवान को, अल्लाह को, गॉड को दोष दें, किस पर अपनी खीज निकालें? सीएजी की रिपोर्ट आ गई. रिपोर्ट में क्या नहीं है! देखने पर लगता है कि हम जिस देश में रह रहे हैं, उसमें ईमानदार प्रबंधन नाम की कोई चीज ही नहीं बची है. यह टू जी स्पेक्ट्रम का मसला नहीं है, जिसमें प्रधानमंत्री जी ने कह दिया कि उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया. लोग उनको धमकाते रहे. उनके मंत्री ही उनको धमकाते रहे. प्रधानमंत्री खामोश रहे. देश को एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये का घाटा हो गया. प्रधानमंत्री जी के पास व़क्त नहीं था कि वह इस ओर ध्यान दे पाते. उन्होंने देश से मा़फी मांग ली, देश ने उन्हें मा़फ भी कर दिया, पर अब क्या है? अब सीएजी की रिपोर्ट आ गई और यह कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर है. इसमें सीएजी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर भी सवाल उठा रहा है और प्रधानमंत्री कार्यालय पर भी. उसकी रिपोर्ट सा़फ-सा़फ कह रही है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की कोताही और काहिली इसके लिए ज़िम्मेदार है. अ़फसोस इसलिए होता है कि प्रधानमंत्री पद पर बैठा हुआ आदमी अगर देश में चलने वाले ऐसे काम पर नज़र नहीं रख सकता, जिसका रिश्ता देश की इज़्ज़त के साथ है तो उस प्रधानमंत्री को क्या कहें? सीएजी की यह रिपोर्ट केंद्रीय सरकार के प्रबंधन के मुंह पर, जिसमें प्रधानमंत्री सीधे तौर पर शामिल हैं, एक तमाचा है. इस तमाचे की गूंज देश के लोगों के कानों में तो पहुंची, लेकिन जिसे तमाचा लगा, वह बेशर्मी के साथ अपनी स़फाइयां दे रहा है.

हम जब यह बात कह रहे हैं, तब हम विपक्ष की भाषा नहीं बोल रहे, क्योंकि देश में विपक्ष कहलाने वाले यानी लोकसभा में जो विपक्षी दल हैं भारतीय जनता पार्टी और दूसरे राजनीतिक दल, वे तो इतने गए-गुज़रे हैं कि उन्हें जनता का दर्द, जनता की तक़लीफ और जनता के आंसू दिखाई ही नहीं देते. महंगाई पर संसद में बहस होती है, वोट पड़ते हैं और मुख्य विपक्षी दल द्वारा लाया हुआ प्रस्ताव धराशायी हो जाता है. यही शायद सीएजी की कॉमनवेल्थ गेम्स की रिपोर्ट में भी होने वाला है. इसलिए, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी कॉमनवेल्थ आयोजन समिति में थे और उनमें कइयों ने बहती गंगा में हाथ धोया, लूट के हिस्सेदार बने. इसीलिए आज आपको कहीं पर भी ज़ोरदार सवाल उठते हुए नज़र नहीं आ रहे होंगे. मीडिया कितना करे? क्योंकि हमारे लोगों को भी तो कहीं न कहीं, कुछ न कुछ इसमें हिस्सा मिला है. मीडिया घरानों के कुछ लोग मीडिया के अलावा भी बिज़नेस करते हैं. चूंकि वे वहां व्यापार करते हैं, इसलिए उन्हें उसमें फायदा भी मिलता है. एक नेक्सस बन गया है. यह स्थिति हमारे देश में निराशा का माहौल पैदा कर रही है और इस कहावत को सही साबित कर रही है कि हमाम में सब नंगे हैं. निराशा की यह स्थिति देश के लिए खतरनाक है, क्योंकि लोगों को लगता है कि चाहे कितनी भी बड़ी लूट हो, चाहे कोई पकड़ा जाए, चाहे कोई कितना भी बड़ा अपराध करे, उसका कुछ नहीं होगा. साधारण आदमी की कोताही व चोरी और देश चलाने वालों की कोताही व उनमें पैदा हुई चोरी की आदत एक पैमाने की नहीं हैं. देश चलाने वालों का पैमाना भी बड़ा है और उनकी ज़िम्मेदारी भी बड़ी है. कितनी आसानी से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय का नाम अब सबकी ज़ुबान पर आ रहा है. क्या इनकी साख दोबारा बनाने की कोशिश नहीं की जा सकती?

हम जब यह बात कह रहे हैं, तब हम विपक्ष की भाषा नहीं बोल रहे, क्योंकि देश में विपक्ष कहलाने वाले यानी लोकसभा में जो विपक्षी दल हैं भारतीय जनता पार्टी और दूसरे राजनीतिक दल, वे तो इतने गए-गुज़रे हैं कि उन्हें जनता का दर्द, जनता की तक़लीफ और जनता के आंसू दिखाई ही नहीं देते. महंगाई पर संसद में बहस होती है, वोट पड़ते हैं और मुख्य विपक्षी दल द्वारा लाया हुआ प्रस्ताव धराशायी हो जाता है. यही शायद सीएजी की कॉमनवेल्थ गेम्स की रिपोर्ट में भी होने वाला है. इसलिए, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेता भी कॉमनवेल्थ आयोजन समिति में थे और उनमें कइयों ने बहती गंगा में हाथ धोया, लूट के हिस्सेदार बने. इसीलिए आज आपको कहीं पर भी ज़ोरदार सवाल उठते हुए नज़र नहीं आ रहे होंगे.

मुझे लगता है कि फिलहाल तो नहीं की जा सकती. अगर यह कोशिश नहीं की जा सकती, तभी डर लगता है कि देश की जनता अगर निराश होकर उन रास्तों को आशा की नज़र से देखने लगे, जो लोकतांत्रिक नहीं हैं तो क्या इसमें जनता का दोष है या उन लोगों का, जो जनता के मन में निराशा पैदा कर रहे हैं? निराशा का हद से गुज़र जाना विद्रोह का आधार बनता है. ऐसा भी नहीं है कि निराशा एक जगह हो, देश में हर जगह निराशा है. अगर सत्ता पक्ष से निराशा है तो विपक्ष से भी निराशा है. लोगों ने सवाल करने बंद कर दिए हैं. लोगों ने भ्रष्टाचार पर बात करनी बंद कर दी हैं. यह सरकार या विपक्ष की काहिली की सफलता नहीं है, यह लोगों के मन में पैदा हो रहे गुस्से का पूर्वाभास है. अगर यह गुस्सा देश में रहने वाले किसी भी वर्ग में फूटने की कगार पर पहुंच जाए तो हमारे लोकतंत्र के लिए परेशानियां पैदा हो जाएंगी. जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहां के लोग लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं और हमारे देश में जहां लोकतंत्र है, वहां हम लोकतंत्र की न इज़्ज़त कर रहे हैं और न लोकतंत्र को जी रहे हैं. हम लोकतंत्र में मिली आज़ादी का दुरुपयोग कर रहे हैं और इस हद तक दुरुपयोग कर रहे हैं कि लूट की कोई सीमा बची ही नहीं है. जो लूट में शामिल हैं, उनका कहना है कि ये व़क्ती बातें हैं. लोग भूलने के आदी हैं, बहुत जल्दी भूल जाएंगे.

अगर ऐसा है तो फिर यह देश शायद लोकतंत्र के काबिल नहीं है. हमारे लोकतंत्र में फैसला पांच साल के बाद ही होता है या तब होता है, जब जनता के हाथ में वोट देने के अधिकार का इस्तेमाल करने की स्थिति आती है. जनता अपने वोट का इस्तेमाल किसके खिला़फ करे और किसके पक्ष में करे, एक सवाल यह भी खड़ा हो रहा है. जो भी लोग अपनी भाषा से, अपने कर्मों से जनता के मन में निराशा पैदा कर रहे हैं, वे जनता के दुश्मन हैं. सीएजी की रिपोर्ट देश के लोगों के मन में अगर निराशा पैदा करने की जगह गुस्सा पैदा करे, तो मैं समझूंगा कि हमारे देश में अभी कुछ सालों तक लोकतंत्र के लिए का़फी गुंजाइश बची है. अगर लोग खामोश हो गए और न बोले तो मानना चाहिए कि लोकतंत्र की गुंजाइश धीरे-धीरे खत्म हो रही है.


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