आपका और आपकी मुस्कराहट का शुक्रिया

jab-top-mukabil-ho1अपने साथियों पर लिखना या टिप्पणी करना बहुत दु:खदायी होता है, क्योंकि हम इससे एक ऐसी परंपरा को जन्म देते हैं कि लोग आपके ऊपर भी लिखें. आप उन्हें आमंत्रित करते हैं. मैं यही करने जा रहा हूं. मैं अपने साथियों को आमंत्रित करने जा रहा हूं कि हमारे ऊपर जहां उन्हें कुछ ग़लत दिखाई दे, वे लिखें. मेरा संदर्भ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ देश के पांच संपादकों की बातचीत का है. इन पांच संपादकों में हिंदी के कम थे, अंग्रेजी के ज़्यादा थे. एक मराठी का था. ये संपादक देश की आस्था के पहरुए साबित नहीं हुए. किसी भी पत्रकार से यह आशा की जा सकती है, आशा की जानी चाहिए कि वह इस मुल्क में रहने वाले हर इंसान के दु:ख, दर्द, आंसू, परेशानी, भूख-प्यास और मौत के प्रति ज़्यादा ध्यान देगा, उसकी ज़्यादा चिंता करेगा. और जब भी उसका सामना सरकार नामक संस्था से, चाहे सरकार नामक संस्था का कोई सचिव हो या निर्णय लेने वाला अधिकारी हो या मुख्यमंत्री हो या फिर प्रधानमंत्री, से होगा तो उससे वह हिंदुस्तान के लोगों की तकलीफ के बारे में ज़रूर बात करेगा. यह बातचीत वह जी हुज़ूरी या चापलूसी की भाषा में नहीं, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की आंख में आंख डालकर करेगा. प्रधानमंत्री ने जिन पांच संपादकों को बुलाया, सवाल है कि क्या ये पांच संपादक पत्रकारिता के इस बुनियादी सिद्धांत की कसौटी पर खरे उतरे, क्या उन्होंने प्रधानमंत्री से देश के नागरिकों के सामने मौजूद समस्याओं के ऊपर बातचीत की?

देश के नागरिकों के सामने दो तरह की समस्याएं हैं. एक तो सतत चलने वाली समस्याएं हैं, जिनके हल होने हैं और जिन्हें हल होते-होते सालों बीत जाएंगे. पर कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जिनका रिश्ता अभी से जुड़ा हुआ है. क्या उन समस्याओं के ऊपर इन संपादकों ने एक आदर्श पत्रकार के नाते बातचीत की? इसका जवाब अगर ये संपादक ख़ुद दें तो ज़्यादा बेहतर होगा. पर हम विनम्रता से अपने साथियों से कहना चाहते हैं कि आपने ऐसा नहीं किया, आपसे चूक हो गई. अगर आपने यह चूक जान-बूझकर की है तो यह अपराध की श्रेणी में आता है और अगर आपने अनजाने में चूक कर दी है तो इसके लिए उन लोगों से आपको मा़फी मांगनी चाहिए, जो आज महंगाई के शिकार हैं, जो आज भ्रष्टाचार के शिकार हैं, जो आज सरकारी अकर्मण्यता के शिकार हैं, जो आज के राजनीतिक तंत्र की बेरहमी के शिकार हैं. मा़फी इसलिए मांगनी चाहिए कि लोगों का भरोसा पत्रकारों के ऊपर तब आकर टिकता है, जब वे हर जगह से निराश हो जाते हैं. निराशा भी इतनी गहरी होती है कि उनके सामने जीने-मरने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. मरने से पहले वे एक बार चाहते हैं कि किसी भी तरह, सरकार से निराश होकर, हर जगह से निराश होकर वे पत्रकार के पास जाएं और अपना दु:ख-दर्द कहें. उन्हें भरोसा होता है कि अगर पत्रकार ने उनकी बात सुन ली और अपने अ़खबार में लिख दी तो शायद उनकी सुनवाई उस जगह से हो सके, जहां से उनकी परेशानी पैदा हुई है या जो परेशानी का कारण है. यह विश्वास बहुत बड़ा विश्वास है. यह विश्वास आज की तारी़ख में या तो सुप्रीम कोर्ट के जज को मिला हुआ है या देश के पत्रकारों को. पत्रकारों में भी जो संपादक होते हैं, उनकी ज़िम्मेदारी बहुत ज़्यादा हो जाती है. पर ऐसा क्यों होता है कि जब हम लिखते हैं तो सख्त भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जब हम लिखते हैं तो विश्लेषण करते हैं, जब हम लिखते हैं तो लोगों के दु:ख-दर्द को अपना विषय बनाते हैं, लेकिन जब हम किसी हुक्मरान से मिलने जाते हैं तो ऐसी कौन सी स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे हमारे मुंह पर ताला लग जाता है और हम वह कोई भी सवाल नहीं पूछ पाते, वह कोई भी संदर्भ नहीं उठा पाते, जिसे हम खुद लिखते रहते हैं.

जिन पांच संपादकों को प्रधानमंत्री ने मिलने के लिए बुलाया, उनमें किसी की भी इंटीग्रिटी के ऊपर मेरे मन में कोई संदेह नहीं है. पर संदेह न होना एक चीज है और उनकी मुलाकात का नतीजा न निकलना दूसरी चीज. ये पांचों साथी जब प्रधानमंत्री से मिले तो इन्होंने प्रधानमंत्री से न किसानों की आत्महत्या के बारे में पूछा, न खाद के बढ़ते हुए दाम के बारे में पूछा, न देश में बढ़ती महंगाई के बारे में पूछा, न प्रधानमंत्री से उनके द्वारा की गई घोषणाओं का व़क्त बीतने के बाबत पूछा कि आपने ये-ये घोषणाएं की थीं कि इस-इस समय यह-यह हो जाएगा, वैसा क्यों नहीं हुआ और आपने लोगों से यह भी नहीं कहा कि उस समय हम अपने इन वायदों को पूरा नहीं कर पाए, इसलिए देश उन्हें क्षमा करें. ये सवाल प्रधानमंत्री से होने चाहिए थे. मौजूदा प्रधानमंत्री जब वित्त मंत्री थे और नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे तो इन्होंने नई आर्थिक नीति की घोषणा करते हुए अपना मशहूर भाषण दिया था कि 2012 तक इस देश में बिजली की समस्या, ग़रीबी की समस्या या कहें कि जितनी भी बड़ी-बड़ी समस्याएं थीं, सब सुलझ जाएंगी. इसलिए आर्थिक नीतियां बदल गई हैं. हमारे संपादकों को प्रधानमंत्री से पूछना चाहिए था कि देश आज कहां है. जब इन्होंने घोषणा की थी सन्‌ 92 में, उस समय और आज की स्थिति में क्या कोई फर्क़ है? क्या लोगों की ज़िंदगी में कुछ खुशहाली आई है? समस्याएं, जिन्हें दूर करने का इन्होंने वायदा किया था, उन्हें हल होने में अब और कितने साल लगेंगे? देश का वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री कोई वायदा करता है तो उस वायदे का कोई मतलब होता है. इसी तरह प्रधानमंत्री ने अभी साल भर पहले बताया था कि मार्च महीने तक महंगाई कम हो जाएगी. ऐसा नहीं हुआ. क्या प्रधानमंत्री से इन संपादकों ने पूछा?

देश में किसानों द्वारा आत्महत्या हो रही है, क्या यह सवाल इन संपादकों के दिमाग़ में नहीं आया? इस देश का अल्पसंख्यक अपनी हिस्सेदारी के लिए तड़प रहा है, उसे स़िर्फ वायदे ही वायदे मिल रहे हैं. क्या कांग्रेस या मौजूदा सरकार ने उससे किए वायदे पूरे किए? क्या इस बारे में कोई सवाल प्रधानमंत्री से पूछा गया? प्रधानमंत्री ने माइनॉरिटी के लिए 15 सूत्रीय कार्यक्रम लागू किया था, वह कार्यक्रम कितना सफल हुआ, क्या इस बारे में संपादकों ने प्रधानमंत्री से पूछा? पुराने ज़माने में हम सुनते थे कि वायसराय जब अपने वायसराय हाउस में, जो आज का राष्ट्रपति भवन है, दावत देता था तो कुछ पत्रकारों को भी बुलाता था. पत्रकार वहां जाकर बहुत खुशी के साथ दावत का लुत़्फ उठाते थे और जब बाहर निकलते थे तो शान से आसपास देखते थे अपने साथियों की तऱफ और देखने का भाव होता था कि देखा, तुम्हें नहीं बुलाया, मुझे बुलाया. नतीजे के तौर पर, जिन्हें नहीं बुलाया जाता था, वे पत्रकार इस कोशिश में लग जाते थे कि अगली बार उन्हें भी बुलाया जाए. हमारे साथी प्रधानमंत्री के यहां गए, उन्हें चाहिए था कि वे प्रधानमंत्री का मूड इंटरव्यू करते. जब वे सवाल पूछ रहे थे तो प्रधानमंत्री के चेहरे पर क्या भाव आए, प्रधानमंत्री की आंखों ने क्या कहा, प्रधानमंत्री का शरीर तिलमिलाया, कसमसाया या नहीं कसमसाया? हालांकि उन्होंने सवाल पूछे ही नहीं तो उनके मूड इंटरव्यू का कोई मतलब ही नहीं होता. पर फिर भी, जो भी वहां बातचीत हुई, उसे सबसे पहले उन्हें अपने दफ्तर में जाकर, अपनी टेबल पर बैठकर लिखना चाहिए था और पांचों संपादकों कोे पांच एक्सक्लूसिव राइटअप अपने अ़खबारों में देने चाहिए थे.

ये पांचों संपादक वहां अपने अख़बार के संपादक के नाते नहीं गए थे. सारा देश इन्हें देख रहा था कि ये देश के पहले चुने हुए संपादक हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री ने मिलने के लिए बुलाया है. इनसे लोगों की अपेक्षाएं थीं कि ये उनकी तकलीफ, दु:ख-दर्द के बारे में वहां बात करेंगे. लेकिन वहां जो बातचीत हुई, वह हमारे सामने है. मूलभूत विषयों के ऊपर, आज की समस्याओं के ऊपर बातचीत नहीं हुई. महज़ समस्याओं के इर्द-गिर्द जाकर ही बातचीत हुई. इन संपादकों ने यह नहीं पूछा कि आख़िर प्रधानमंत्री को क्यों यह कहने की ज़रूरत पड़ गई कि पार्टी उनके साथ है और वह स्थिर हैं, मज़बूत हैं, वह त्यागपत्र नहीं देंगे. यह सवाल खड़ा किया जाना चाहिए था. कोई तो रीज़न होगा, अ़फवाहें कौन उड़ा रहा है, ये अफवाहें भाजपा उड़ा रही है या कांग्रेस? ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा गया. इसकी जगह पर हमारे साथी जब प्रधानमंत्री निवास से बाहर निकल कर आए तो विजेता की तरह निकल कर आए. उन्होंने बाहर आकर प्रधानमंत्री कैसे थे, क्या था. यानी कुल मिलाकर उन्होंने जो वर्णन किया, वह प्रधानमंत्री का महिमा मंडन था. प्रधानमंत्री देश का प्रधानमंत्री है और उसका कंसर्न देश के कंसर्न के साथ है या नहीं, यह उन्होंने नहीं बताया.

हमारा विनम्र निवेदन है कि उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री से इस देश के लोगों की तकलीफों के बारे में भी पूछें और उन्हें एक आईना दिखाएं, सही पत्रकार होने के नाते आईना दिखाएं कि देश ऐसा है, आप यह बोल रहे हैं, दोनों में कहीं कोई तारतम्य है क्या? सोचना उन संपादकों या पत्रकारों को है, जो आगे प्रधानमंत्री से मिलने जाने वाले हैं. जो मिलकर आए और उन्होंने जो कहा, उसके लिए उन्हें और उनकी मुस्कराहट को शुक्रिया के अलावा हम और क्या कह सकते हैं

पत्रकारिता का पेशा बहुत अहम पेशा होता है. पत्रकारों को लोगों के हितों का पहरुआ माना गया है. सरकार के हितों का पहरेदार सच्चा पत्रकार नहीं होता. यही चीज हमारे साथी भूल गए हैं. हम ख़ुद व्यक्तिगत जीवन में अच्छे हैं या बुरे, यह सवाल नहीं है. संपादक का यह धर्म है, पत्रकारिता का यह धर्म है, इस पेशे का धर्म है कि हम जनता के दु:ख-दर्द, उसकी तकलीफ और उसके आंसू के बारे में सरकार से पूछें, अधिकारियों से पूछें, मुख्यमंत्री से पूछें और प्रधानमंत्री से तो ज़रूर पूछें. जब हम यह काम नहीं करते हैं तो कहीं न कहीं पत्रकारिता के पेशे के साथ न्याय नहीं करते. मैं और भी कठोर शब्द इस्तेमाल कर सकता था कि हम पत्रकारिता के पेशे के साथ क्या-क्या नहीं करते. पर आज मुझे यही कहना चाहिए कि हम न्याय नहीं करते. हम उस पेशे के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों को जोड़ देते हैं. हम रिश्ता बनाने लगते हैं. हम किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की एक मुस्कान के ताबेदार हो जाते हैं. उसने अगर हमें देखकर एक मुस्कराहट फेंक दी तो लगता है कि हम बहुत महत्वपूर्ण हैं. ऐसा नहीं है. अगर आपके लिखने से चंद लोगों की आंखों के आंसू पुंछ सकें और उन्हें लगे कि जो शख्स गया था, उसने उनकी तकलीफ के बारे में देश के सबसे बड़े निर्णायक आदमी से सवाल पूछा तो शायद उन्हें थोड़ा ढांढस बंधे. यह सवाल पत्रकारों के सोचने के लिए है, संपादकों के सोचने के लिए है. वक्त आ गया है कि सोचें.

हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री निवास या प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार या उनके यहां जो भी इस चीज को ऑर्गनाइज़ कर रहे हैं, वे उन संपादकों और पत्रकारों को कभी नहीं बुलाएंगे, जो जनता के पक्ष में लिखते हैं. जो यद्यपि पूरी तरह न सरकार विरोधी हैं और न सरकार के पक्षधर, लेकिन जो जनता के दु:ख-दर्द को समझने वाले हैं. जिनका बुनियादी फर्ज़ जनता की तकलीफों को उठाना है. जो जनता की तकलीफों को मैग्निफाइंग ग्लास से देखकर सरकार को दिखाना अपना कर्तव्य समझते हैं. हम जानते हैं, वे देश के प्रति चिंता रखने वाले ऐसे पत्रकारों को प्रधानमंत्री से बात करने के लिए नहीं बुलाएंगे. पर जिन्हें भी बुलाएंगे, वे पत्रकार होंगे या संपादक होंगे और आगे यह कड़ी जारी रहने वाली है, ऐसा इंप्रेशन प्रधानमंत्री निवास की तरफ से आया है. अगर ऐसा है तो जो पत्रकार आगे जाने वाले हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए. हमारा विनम्र निवेदन है कि उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री से इस देश के लोगों की तकलीफों के बारे में भी पूछें और उन्हें एक आईना दिखाएं, सही पत्रकार होने के नाते आईना दिखाएं कि देश ऐसा है, आप यह बोल रहे हैं, दोनों में कहीं कोई तारतम्य है क्या? सोचना उन संपादकों या पत्रकारों को है, जो आगे प्रधानमंत्री से मिलने जाने वाले हैं. जो मिलकर आए और उन्होंने जो कहा, उसके लिए उन्हें और उनकी मुस्कराहट को शुक्रिया के अलावा हम और क्या कह सकते हैं.


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