पाकिस्तान के लोग समझदार हैं, इसलिए बातें ज़्यादा बताने वाली नहीं हैं लेकिन वहां की सरकार क्यों समझदार नहीं है, इस पर आश्चर्य है. राज्य की सत्ता के कुछ प्रतीक होते हैं, जिन पर आंच आने का मतलब राजसत्ता पर आंच आना माना जाता है. कोषागार, जेल, सेना मुख्यालय और राजभवन ऐसी ही जगहें हैं जिन पर हमला होने का मतलब इन्हें चुनौती देना होता है. पाकिस्तान में सेना पर छुटपुट हमले होते रहे हैं, स्वात और वज़ीरिस्तान में सेना का मुक़ाबला भी होता रहा है पर सेना मुख्यालय पर हमलों की शुरुआत ख़तरनाक संकेत मानना चाहिए. लाहौर में ट्रेनिंग सेंटर पर हमला हुआ था जिसे लेकर पाकिस्तान के नागरिक बहुत चिंतित हुए थे, और अब यह नई शुरुआत.
पाकिस्तान एक अजीब कशमकश में दिखाई दे रहा है. एक ओर इतनी ग़रीबी है कि वहां आटा और रोटियां बांटनी पड़ रही हैं, जिसमें बंटवारे के दौरान हादसे होते हैं और लोग मारे जाते हैं. आतंकवाद इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है कि लगभग हर रोज़ कहीं न कहीं धमाका होता है और दस से बीस जानें जाती हैं. लाहौर में हर कालोनी में प्राइवेट गार्ड बड़ी संख्या में सोफेस्टीकेटेड हथियारों के साथ दिखाई पड़ जाते हैं. पंजाब को अब वहां की ख़ु़फिया एजेंसी स्वात की तरह देखने लगी है. बेरोज़गारी ने आतंकवाद को फैशन और अराजकता और लूटपाट को ज़िंदा रहने का तरीक़ा बना दिया है. कराची अराजकता का सबसे अच्छा उदाहरण है. अगर कोई पाकिस्तान के देहातों में जाना चाहे तो उससे कहा जाता है कि सिक्यूरिटी लेकर ही उसे जाना चाहिए.
तीसरी ओर पाकिस्तान सरकार अपनी कमज़ोरी से पैदा होने वाली समस्याओं का ज़िम्मेदार बाहरी देश को बता देती है. पाकिस्तान की शब्दावली में बाहरी देश का मतलब भारत से है. सेना मुख्यालय पर हमला हुआ, तहरीके तालिबान ने ज़िम्मेदारी भी ले ली पर पाकिस्तान सरकार के गृहमंत्री ने कह दिया कि आतंकवादी घटना के पीछे बाहरी देश का हाथ है. पाकिस्तान सरकार आतंकवाद के ख़तरे का सामना ज़रूर कर रही है, लेकिन वह उसे समाप्त करने की जगह बनाए रखना चाहती है. उसकी कोई लड़ाई आतंकवाद को ख़त्म करने की ओर नहीं जाती. वज़ीरिस्तान में अलक़ायदा है जिसकी मदद से तालिबान स्वात, मनेर और अब पंजाब की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं. कहते हैं कि कराची और लाहौर तालिबान के बड़े नेताओं की शरणस्थली तो है ही, उनका समर्थन भी तेज़ी से बढ़ रहा है. एक ओर पाकिस्तान की सेना, हथियार बंद तालिबानियों से जगह-जगह लड़ती नज़र आती है पर दूसरी ओर पाकिस्तानी सरकार उन राजनैतिक नेताओं को खुला छोड़े हुए है जो तालिबानी विचारधारा पर आधारित संगठनों के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं. यह अंतर्विरोध है जिसे आज पाकिस्तान की सरकार अनदेखा कर रही है और अपने लिए स्वयं ख़तरा पैदा कर रही है.
पाकिस्तान की जनता की हिम्मत की दाद देनी चाहिए, जो इस माहौल के ख़िला़फ खड़ी हो रही है. तालिबानी संस्कृति के ख़िला़फ पाकिस्तानी औरतें प्रदर्शन कर रही हैं और जुलूस निकाल रही हैं. लड़कियां तालिबानी धमकियों को अनदेखा कर रही हैं और शालीन आधुनिक कपड़े पहनने की हिम्मत कर रही हैं. वहां के लेखक, डॉक्टर, वकील और आम लोग इस जाल से निकलना चाहते हैं. वहां के नौजवानों में इमरान ख़ान को लेकर ख़ासा उत्साह है, हालांकि इमरान ख़ान को राजनैतिक तौर पर कभी सफलता नहीं मिली. वहां के नौजवानों का कहना है कि उनकी चुनाव प्रणाली इतनी भ्रष्ट और ख़र्चीली है कि उसमें कोई सही राजनैतिक ताक़त पनप ही नहीं सकती.
हमारी जानकारी बताती है कि पाकिस्तान की सिविल सोसाइटी अब खुल कर पिछड़ेपन, जहालत और तालिबानी दिमाग़ के ख़िला़फ खड़ी हो रही है. वे मौलाना या मौलवी जो सही बात कह रहे हैं, उनकी हत्याएं पाकिस्तान में तालिबानियों द्वारा की जा रही हैं, लेकिन इसके बाद भी ऐसी संख्या मौलवियों की बढ़ रही है जो कुरान शरीफ का सही मतलब लोगों को बता रहे हैं.
पाकिस्तान में मज़हब की व्याख्या भी दो तरह की हो रही है. एक वह जो कट्टरता और अंधेरेपन की ओर ले जाती है, दूसरी वह जो हज़रत मोहम्मद पैगम्बर साहब की व्याख्या को उसके अर्थ के साथ आम आदमी को रोशनी देती है. दोनों ही बातें मौलवी ही कहते हैं, पर जो मौलवी हज़रत साहब की बातें कहते हैं उनकी हत्याएं बताती हैं कि उनकी बातों से उन्हें ख़तरा पैदा हो जाता है जो मज़हब की, कुरान शरीफ की मनमानी व्याख्या करते हैं.
पाकिस्तान की सरकार नागरिक ताक़त के साथ खड़ी दिखाई नहीं देती. वह विकास के, रोज़गार बढ़ाने के काम कम कर रही है, अपने लिए समस्याएं बढ़ाने का काम ज़्यादा कर रही है. उसे चाहिए कि वह अपने नागरिकों को ग़लत जानकारी न दे, क्योंकि आज संचार और सूचनाओं की दुनिया इतनी खुली हुई है कि सही ग़लत का पता बहुत जल्दी चल जाता है.
मज़े की बात है कि पाकिस्तान सरकार की तरह ही भारत की सरकार भी समस्याओं की अनदेखी करती नज़र आ रही है. किसी भी देश की सरकार को केवल पांच साल के बारे में नहीं सोचना चाहिए, बल्कि अगले बीस सालों को ध्यान में रख योजनाएं बनानी चाहिए. और यही नहीं हो रहा. हम देखते हैं कि सड़क बनी, अगले साल चौड़ी की जा रही है. पुल बना, पर वाहनों का बोझ नहीं उठा पा रहा. फसल पैदा हुई, भाव नहीं मिला. रोज़गार के अवसर कम से कम होते जा रहे हैं. ग़रीब और दलित अशांत हो रहे हैं. वहीं अल्पसंख्यक आदमी अपने को दूसरे दर्जे का नागरिक मान रहे हैं. किसका दोष है यह? यह नागरिकों का नहीं, सरकार का कसूर है. हम आशा करते हैं कि सरकार अपनी ख़ामियों को दूर करेगी, वरना जनता का असंतोष और बढ़ेगा.