सैयद अली शाह गिलानी : बेटों को जवान होते नहीं देख पाया

gilaniसैयद अली शाह गिलानी हुरियत के नेता हैं. गिलानी साहब ताउम्र कश्मीर की अवाम के अधिकारों के लिए लड़ते रहे. कई बार जेल गए, नज़रबंद भी हुए, पुलिस की लाठियां भी खाई, ये उनके जीवन का एक पहलू है जिसे सारी दुनिया जानती है. लेकिन उनके जीवन का एक मानवीय पहलू भी है, जिसके बारे में दुनिया अनजान है. वो एक नरम दिल इंसान हैं. उनके सीने में भी धड़कता हुआ दिल है. वो एक पिता भी हैं. घर के आंगन में बच्चों के साथ न खेल पाने की कसक भी है. लेकिन सियासत और संघर्ष में अली शाह गिलानी का जीवन ऐसा उलझा कि अपने परिवार को समय ही नहीं दे पाए, जिसका उन्हें मलाल है.

चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने पहली बार गिलानी साहब के अंदर के उस इंसान को तलाशा, जो अपनी ज़िंदगी में अपने बच्चों के बचपन को न देख पाने, बच्चों को बड़ा होते हुए न देख पाने, बच्चों की शरारतों को न देख पाने की कसक को अपने दिल में ख़ामोशी के साथ बंद किए अपने मक़सद के लिए लड़ाई लड़ता रहा.

पिछली बार जब मैं कश्मीर गया था, तो गिलानी साहब से मिलने की कोशिश की थी, लेकिन पुलिस ने मिलने नहीं दिया था. हालांकि पुलिस के आईजी को हम बता कर आए थे कि हम गिलानी साहब से मिलने जा रहे हैं और उन्होंने कहा था कि ज़रूर मिलिए, कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन शायद उन्होंने ही वहां फोर्स भेज दिए और बहुत ज्यादा फोर्स भेज दिए, जिसने गिलानी साहब के घर को और उस रास्ते को रोक दिया. मैं उस बार नहीं मिल पाया. मिलने का समय तीन बजे का था.

इस बार फिर मैंने कोशिश की और मैं गिलानी साहब के घर फिर पहुंचा. वक्त वही तीन बजे का था. मुझे स़िर्फ 15 मिनट का समय गिलानी साहब ने दिया था. मैंने सोचा 15 मिनट में ही मैं जितनी बात कर सकता हूं, उतनी बात करूंगा और चूंकि पुलिस ने मुझसे कहा था कि मैं मोबाइल न ले जाऊं, तो मैं मोबाइल गाड़ी में छोड़कर गिलानी साहब के पास गया. एक लंबा सा अहाता है, जिसमें एक गलियारा है, गलियारे के बाद गिलानी साहब के कमरे तक एक सीमेंट का रास्ता है. बाईं तरफ़ छोटा सा लॉन है और उसके बाद वो बैठक शुरू होती है, जहां गिलानी साहब से लोग जाकर मिलते हैं.

मैं उस बैठक में पहुंचा और मैंने सामने ख़ाली कमरा पाया. उस कमरे के भीतर मैं और मेरे साथ गए हारून रेशी बैठ गए. थोड़ी देर में गिलानी साहब के छोटे बेटे नसीम और उनके कुछ सहयोगी भी आकर सोफे पर बैठ गए. गिलानी साहब अंदर से आए और उस कुर्सी पर बैठ गए, जिसपर वो अक्सर बैठते हैं. मैंने शुरुआती दुआ-सलाम के बाद उन्हें अपना परिचय दिया और पिछली बार न मिलने की वजह बताई, तो उन्होंने कहा कि हां आप पिछली बार आए थे. मैं मिलना भी चाहता था, लेकिन सरकार ने आपको नहीं आने दिया, तो अब क्या किया जा सकता है?

गिलानी साहब से मेरी लगभग बीस मिनट की बातचीत हुई, जिसका रिश्ता इतिहास से, कश्मीर के लोगों की तकलीफ़ (जैसा कि वो समझते हैं) से और अभी के कश्मीर के हालात से था. इन सारी चीज़ों पर वो लगभग बीस मिनट तक हमें समझाते रहे. जब वो समझा रहे थे, मैं उनके चेहरे की तरफ़ देख रहा था, तो मुझे लगा कि इस शख्स ने सारी ज़िंदगी स़िर्फ और स़िर्फ सियासत की है.

क्या सियासत के अलावा इनके मन में कभी कुछ और नहीं आया? वे बोल रहे थे और मेरे हाथ नोट्स ले रहे थे, लेकिन मेरा दिमाग़ कह रहा था कि मैं इनसे ये ज़रूर पूछूं कि क्या इनके मन में कोई कसक बाक़ी रह गई है? पहला सवाल मैंने यह पूछा कि इस समय आपकी उम्र क्या है? तो उन्होंने कहा 87 साल और तब मुझे लगा कि इस शख्स से उन चीज़ों के बारे में ज़रूर पूछना चाहिए, जो शायद लोग नहीं पूछते होंगे.

अचानक मैंने गिलानी साहब से पूछा कि सर आपके मन में कहीं कुछ ऐसी कसक तो नहीं रह गई है कि मैं ये करता तो ज्यादा अच्छा रहता, वो करता तो ज्यादा अच्छा रहता, या दूसरे लफ्ज़ों में, सियासत के अलावा आपके मन में क्या-क्या चल रहा था? जैसे कई लोगों के मन में होता है कि मैं सिनेमा में होता और एक्टिंग करता, तो बहुत अच्छा रहता. किसी के मन में होता है कि मैं बहुत अच्छा म्यूज़ीशियन बनता. मैंने उनसे पूछा कि ऐसी कौन सी चीज़ें उनके मन में रह गई हैं? क्योंकि 87 साल का मतलब एक पूरी दुनिया होती है.तो इसमें ऐसी कौन सी चीज़ पॉलिटिक्स के अलावा रह गई, जो पॉलिटिक्स की वजह से नहीं हो पाई? क्या आपने अपने बच्चों को पूरा वक्त दिया? मैं यह पूछ रहा था और गिलानी साहब इन सवालों से थोड़े से असहज तो नहीं हुए, लेकिन थोड़े ज्यादा मानवीय हो गए और शायद मेरा आख़िरी वाक्य कि क्या आपने अपने बच्चों को पूरा वक्त दिया, उन्हें कुछ असहज कर गया. उन्होंने पहले मेरी तरफ़ देखा फिर अपने बेटे नसीम की तरफ़ देखा, जो वहां बैठे हुए थे.

बोले, हां ये चीज़ें मेरे मन में रही तो हैं. आगे उन्होंने कहा कि यह मेरा दूसरा लड़का है. इससे बड़ा नईम है, वो डॉक्टर है और ये भी डॉक्टर हैं, लेकिन फिलॉसिफी में. ये 11 महीने के थे, जब इनकी मां का देहांत हो गया. इनकी मां के देहांत के बाद एक ख़ातून, जो हमारे यहां टीचर के तौर पर रह रही थीं, इन्होंने अपना सारा बचपन बांदीपोरा में उनके साथ रह कर काटा, बल्कि बचपन ही नहीं, ये यूनिवर्सिटी तक बांदीपोरा में ही रहे.

जब गिलानी साहब ये कह रहे थे, तब मुझे उनके चेहरे की रंगत और आंखों की रंगत में कुछ कसक दिखाई दी और मैंने उनसे पूछा कि इन्होंने आपके साथ बचपन नहीं गुज़ारा, इसका मतलब आपके मन में एक कसक है कि बच्चों का बचपन आप नहीं देख पाए. ये कैसे बड़े हुए, कैसे चोट खाई, कैसे खेले, कैसे लड़े-झगड़े, कैसे चीज़ें मांगीं.

गिलानी साहब ने एक सेकेंड का पॉज रखा और मेरी ओर देखकर बोले, हां मैं जाता था बांदीपोरा, इन्हें देखता था, मुलाक़ात करता था, लेकिन इस सारी अवधि में ये वहीं रहे. इन्होंने अपना बचपन उन ख़ातून के साथ ही गुज़ारा. मैंने पूछा कि क्या ऐसा इसलिए कि घर में कोई संभालने वाला नहीं था? आप व्यस्त थे बहुत सारी चीज़ों में, शायद सियासत में. गिलानी साहब ने कहा, नहीं-नहीं, उन ख़ातून ने इनको बड़े प्यार से रखा और उन्होंने मुझसे कहा था कि जब ये एमए कर लें, तब आप इनको अपने घर ले जाएं, तब तक मैं इनकी देखभाल करूंगी.

फिर मैंने अचानक गिलानी साहब से पूछा कि जब बीच में गैप रहता था, इन लोगों से मिलने के बाद तो आपको ये दोनों बच्चे कितना याद आते थे? गिलानी साहब ने बिना रुके जवाब दिया, याद तो आती थी, हर वक्त याद आती थी. अब मैंने उनसे पूछा कि याद तो आते ही होंगे, आपके बच्चे हैं. लेकिन एक याद होती है कि याद आई और आप चल दिए, वहां पर बच्चों सें मिलने के लिए और एक याद होती है कि पता कर लिया कि ख़ैरियत से हैं या नहीं हैं.

किस तरह की याद थी आपकी? अब गिलानी साहब गहरी नज़रों से मुझे देख कर बोले, नहीं-नहीं-नहीं, जब याद आती थी, तो चले जाते थे, लेकिन मसरूफ़ियत (व्यस्तता) तो रहती थी. इसलिए बार-बार नहीं जाया जा सकता था, लेकिन जब गहरी याद आती थी, तो मैं चला जाता था. फिर मैंने पूछा कि पॉलिटिक्स में आने के  बाद ऐसा हुआ होगा, जब बच्चे बड़े हो गए होंगे, तब आप पॉलिटिक्स की वजह से इन्हें वक्त नहीं दे पाए होंगे. गिलानी साहब ने सर हिलाते हुए कहा, हां बिल्कुल, अक्सर मसरूफ़ियत रहती थी.

अब मुझे लगा कि थोड़ा सवाल बदलना चाहिए, तो मैंने उनसे पूछा कि आपको इसका थोड़ा भी मलाल नहीं है कि इन दोनों बच्चों को जितना वक्त देना चाहिए था, आप नहीं दे पाए? आपको ऐसा नहीं लगता कि जैसे आप सिखाते वैसे ये सीखते, जैसे आप ढालते वैसे ये ढलते? ये वैसे नहीं बन पाए. अगर आपका डायरेक्शन होता, तो शायद कुछ अच्छा बनते. तो गिलानी साहब ने कहा, मैं आपको क्या बताऊं, ये ख़ुद ही पढ़ते रहे और ख़ुद ही देखते रहे कि हमारे अब्बा क्या कर रहे हैं? इसमें उस सिचुएशन का असर है.

इन्होंने यह समझा और अब ये कहते हुए कि अब्बू ने एक स्टैंड लिया है, जम्मू-कश्मीर के बारे में या सियासत के बारे में. उसपर ये दृढ़ता से डटे रहे हैं, इसका इनको अहसास है और इनकी ख्वाहिस भी है. इनका मशवरा भी है और ये कहते भी हैं कि जब सारी उम्र आप एक स्टैंड पर रहे हैं, अब आख़िरी दौर में भी आपको उसी पर इस्तक़ामत का मुज़ाहिरा करना चाहिए. मतलब आप अब तक जिस स्टैंड पर रहे हैं, आख़िरी दौर में भी आपको उसी के ऊपर दृढ़ता से डटे रहना चाहिए. इन दोनों बच्चों का हमेशा यही मशवरा होता है.

मैंने गिलानी साहब से सियासत को लेकर सवाल पूछा कि जब आप इतने दिन पॉलिटिक्स में रहे हैं, तो आपके कई डिसाइपल्स (शिष्य) रहे होंगे, जिन्होंने आपके साथ काम किया होगा, साथी होंगे, जिन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया होगा. उनमें से किसके ऊपर आपको नाज़ है और किसके ऊपर गुस्सा है, किसने सही काम नहीं किया? गिलानी साहब ने जवाब दिया, जितने भी साथ रहे, उन्होंने काम किया, अच्छा काम किया. अब मुझे लगा कि मैं गिलानी साहब से पूछूं और मैंने पूछा भी कि ये तो पॉलिटिकल स्टेटमेंट हो गया.

ऐसा होता है न कि आदमी बहुत अच्छा है, इसने बहुत अच्छा काम किया, काश ये वाला अच्छा करता, तो उसमें एक मोहब्बत होती और बहुत सारे लोग हैं, जिन्होंने किया, अगर ये कर लेता, तो ये चीज़ नहीं बिगड़ती. ऐसे लोग ज्यादा नहीं होते, पांच-छह-सात साथी, जिनको आपने सिखाया होगा, जिनको अपना हुनर दिया होगा, लड़ने का जज्बा दिया होगा, सपने देखने की ताक़त दी होगी. उस लिहाज़ से कुछ लोगों के बारे में बताइए, थोड़ा एनलाइज कीजिए. गिलानी साहब ने बहुत छोटा जवाब दिया, नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल इसकी ज़रूरत नहीं है.

मैंनें ज़िद की कि आप इसको एव्वाइड क्यों कर रहे हैं? इसपर गिलानी साहब ने कहा कि एव्वाइड इसलिए, क्योंकि हमारा जो दीन है, दीन कहते हैं, निज़ाम को, सिस्टम को, वो हमको इजाज़त नहीं देता कि किसी की कमज़ोरियों को उभारा जाए. मैंने मुस्कुरा कर पूछा, पर कमज़ोरियों पर गुस्सा तो आता ही होगा आपको? गिलानी साहब ने मेरी तरफ़ देखा और शायद थोड़ा समझाने के अंदाज़ में कहा कि नहीं गुस्सा क्यों आता है?

हमें बताया गया है (कुरान की एक आयत पढ़कर सुनाते हैं और फिर उसका तर्जुमा करते हैं), अल्लाह-ताआला कुरान में फ़रमाता है कि तुम्हे एक दूसरे के साथ मोहब्बत रखनी चाहिए और दूसरों की जो ग़लतियां, कमियां और कोताहियां देखो, तो उनको दरगुज़र (माफ़) करना चाहिए. उनके साथ कोई बदले की भावना नहीं रखनी चाहिए.

अल्लाह-ताआला ने फ़रमाया है कि देखो मैंने तुम्हारे पास एक पैगंबर भेजा है और यह बहुत नरम दिल है. अगर यह सख्त दिल होता, तो आप इसके इर्द-गिर्द शहद की मक्खियों की तरह न रहते, लेकिन ये नरम दिल है, इसलिए आप इनके इर्द-गिर्द रहते हैं और फिर इनको मैंने भी कहा है कि आप अपने साथियों को माफ़ किया करें. माफ़ी ही नहीं, बल्कि अल्लाह-ताआला से आप इनके लिए मग़फ़िरत की दुआ मांग लिया करें और फिर जब मशवरा करने के बाद आप किसी बात को तय कर लें कि ये बात सही है और इसपर अमल करना चाहिए, तो फिर उसपर अमल करें और अल्लाह पर भरोसा रखें. ज़ाहिरी सहारों पर भरोसा न रखें.

अल्लाह पर भरोसा करो, तो वह तुम्हारी मदद करेगा. हमारी यह कोशिश रहती है कि ऐसे हालात के लिए हमें जो तालिम दी गई है, उसपर हम अमल करें. मुझे लगा, मेरे सवालों को गिलानी साहब टाल रहे हैं, तो मैंने उनसे पूछा, अपनी ताक़त और कमज़ोरियों के बारे में बताइए.

गिलानी साहब ने इसका भी बड़ा छोटा जवाब दिया और कहने लगे कि इंसान में कमज़ोरियां होती हैं, ये कोई नई चीज़ नहीं है. कुरान में बताया गया है कि हमने इंसान को बहुत कमज़ोर पैदा किया है, इंसान कमज़ोर होता है. मैंने अपनी समझ से गिलानी साहब को थोड़ा कुरेदने की कोशिश की कि आपके अंदर अपनी एक ताक़त है और मुझे लगता है कि आपमें जो लड़ने का माद्दा है, वो शायद आपकी ताक़त है. अंदर से आपको कहीं से ताक़त मिलती है, क्योंकि आदमी सोचता ज़रूर है कि चलो बहुत लड़ लिए, थोड़ा आराम करें, थोड़ा दुनिया में घूमें, बच्चों के साथ रहें, पर वो आप नहीं करते हैं.

आप लगातार सोचते रहते हैं और लड़ते हैं. क्या आपको गुस्सा ज्यादा आता है? कमज़ोरी में एक गुस्सा भी है. फिर गिलानी साहब ने मुझे घूमा दिया. बहुत संक्षेप में बोले, मुझे बहुत कम गुस्सा आता है. हमेशा यह कोशिश रहती है कि दरगुज़र (माफ़) किया जाए. मैंने उन्हें और कुरेदा, अच्छा बताइए गुस्सा आता है, तो आप क्या करते हैं? मतलब अल्लाह को याद करते हैं या पानी पीते हैं या कुछ और करने लगते हैं? गिलानी साहब ने जवाब दिया, अल्लाह-ताआला को ही याद करते हैं कि हम पर रहम कर.

मैंने फिर बात बदली. कौन सा मौसम अच्छा लगता है? गिलानी साहब बोले, यहां कश्मीर में हमेशा मौसम अच्छा रहता है. मेरा अगला सवाल था, आपका पसंदीदा मौसम कौन सा है? जाड़ा पसंद है, गर्मी पसंद है या बरसात? गिलानी साहब का फिर वही छोटा सा जवाब, सर्दियों में थोड़ी तकलीफ़ होती है, चेस्ट ख़राब हो जाता है. मैंने इस पर पूछा, ये तो अभी होता है, पहले तो नहीं होता होगा? उन्होंने जवाब दिया नहीं, पहले ऐसा नहीं होता था, लेकिन कुछ समय से (1997 से) मुझे पेसमेकर लगा हुआ है. मैंने गिलानी साहब से पूछा कि चांदनी रात कितनी पसंद है, चांद, चांदनी रात, रौशनी? गिलानी साहब का जवाब था, अल्लाह-ताआला ने जो हुस्न दिया है, इंसानों को या इस सरज़मीं को, वो तो हमेशा ही पसंद आता है. वो नेमत (उपहार) है, अल्लाह-ताआला की तरफ़ से और उसका फ़ायदा भी उठाना चाहिए. अब शायद मैंने गिलानी साहब के मन की बात पूछी.

क्या आपको शायरी बहुत पसंद है? आपने कई शेर अभी कहे इस बातचीत के दौरान अपनी बात कहने के लिए और दूसरे इक़बाल क्यों आपको इतने पसंद हैं? क्योंकि दोनों बार आपने इक़बाल साहब के शेर इस्तेमाल किए. गिलानी साहब ने कहा, यहां मैंने लिखा भी है (किताबों की तरफ़ इशारा करते हुए). दो किताबें लिखी हैं और तीसरी लिख रहा हूं. इक़बाल इसलिए पसंद हैं, क्योंकि इक़बाल ने इस्लाम की रूह को समझा है. मैं बग़ैर किसी लाग-लपेट, बिना किसी बनावट के आपसे कहूंगा कि जिस तरह इक़बाल ने इस्लाम की रूह को समझा, बड़े-बड़े आलिमों (ज्ञानीयों) ने उस सच्चे इस्लाम की रूह को नहीं समझा है.

इसलिए हमें इक़बाल पसंद हैं. जिस्म को समझना बड़ा आसान है, लेकिन किसी चीज़ की रूह को समझना और फिर उसे अपने कलाम (कविता) में दर्शाना, उसको पेश करना, ये बहुत बड़ा कारनामा है, बहुत बड़ा हुनर है. तो ज़ाहिर है मुझे पूछना था और मैंने पूछा भी कि ऐसे और कितने शायर हैं, राइटर हैं, जिन्होंने आपके ऊपर अपनी छाप डाली हो, असर डाला हो. अब गिलानी साहब ने मुस्कुराते हुए, समझाते हुए कहा, एक तो इक़बाल हैं, दूसरे सैयद मौलाना मसूदी (र). उन्होंने भी कुरान और दीन की रूह को समझा है और समझाया है, बड़े आसान तरी़के से.

उन्होंने समझाया है कि इस्लाम क्यों है, इस्लाम की ख़ूबियां क्या हैं, इस्लाम के मुक़ाबले में जितने भी इज्म हैं, निज़ाम हैं, उनमें क्या-क्या कमज़ोरियां हैं. कम्यूनिज्म में, सोशलिज्म में, कैपिटलिज्म में, सेक्युलरिज्म में, ये जो दूसरे इज्म हैं, उनमें क्या-क्या कमज़ोरियां हैं और उनके मुक़ाबले में इस्लाम में क्या-क्या ख़ूबियां हैं. इन्होंने बड़ी तफ्सील के साथ ये समझाया है, इसलिए उनके साथ भी बहुत मोहब्बत है.

इक़बाल के साथ भी बहुत मोहब्बत है. मेरे एक मुरब्बीस (संरक्षक) रहे हैं मौलाना मसूदी, वो अब हमारे बीच नहीं हैं, अल्लाह उनकी मग़फ़िरत करे. हालांकि उनके साथ सियासी मतभेद थे, लेकिन चार साल उन्होंने मेरी तरबीयत की है (यानि मुझे शिक्षा दी है). चार साल मैं उनके साथ रहा हूं. उनकी ख़ूबियां, उनका कैरेक्टर और उनकी सादगी ने मुझे बहुत प्रभावित किया. अब मैंने सवाल पूछा, हालांकि वो थोड़े अलग थे आपसे.

गिलानी साहब ने जवाब दिया. हां, वो शेख अब्दुल्ला के प्रभाव में थे. बस यही एक उनकी कमज़ोरी थी, बाक़ी उनकी ख़ूबियां बहुत ज्यादा हैं. चार साल के दौरान, चार साल की अवधि तो बड़ी अवधि है न? मैं आपसे कहूंगा कि उस चार साल में मैंने कभी नहीं देखा कि उन्होंने किसी की ग़ीबत (पीठ पीछे शिकायत) की हो. हालांकि उनके बहुत दुश्मन थे. उनको मालूम भी था कि लोग उन्हें ‘सूतगुजरु’ भी कहते हैं. लेकिन कभी भी उन्होंने किसी के बारे में कोई ग़ीबत नहीं की कि फलां ऐसा है या फलां ऐसा है. चार साल में मैंने कभी नहीं देखा और सादगी तो उनमें बहुत ज्यादा थी.

मैं गिलानी साहब को देख रहा था और मुझे लगा कि उनसे पूछूं कि श्रीनगर के अलावा उन्हें कौन सी जगह पसंद है और मैं ये अपेक्षा कर रहा था कि वो स्विट्जरलैंड का या जर्मनी का या लंदन का नाम लेंगे. इसलिए मैंने सवाल को थोड़ा और साफ़ किया कि दुनिया में कहीं भी, जहां आप घूमे हैं, श्रीनगर तो आपको सबसे अधिक पसंद है ही, ये जन्नत है. ज़ाहिर है ये जन्नत है, ये बात अलग है कि आज ये जन्नत नहीं रही. यहां की सरज़मीं के अलावा और कौन सी जगह है. मान लीजिए, अगर आपको च्वॉइस मिलती कि श्रीनगर के अलावा कहीं और रहना है, तो कहां रहते? गिलानी साहब इस पूरी बातचीत में पहली बार हंसे और हंसते हुए बोले कि केरल में. अब मुझे आश्‍चर्य हुआ. मैंने पूछा केरल में कैसे?

गिलानी साहब ने कहा कि मैं वहां दो बार गया हूं, बहुत अच्छे लोग हैं वहां के, मौसम भी अच्छा है, बहुत ज्यादा सादगी है केरल में. जब भी केरल के लोग यहां आते हैं, हमें बहुत ख़ुशी होती है. बड़े अच्छे लोग हैं, सादा लोग हैं, कम्युनल नहीं हैं. अब तो बीजेपी वाले वहां जा रहे हैं, वहां भी कम्युनलिज्म का बीज बोया जा रहा है. लेकिन वहां के लोग बड़े अच्छे हैं. मैंने अचानक पूछ लिया कि महबूबा मुफ्ती से आपकी मुलाक़ात हुई इधर हाल-फिलहाल में? तो उन्होंने जवाब दिया हां, जब मेरी बेटी गुजरी थी, तो उस वक्त ताज़ियत के लिए, मातमपुरसी के लिए आई थीं.

अब मैंने पूछा कि इसके अलावा महबूबा मुफ्ती को समझने का मा़ैका नहीं मिला कि कैसी लड़की हैं, कैसा दिमाग़ है उनका? इसका जवाब थोड़ा लंबा दिया गिलानी साहब ने. उन्होंंने कहा कि अंदाज़ा था और मैंने लिखा भी है किताबों में कि ख़ातून जो होती हैं, उनका दिल नर्म होता है, किसी का ग़म और दु:ख देखती हैं, तो उनका दिल बहुत जल्दी पसीज जाता है. लेकिन महबूबा के बारे में ये चीज़ ग़लत साबित हुई है. यहां की ज़मीन पर जितना ख़ून बहा है और बिना किसी वजह के बुरहान शहीद हुआ, उसके जनाज़े में दो लाख लोगों ने शिरकत की और 40 बार उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गई, इस्लामाबाद में, साउथ में, सोपियां में, कारगील में, कहलगांव में.

पुलवामा से और अनंतनाग से भी लोग वहां जाने लगे. उनके पास कोई हथियार नहीं था, जैसे कि मैंने कहा, लेकिन फ़ौज ने, पुलिस ने लोगों को वहां जाने नहीं दिया. अगर वहां वे जाते, तो क्या फ़़र्क पड़ता? दो लाख लोग तो पहले से ही वहां मौजूद थे. कोई फ़़र्क नहीं पड़ता. लेकिन जाते वक्त उनपर गोलियां चलाई गईं. महबूबा को देखना चाहिए था कि वे लोग वहां जनाज़े में शिरकत के लिए जाना चाहते थे, तो उनपर गोलियां चलाने का क्या जवाज़ (औचित्य) था? उनका कत्ल करने का क्या जवाज़ था? पैलेट गनों से उनको बिनाई (आंख की रौशनी) से महरूम करने का क्या जवाज़ था? मैं चाहता था, मेरी ये तमन्ना थी, मेरी ख्वाहिश थी और मेरा ये जज्बा था कि उनको उसी वक्त इस्तीफ़ा देना चाहिए था.

ये बिना वजह की क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी (ख़ून-ख़राबा) देखना, इसके लिए जवाज़ नहीं बनता था उनके पास कि वो सत्ता की कुर्सी पर विराजमान रहें. नहीं, उन्हें इस्तीफ़ा देना ही चाहिए था. वो ख़ातून नहीं रहीं, बल्कि समझ लीजिए बेहिस (असंवेदनशील) हो गई हैं वो, कोई दिल नहीं है उनके पास. तो मैंने पूछा कि क्या वो बिना दिल की चीफ मिनिस्टर हैं? गिलानी साहब का साफ़ जवाब था कि हां, बिना दिल की, बिल्कुल बिना दिल की. अब मैंने उनसे राजनीतिक सवाल पूछा कि आज की सरकार के लिए आपकी क्या नसीहत है?

आज सियासत को, ज़िंदगी को, नफ़रत को, मुहब्बत को देखने के बाद अगर आपको कोई चार या पांच चीज़ें आज की सरकार से कहनी हो, तो क्या कहेंगे? सरकार को क्या करना चाहिए? गिलानी साहब ने बहुत साफ़गोई से कहा, यहां जो सरकार है, यहां की जो हिंद-नवाज़ (प्रो-इंडिया) पार्टियां हैं, उनके बारे में हमारा ये आइडिया है और हमारी ये ज़रूरत भी है और चाहत भी है कि इन्हें इस ख़ून-ख़राबे को देखकर अपने पदों से त्यागपत्र दे देना चाहिए और ख़ासतौर से इस हुकूमत को त्यागपत्र दे देना चाहिए. इसके बग़ैर इनका कोई इलाज नहीं है और इनके पास ऐसा कोई तर्क नहीं है, इस कुर्सी पर बैठने का.

यानी पुलिस इनके पास है, इनके कंट्रोल में है, सीआरपीएफ इनके कंट्रोल में है, हर मुख्यमंत्री यूनिफाइड कमांड का चेयरमैन होता है, तो इनमें ये ताक़त क्यों नहीं रही कि उनको रोकें कि तुम्हारे हाथों से क़त्ल हो रहा है, तुम्हारे हाथों से ये ख़ून बह रहा है, तुम्हारे हाथों से ये ज़ुल्म हो रहा है. तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? मैं तो आपके साथ नहीं रहूंगा. चाहे फ़ारूक़ अब्दुल्ला हों, उमर अब्दुल्ला हों, तारिगामी साहब हों या कोई और हो, इन सबको कर्रा साहब ने जैसा नमूना दिखाया, इन्हें उस पर अमल करना चाहिए.

इस मामले में तारिक़ कर्रा साहब ने जो किरदार दिखाया वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. उन्होंने कहा कि हमारे जवानों को क़त्ल किया जा रहा है, मैं इसको बर्दाश्त नहीं कर सकता हूं. उन्होंने पार्लियामेंट के मेम्बरशिप से इस्तीफ़ा दे दिया, पार्टी से भी इस्तीफ़ा दे दिया. उन्होंने एक अच्छा कैरेक्टर दिखाया सारे लीडर्स को. लेकिन नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस के ये लोग, जो सत्ता के पीछे दौड़ रहे हैं, इनको इंसानियत के साथ कोई मोहब्बत नहीं है. या अपने क़ौम पर जो ज़ुल्म हो रहा है, उसका इनको कोई एहसास नहीं है.

मैंने उनसे कहा कि ईद के दिन मैं और मेरे दो साथी कर्रा साहब के साथ थे. शाम को उन्होंने बुलाया था. हमलोग डेढ़ घंटे तक वहां थे, इशारा तो इन्होंने उसी समय ही दे दिया था कि मैं बहुत ज्यादा दूर पीडीपी के साथ नहीं चलूंगा. मैं कुछ सोच रहा हूं, तो उस समय लगा तो था कि शायद वो साथ नहीं रहेंगे, पर इस्तीफ़ा दे देंगे, इसका अंदाज़ा नहीं था. गिलानी साहब ने कहा कि हां उन्होंने बहुत अच्छा किया. लेकिन अब उनका टेस्ट ये है कि आइंदा उन्हें अब कभी चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहिए. ये उनके लिए टेस्ट है.

क्योंकि एक चीज़ तो अब उन्होंने समझी, जिसपर उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया. इतना जो ज़ुल्म हो रहा है, आइंदा भी जारी रहेगा, शायद उस वक्त तक, जब तक हम ग़ुलाम हैं. हिंदुस्तान के फौजी तसल्लुत (वर्चस्व) में हैं, ज़ुल्म चलता रहेगा. इसलिए आइंदा उन्हें कभी चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहिए. मैंने बातचीत को यहीं बंद करना ठीक समझा, क्योंकि मैं उनसे राजनीति पर बात कर चुका था.

मैंने घड़ी देखी. कुल मिलाकर डेढ़ घंटे बीत चुके थे. इसके बाद गिलानी साहब उठे और उन्होंने मेरे सर के ऊपर हाथ रखा. शायद इस डेढ़ घंटे के दौरान बातचीत से जो भावनाएं प्रकट हुईं, उसने उन्हें अपना राजनीतिक पक्ष किनारे रखने के लिए प्रेरित किया और जब मैं बातचीत करके उठ रहा था, तो उन्होंने फिर चाय पीने का हुक्म दिया. वहां बैठे हुए उनके साथी और ख़ुद उनके बेटे नसीम का भी ये कहना था कि इतने सालों में किसी ने भी गिलानी साहब से राजनीति से अलग हटकर इस तरह के सवाल नहीं पूछे या शायद पूछने की हिम्मत नहीं की.

आपने पूछा और जिस तरह से गिलानी साहब ने जवाब दिया उसके ऊपर भी हमें बड़ी हैरानी है. लेकिन मैं गिलानी साहब के अंदर के उस इंसान को तलाश पाया, जो अपनी ज़िंदगी में अपने बच्चों के बचपन को न देख पाने, बच्चों को बड़ा होते हुए न देख पाने, बच्चों की शरारतों को न देख पाने की कसक लिए, लेकिन उस कसक को अपने दिल में ख़ामोशी के साथ बंद किए अपने मक़सद के लिए लड़ने की तैयारी करता रहा.


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