सोनिया–मनमोहन, आमने-सामने

soniaसोनिया गांधी और मनमोहन सिंह इस समय आमने-सामने खड़े हैं. नीतियों के मसले में, कार्यप्रणाली के मसले में और विज़न के मसले में भी. मनमोहन सिंह, चिदंबरम एवं प्रणव मुखर्जी, यह एक टीम है. इस टीम में सलमान ख़ुर्शीद एवं कपिल सिब्बल भी शामिल हैं. मज़े की बात यह है कि जिन्हें राहुल गांधी या सोनिया गांधी पसंद नहीं करते हैं, ऐसे सारे लोगों को मनमोहन सिंह ने महत्वपूर्ण विभाग सौंप रखे हैं. इसके बावजूद मनमोहन सिंह कभी-कभी एक होशियारी दिखा देते हैं यानी जिस तरह प्रेशर कुकर में सेफ्टी वॉल्व होता है, वह काम मनमोहन सिंह कभी-कभी कर देते हैं. लोकसभा में अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर बहस चल रही थी. राहुल गांधी जब भाषण देने के लिए खड़े हुए, तब मनमोहन सिंह लोकसभा में नहीं थे. वह तेज़ी से दौड़ते हुए लोकसभा आए, उन्होंने राहुल गांधी का भाषण सुना और अपने जवाब में उनके भाषण की धज्जियां उड़ा दीं और यह बता दिया कि उनका सुझाव अव्यवहारिक है, लेकिन बाद में सलमान ख़ुर्शीद के ज़रिए उन्होंने प्रेस में यह बयान दिलाया कि लोकपाल संस्था भी एक संवैधानिक संस्था होगी और उसके अधिकार चुनाव आयोग से ज़्यादा होंगे. क्या होंगे, कुछ पता नहीं, लेकिन होंगे.

इसका मतलब यह कि मनमोहन सिंह ने एक क़दम अपना पीछे हटाया, ताकि आमना-सामना तत्काल न हो. इस स्थिति का केंद्र सरकार के कामकाज के ऊपर ज़बरदस्त असर पड़ा है. कोई भी सेक्रेटरी फैसला नहीं ले रहा है. जिन्हें रिटायर होने में चार-पांच साल बाक़ी हैं, वे फैसले नहीं ले रहे हैं और जो तत्काल रिटायर होने वाले हैं, वे तो फाइलों के ऊपर बैठ गए हैं और फैसले ही नहीं ले रहे हैं. नतीजे के तौर पर पूरे देश में आईएएस के लेवल पर,  नौकरशाही के लेवल पर एक डेड लॉक आ गया है. इस डेड लॉक को तोड़ने में किसी का इंटरेस्ट नहीं है. ख़ुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी नहीं है. जो हो रहा है, भगवान भरोसे हो रहा है. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं, उनकी सरकार के मंत्री जेल में हैं. टू जी स्पेक्ट्रम की आग ख़ुद मनमोहन सिंह को झुलसाने के लिए उनकी तरफ बढ़ रही है. इतना ही नहीं, जिस चीज़ से गांधी परिवार सहमा हुआ है, वह वजह है, सोनिया गांधी के दामाद और प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वडेरा को लेकर प्रेस में लीक होने वाली ख़बरें.

देश के दो महत्वपूर्ण केंद्रों सात रेसकोर्स रोड और दस जनपथ के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है. एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और असहमति की भावना सहज ही देखने को मिल जाती है. मनमोहन सिंह न केवल सोनिया गांधी के सुझावों की अनदेखी कर रहे हैं, बल्कि वह प्रियंका गांधी को सरकार में लाने की बात कहकर राहुल का क़द हल्का करने की भी कोशिश कर रहे हैं.

ख़बरें इस तरीक़े से निकाली जा रही हैं, ताकि गांधी परिवार डर जाए और रॉबर्ट वडेरा को एक खोल में छिपा ले कि कहीं उन्हें भी टू जी स्पेक्ट्रम या कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले में किसी जांच का सामना न करना पड़े. ख़बरें यह बता रही हैं कि पिछले दो महीने से रॉबर्ट वडेरा इस डर से कि सरकार की एजेंसियां उनके ख़िला़फ कार्रवाई कर सकती हैं, देश से बाहर हैं. वह दुबई में एक मकान लेकर रह रहे हैं. अगर ख़बरें सही हैं तो रॉबर्ट वडेरा, जो देश में लगभग हर जगह पर गांधी परिवार के साथ लोगों को हाथ हिलाते हुए नज़र आते थे, ओबराय होटल के कॉफी शाप में अक्सर नज़र आते थे, अब इन सब जगहों से वह ग़ायब हैं. क्या प्रधानमंत्री के सलाहकार रॉबर्ट वडेरा को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं? कांग्रेस के लोग यही कहते हैं. कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण लोगों से, जिनसे मेरी बात होती है, उनका कहना है कि रॉबर्ट वडेरा की वजह से गांधी परिवार थोड़ा सकते में है. पर अगर मान लीजिए, प्रियंका गांधी उप प्रधानमंत्री हो जाती हैं, अहमद पटेल की जगह दिग्विजय सिंह आ जाते हैं तो देश कैसे चलेगा. जिस तरह जनार्दन द्विवेदी ने अटकलबाज़ियों को लेकर प्रेस कांफ्रेंस की, हम उसी अटकलबाज़ीनुमा काल्पनिक चित्र को आपके सामने रख रहे हैं और हमारी जानकारी कहती है कि इस देश की राजनीति में अगले कुछ महीनों में एक ज़बरदस्त परिवर्तन आने वाला है. वह परिवर्तन अच्छा होगा या बुरा, आज नहीं कहा जा सकता, लेकिन कांग्रेस पार्टी खुद को एक बार बाउंस बैक करने के लिए तैयार कर रही है.

एक ऐसा काल्पनिक चित्र हम आपके सामने रख रहे हैं, जो हो सकता है कि कुछ दिनों में सही साबित हो जाए. यह इसलिए रख रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी आधिकारिक और सोची-समझी प्रेस कांफ्रेंस में कहते हैं कि राहुल गांधी बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हैं, शायद वह कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं, पर साथ ही कहते हैं कि जब तक ऐसा हो न जाए, तब तक इसे अटकलबाज़ी ही समझिए. हमें यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि हम जो आपको बताने जा रहे हैं, वह काल्पनिक चित्र है. ऐसा काल्पनिक चित्र, जो कल सही साबित हो सकता है, लेकिन जनार्दन द्विवेदी के काल्पनिक चित्र और हमारे काल्पनिक चित्र में अंतर है. दोनों में कौन सही होगा, यह तो व़क्त बताएगा या आने वाले कुछ महीने बताएंगे, पर दोनों चित्रों से यह तो लगता है कि कांग्रेस में बहुत कुछ ठीक नहीं चल रहा है. गड़बड़ ऐसी चल रही है, जो पूरी सरकार की कार्यप्रणाली पर असर डाल रही है.

पहले जनार्दन द्विवेदी का काल्पनिक चित्र. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लेकिन सोनिया गांधी की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार राहुल गांधी और वह कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष. कार्यवाहक अध्यक्ष के नाते राहुल गांधी के सामने सबसे पहले चुनाव उत्तर प्रदेश का आएगा. उसके बाद अगले साल दस विधानसभाओं के चुनाव और देखने हैं. उनमें कांग्रेस जीतती है, नहीं जीतती है, इसकी रणनीति, अर्थनीति, व्यूह रचना, कौन लोग काम करें और कौन नहीं, इन सबका फैसला राहुल गांधी को लेना होगा. 2012 में होने वाले दस विधानसभाओं के चुनाव के बाद इलेक्शन ईयर शुरू हो जाएगा, क्योंकि 2014 में लोकसभा का चुनाव होना है. पर बहुत सारे लोगों का यह भी मानना है कि अगर विधानसभा के चुनाव पहले आ गए, जिस तरह अंतर्विरोध-आंतरिक दबाव बढ़ रहे हैं और यह सरकार कहीं न चल पाई तो मध्यावधि चुनाव का सामना भी राहुल गांधी के ही नेतृत्व में कांगे्रस करेगी. शायद यह रणनीति बनाई जा रही है.

काल्पनिक चित्र नंबर 2. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उप प्रधानमंत्री प्रियंका गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव के तौर पर अहमद पटेल की जगह दिग्विजय सिंह को लाया जाना.

राहुल गांधी जब भाषण देने के लिए खड़े हुए, तब मनमोहन सिंह लोकसभा में नहीं थे. वह तेज़ी से दौड़ते हुए लोकसभा आए, उन्होंने राहुल गांधी का भाषण सुना और अपने जवाब में उनके भाषण की धज्जियां उड़ा दीं और यह बता दिया कि उनका सुझाव अव्यवहारिक है.

काल्पनिक चित्र नंबर 3. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उप प्रधानमंत्री प्रियंका गांधी, कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कार्यवाहक अध्यक्ष राहुल गांधी. इस दृश्य में अहमद पटेल और दिग्विजय सिंह के बारे में हम अभी कुछ नहीं कह रहे, क्योंकि इसमें इन दोनों का रोल बदल सकता है. ये दृश्य और जनार्दन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेंस, जिसमें वह कहते हैं कि अटकलबाज़ी लगाते रहना चाहिए, हमें बताते हैं कि कांग्रेस में सब ठीकठाक नहीं है.

मनमोहन सिंह की कार्यप्रणाली को लेकर पार्टी में चिंताएं बहुत तीव्र हो गई हैं. मनमोहन सिंह की नज़र देश की समस्याओं पर बहुत कम है और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर ज़्यादा है. शायद वह खुद को जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरा ऐसा प्रधानमंत्री साबित करना चाहते हैं, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से अपनी भूमिका निभाई. मनमोहन सिंह खुद को इतिहास में एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज कराना चाहते हैं, जो दुनिया के बड़े-छोटे, सभी देशों में गया और वहां जाकर उसने हिंदुस्तान के तस्वीर को निखारा. अगर हम मनमोहन सिंह की विदेश यात्राओं की सूची देखें तो 2010-11 में उन्होंने अनगिनत देशों की यात्राएं कीं. उन यात्राओं का महत्व कम से कम देश के लोगों को समझ में नहीं आ रहा है. क्यों इतनी विदेश यात्राएं हो रही हैं, क्या उन देशों के साथ हमारे आर्थिक संबंध हैं, क्या उनसे देश को कोई फायदा होने वाला है, क्या हिंदुस्तान के लोगों की ग़रीबी व यहां के आर्थिक हालात पर कोई असर होने वाला है, क्या हिंदुस्तान का व्यापार बढ़ने वाला है?

जिन बड़े देशों में मनमोहन सिंह गए, वहां से हिंदुस्तान के लिए कुछ नहीं ला पाए. जिन छोटे देशों में गए, वहां भी गंवाकर ही आए, लाए कुछ नहीं. फिर इतनी यात्राएं क्यों? ये संयोग नहीं हो सकता कि हिंदुस्तान में इन दिनों ऐसी समस्याओं की भरमार है, जिनका अगर तत्काल हल नहीं निकला तो यहां असंतोष, असंतुलन और विद्रोह जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. मनमोहन सिंह जिस सेवेन सिस्टर्स का प्रतिनिधित्व करते हैं (असम और उसके साथ के छह अन्य राज्यों को सेवेन सिस्टर्स कहा जाता है), वहां मणिपुर में तीन महीने से ज़्यादा समय से बंद चल रहा है, लोगों ने रास्ते बंद कर रखे हैं, गैस सिलेंडर 2000 रुपये से ज़्यादा में और पेट्रोल 225-250 रुपये लीटर बिक रहा है. वहां खाने का सामान नहीं है, जीवनरक्षक दवाएं नहीं हैं. इन चीज़ों का सामना करने की जगह हमारे प्रधानमंत्री विदेश यात्राएं कर रहे हैं. कोई भी देश हो छोटा या बड़ा, नक्शे में बहुत मुश्किल से पाया जाने वाला, लेकिन प्रधानमंत्री वहां गए और अभी भी वहां जाने की योजना बना रहे हैं. उन्हें मणिपुर की चिंता नहीं है, पेट्रोल की लगातार बढ़ती क़ीमतों की चिंता नहीं है, क्योंकि उन्होंने यह कह दिया है कि अब पूरा का पूरा तेल बाज़ार, तेल की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के हवाले है. आंकड़े कहते हैं कि हमारे यहां क़ी कीमतों और अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में कोई संतुलन नहीं है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री इसी चीज़ को बार-बार कह रहे हैं और उनके भोंपू मंत्री भी बार-बार दोहरा रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल बहुत महंगा है और इसीलिए हमें अपने यहां क़ीमतें बढ़ानी पड़ रही हैं. देश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वजह से देश आज ऐसे मोड़ पर खड़ा हो गया है, जहां केरल के हाईकोर्ट को यह आह्वान करना पड़ रहा है कि लोगों को महंगाई और पेट्रोल की बढ़ती क़ीमत के खिला़फ सड़कों पर उतरना चाहिए. आज एक हाईकोर्ट महंगाई को लेकर विरोध करने के लिए कह रहा है, कल कोई दूसरी अदालत अव्यवस्था को लेकर विद्रोह करने के लिए कहे तो क्या होगा, जनता अगर अदालतों की अपील पर सड़कों पर उतर आए तो क्या होगा?

प्रधानमंत्री इस सवाल के ऊपर न सार्वजनिक बहस को सुनना चाहते हैं और न अपनी आर्थिक क्षमताओं, आर्थिक ज्ञान का इस्तेमाल करना चाहते हैं. शायद भारत सरकार ने यह मान लिया है कि सौ बार कोई झूठ कहो तो लोग उसे सच समझने लगते हैं, पर प्रधानमंत्री यह भूल जाते हैं कि एक प्रधानमंत्री कोई पांच या दस साल के लिए नहीं होता है, बल्कि उसका नाम इतिहास में अच्छे और बुरे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज होता है, वह देश की किस्मत के ऊपर असर डालता है. पेट्रोल की बढ़ी हुई क़ीमतें बताती हैं और सरकार का उन पर नियंत्रण न रखना या दख़ल न देना यह साबित करता है कि हिंदुस्तान की जनता को विदेशी कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है. अब रेल बजट आने वाला है,

किराए-भाड़े में वृद्धि होगी, क्योंकि अब तो पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा दिए गए हैं. हर चीज के दाम आसमान छू रहे हैं और इसके नतीजे में अगर नक्सलवाद बढ़ेगा तो हमारे गृहमंत्री उन्हें तोपों, बंदूक़ों, हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर से मार डालने का ़फरमान जारी कर देंगे. जो देश संविधान के तहत एक समतामूलक समाज की तऱफ बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध था, ग़रीब तबकों को ज़िंदा रहने की गारंटी देने के लिए संवैधानिक रूप से प्रतिबद्ध था, वेलफेयर स्टेट था, वहां से पूरा यू टर्न लेकर मौजूदा सरकार ने इस देश को, यहां के ग़रीबों को बाज़ार के रहमोकरम पर छोड़ दिया. बाज़ार भी कौन सा? वायदा बाज़ार, नकली बाज़ार, जिसमें स़िर्फ लूट होती है.

मनमोहन सिंह की नज़र देश की समस्याओं पर बहुत कम है और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर ज़्यादा है. शायद वह खुद को जवाहर लाल नेहरू के बाद दूसरा ऐसा प्रधानमंत्री साबित करना चाहते हैं, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता से अपनी भूमिका निभाई.

सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के भीतर सरकार की इस चाल और चलन को लेकर चिंता है. कोई भी कार्यकर्ता, कोई भी सांसद सरकार के इस रु़ख से सहमत नहीं है, चिंतित है, क्योंकि कांग्रेस के लोग यह देख रहे हैं कि विभिन्न मंत्रालयों में आपस में कोई संबंध ही नहीं है. गृह मंत्रालय हो, वित्त मंत्रालय हो, ग्रामीण विकास मंत्रालय हो, कृषि मंत्रालय हो या पर्यावरण, ये महत्वपूर्ण मंत्रालय हैं, लेकिन इनमें आपस में कोई तालमेल नहीं है. ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह की सरकार में एक नहीं, कई प्रधानमंत्री काम कर रहे हैं. मनमोहन सिंह के पास इन मंत्रालयों की समीक्षा के लिए व़क्त नहीं है. अगर व़क्त होता तो हर मंत्रालय दूसरे के खिला़फ बयानबाज़ी करने से हिचकिचाता, अगर व़क्त होता तो टूजी घोटाला नहीं होता, देश हज़ारों-लाखों करोड़ के कोयला घोटाले से बच सकता था, मनमोहन सरकार में रहे कुछ मंत्री जेल में न होते और मनमोहन सिंह के सबसे विश्वासपात्र मंत्री चिदंबरम, जो पहले वित्त मंत्री थे अब गृह मंत्री हैं, के ख़िला़फ कोर्ट यह आदेश नहीं देता कि सारे काग़ज़ात या सारा पत्र-व्यवहार, जो ए राजा और पी चिदंबरम के बीच हुआ, उसे सुब्रह्मण्यम स्वामी को दिखाया जाए. अगर प्रधानमंत्री के पास व़क्त होता तो देश में नक्सलवाद इतना नहीं बढ़ता. लेकिन प्रधानमंत्री के पास अपने मंत्रालयों का कामकाज देखने का व़क्त नहीं है, मंत्रियों को नियंत्रित करने का व़क्त नहीं है, देश की समस्याएं सुलझाने वाले उपायों पर विचार करने का व़क्त नहीं है. ऐसे प्रधानमंत्री को लेकर अगर कांगे्रस में चिंता न हो तो क्या हो?

कांग्रेस के लोगों को लगता है कि अगर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे तो आने वाले चुनाव में पार्टी को कोई सीट नहीं मिलेगी. यह बात मुझसे कांगे्रस के कई महामंत्री, कई सचिव एवं अधिकांश सांसद व्यक्तिगत रूप से कह चुके हैं. वे यह भी बताते हैं कि सोनिया गांधी की सबसे बड़ी चिंता इस समय यही है कि कहीं इतिहास उन्हें कांग्रेस के ऐसे अध्यक्ष का दर्जा न दे दे, जिसकी अध्यक्षता में सचमुच सवा सौ साल से ज़्यादा पुरानी कांग्रेस अपने आख़िरी परिणाम की तऱफ बढ़ रही है. सोनिया गांधी इससे चिंतित हैं, क्योंकि वह चाहती हैं कि देश के ग़रीबों को अकेला न छोड़ा जाए, कोई भी फैसला ऐसा न लिया जाए, जिससे देश में असंतोष और बढ़े, लेकिन क्या फैसला नहीं लिया जाना चाहिए, यह तो सोनिया गांधी के सामने शायद सा़फ है, क्या लिया जाए, यह सा़फ नहीं है. यह मैं इसलिए बताना चाहता हूं, क्योंकि सोनिया गांधी की टीम में अरुणा राय, हर्ष मंदर एवं नीरजा चौधरी जैसे लोग हैं, जिनकी ग़रीबों के प्रति निष्ठा में कोई संदेह नहीं है. ये लोग जो सलाह देते हैं, सोनिया गांधी उसके ऊपर सुझाव बनाकर प्रधानमंत्री को प्रेषित करती हैं, लेकिन प्रधानमंत्री उन सुझावों को बेकार मानते हैं. एक भी ऐसा सुझाव याद नहीं आता, जिसे सोनिया गांधी और उनकी टीम ने भेजा हो और सरकार ने उसे माना हो, यह बताता है कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के सोचने के तरीके में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. सोनिया गांधी को कोई भी समाज सुधारक या क्रांतिकारी नहीं मानता, लेकिन वह इंदिरा गांधी द्वारा शुरू की गई उस परंपरा पर चलती हैं, जिसमें अमीरों को क्या मिलता है, इसकी चिंता नहीं होती, लेकिन ग़रीबों को कुछ मिले, इसकी चिंता होती है. जो कुछ मिले ग़रीबों को, यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. यह चिंता सोनिया गांधी को है. दूसरी तरफ मनमोहन सिंह हैं, जिनका मानना है और उनके पिछले सात साल के कार्यकाल ने यह बताया है कि वह इस देश में चल रहे जवाहर लाल जी के व़क्त के उठाए हुए क़दमों से सहमत नहीं हैं. वह वेलफेयर स्टेट, ग़रीबों के लिए कुछ करने और औद्योगीकरण आदि के पक्ष में नहीं हैं. उन्होंने पूरे देश को एक अंधी दौड़ में झोंक दिया है.

वित्त मंत्री के नाते उन्होंने जो नीतियां बनाईं, लोगों ने उन पर भरोसा किया. उन्होंने कहा कि बीस साल के भीतर देश बिजली के मामले में आत्मनिर्भर हो जाएगा, नौकरियां बढ़ जाएंगी, ग़रीबी कम हो जाएगी, रहन-सहन ऊंचा हो जाएगा, लेकिन बीस साल बाद आज हम देखते हैं कि इनमें से कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि हमारे बहुत सारे ऐसे समझौते हुए, जिनसे भविष्य को लेकर डर लगता है. मनमोहन सिंह का ईमानदारी से यह मानना है कि हमें अपने देश को पश्चिमी देशों की कार्यशाला के रूप में बदल देना चाहिए, फैक्ट्री के रूप में बदल देना चाहिए. यह वही नीति है, जो अंग्रेजों ने आज़ादी के समय हमारे यहां अपनाई थी. दूसरी तरफ मनमोहन सिंह यह सपना दिखाते हैं कि देश के मध्य वर्ग के लड़कों को अमेरिका में बड़ी-बड़ी नौकरियां मिलेंगी, इसलिए मध्य वर्ग ने पिछले बीस सालों में मनमोहन सिंह की नीतियों का ज़बरदस्त समर्थन किया है. इन नीतियों के परिणामस्वरूप देश के 271 ज़िले आज नक्सलवाद की चपेट में हैं. दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में अराजकता बढ़ रही है. कोई भी वह आदमी जो बड़ी गाड़ी में चलता है, खुद को कितने दिनों तक सुरक्षित रख पाता है, अब यह डर लोगों के मन में घर करने लगा है और यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारी आर्थिक नीतियां देश के लोगों के मन में यह विश्वास पैदा करने में असफल रही हैं कि भविष्य में उनका भी कोई अच्छा स्थान हो सकता है. एक तरफ प्रधानमंत्री देश की समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्होंने संवैधानिक संस्थानों से भी लड़ाई शुरू कर दी है. हाल ही में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी सीएजी विनोद राय पर मनमोहन सिंह ने यह आरोप लगा दिया कि उन्हें सरकार के नीतिगत मामलों पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है. और तो और, मनमोहन सिंह को विनोद राय द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करने पर भी आपत्ति है. दोनों में तकरार ऐसी हुई कि विनोद राय ने एक चिट्ठी लिखकर प्रधानमंत्री को करारा जवाब दिया और कहा कि वह स़िर्फ संसद से मिले अपने अधिकारों के तहत ही काम कर रहे हैं और उन्होंने कभी नीतिगत मामलों पर बयानबाज़ी नहीं की. साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री के बयानों पर भी ऐतराज जता दिया. यह सचमुच अ़फसोस की बात है कि देश की दो सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाएं इस तरह आपस में लड़ती नज़र आती हैं.

लोगों की आशाएं ख़त्म हो रही हैं. जब सोनिया गांधी या उनके सलाहकारों की तऱफ से प्रधानमंत्री से संवाद बनाने की कोशिश हुई तो प्रधानमंत्री ने पहले तो उस पर बेमन से रुचि दिखाई और फिर विचार करते हैं, करेंगे, नहीं करेंगे जैसी शैलियां अपनाईं. संयोग से इस बीच सोनिया गांधी बीमार हो गईं और उन्हें तीन-चार महीने विदेश में रहना पड़ा, जहां उनका ऑपरेशन भी हुआ, ऐसा कांग्रेस पार्टी के सूत्रों का कहना है. सोनिया गांधी के ऑपरेशन ने देश के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर असर डाला. भारतीय जनता पार्टी नए सिरे से अपनी रणनीति बनाने लगी. कांग्रेस के भीतर भी जो कमज़ोर थे, मज़बूत हो गए. ख़ुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी शैली बदल ली. अब प्रधानमंत्री का कहना है कि कांग्रेस में ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो अव्यवहारिक सुझाव देते हैं, जिन्हें कभी पूरा किया ही नहीं जा सकता. इसीलिए अब जो सुझाव कांग्रेस अध्यक्ष या उनकी सलाहकार समिति की तऱफ से आते हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय उन्हें एक तऱफ रख देता है और उन पर विचार नहीं करता. इस समय पूरी सरकार मनमोहन सिंह की निगरानी में चल रही है. इस सरकार के सामने ग़रीब प्राथमिकता पर नहीं हैं, देश की समस्याएं प्राथमिकता पर नहीं हैं. मनमोहन सिंह की ज़्यादातर बैठकें मोंटेक सिंह अहलूवालिया के साथ होती हैं और मोंटेक सिंह अहलूवालिया पिछले आठ महीनों में बहुत ज़्यादा हिंदुस्तानी लोगों से मिले ही नहीं हैं. उनके कार्यालय का विजिटर रजिस्टर बताता है कि उनसे मिलने वाले लोग ज़्यादातर वे हैं, जिनका रिश्ता विदेश से संबंधित बाज़ार की नीतियों से है. जब कांग्रेस अध्यक्ष की तऱफ से प्रधानमंत्री पर दबाव डालने की कोशिश हुई तो उन्होंने एक प्रस्ताव उनके पास भिजवाया कि प्रियंका गांधी को सरकार में लाया जाए. इस प्रस्ताव का सीधा मतलब यह कि वह राहुल गांधी में कोई क्षमता नहीं देखते. उनका कहना है कि प्रियंका गांधी उनकी सरकार में आएंगी, भले ही वह उप प्रधानमंत्री के नाते आएं तो दस जनपथ, जहां सोनिया गांधी रहती हैं, पर भी सरकार के कामकाज की ज़िम्मेदारी आएगी. साथ ही जो चाहते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीतिक सचिव बदले, वह अहमद पटेल की जगह दिग्विजय सिंह को कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीतिक सचिव बनाना चाहते हैं.

हमारे जानने वालों का तो यहां तक कहना है कि अगर मनमोहन सिंह का वश चलता तो वह कैश फॉर वोट वाले केस में अमर सिंह के साथ अहमद पटेल को भी जेल भिजवा देते. अहमद पटेल के ऊपर से तलवार अभी हटी नहीं है. इस प्रस्ताव को कांग्रेस के भीतर, ख़ासकर सोनिया गांधी के यहां बहुत उत्साह से नहीं लिया गया. शायद इसीलिए जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष हो सकते हैं. जब तक वह हो नहीं जाते, तब तक इसे अटकल ही रहने दें. सोनिया गांधी के एक साथी हैं. उन्होंने एक तीसरी राय रखी और कहा कि प्रियंका गांधी उप प्रधानमंत्री ज़रूर बनें और राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष बनें. यानी देश को एक सिग्नल मिल जाएगा कि देश का उप प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष एक ही परिवार के दो सदस्य हैं, भावी नेता तैयार हो रहे हैं. इस स्थिति में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कांग्रेस जीत सकती है, यह बात भी सोनिया गांधी को सलाह देने वाले इन सज्जन ने समझाई है.


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