सोने का नहीं, जागते रहने का व़क्त है

jab-top-mukabil-ho1भारत की राजनीति में संभवत: सुप्रीम कोर्ट के दख़ल से कई आश्चर्यजनक चीज़ें हो रही हैं. पहले ए राजा का जेल जाना, बाद में सुरेश कलमाडी का और फिर कनिमोझी की जेलयात्रा संकेत देती है कि कई और लोग भी इस राह के संभावित राही हैं. पर यह क्यों सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद हो रहा है? क्यों सरकार इसे कराने में, अच्छा शासन चलाने में, न्याय देती दिखने में और भ्रष्टाचार को रोकने की इच्छाशक्ति दर्शाने में सफल नहीं हो पा रही है? केंद्र सरकार की देखादेखी कई राज्य सरकारें भी उसी रास्ते पर हैं. अगर केंद्र सरकार सुशासन के साथ न्यायप्रिय दिखने लगे तो इसका प्रभाव राज्य सरकारों पर भी पड़ेगा.

सोचना केंद्र सरकार को चाहिए. जिस तरह का शासन चल रहा है, उसका असर बहुत अच्छा नहीं पड़ रहा. केंद्र सरकार के वरिष्ठ अधिकारी देश की खस्ता हालत पर बहुत चिंतित हैं. जिस तरह मंत्री व्यवहार कर रहे हैं और जिस तरह कुछ नौकरशाह मंत्रियों को भ्रमित कर रहे हैं, वह चिंता का विषय है. ऐसा लग रहा है कि देश बहुत बड़ा है और इसे चलाने वाले मंत्री और अधिकारी बहुत छोटे हैं. इसका एक ही उदाहरण सीबीआई है. एक ऐसी संस्था, जिस पर केंद्र सरकार भी भरोसा करती है और जनता भी. जनता को लगता है कि अगर जांच सीबीआई के पास पहुंच गई तो फिर वह निष्पक्ष होगी ही, लेकिन पिछले कुछ सालों में यह संस्था सवालों के घेरे में दिखाई दे रही है. सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि सीबीआई निष्पक्ष जांच करे, उसे डरने की ज़रूरत नहीं, या कि वह समय ज़्यादा क्यों लगा रही है. कई जांच तो सुप्रीम कोर्ट सीधे अपनी निगरानी में करा रहा है. इसी में एक है टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला.

एक बार फिर सोचने का व़क्त आ गया है कि क्या सचमुच व्यवस्था यानी अफसर चुस्त-दुरुस्त और अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार नहीं हो सकते? क्या सामान्य चीजों के लिए, सामान्य आपूर्ति के लिए, सामान्य विकास के लिए भी जनता को लगातार घूस देनी पड़ेगी? ग़रीब को अपने हिस्से की चीनी, मिट्टी तेल और राशन के लिए कब तक आंसू बहाने पड़ेंगे? राजनेताओं और राजनैतिक दलों में अब इतनी ग़ैरत भी नहीं बची है कि वे इनके बारे में औपचारिक ढंग से सोचें भी.

यह टू जी स्पेक्ट्रम आज़ाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा घोटाला है. इसमें पहला है 26 लाख करोड़ रुपये का कोयला घोटाला, जिसे संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने ही ख़ामोशी से खंगाला है. चूंकि इसमें देश की बड़ी 154 कंपनियां हैं, इसलिए न मीडिया और न राजनेता इसे सामने लाने में दिलचस्पी ले रहे हैं. पर टू जी में तो एक बड़ा रहस्य पैदा हो गया है. जिस शख्स के फोन सालों से टेप हुए और जहां से इस घोटाले का पता चला, वही शख्स बाहर है. इन महानुभाव का नाम है नीरा राडिया, जिन्होंने दो बड़े नाम वाले पत्रकारों से बात की थी कि कैसे ए राजा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कराया जाए. नीरा राडिया बाहर हैं तो रतन टाटा भी बाहर हैं.

इस घटना ने, ख़ासकर टेपों के सामने आने के बाद पहली बार टाटा घराने के बारे में भ्रम तोड़ा कि यह घराना भी औरों की तरह ही है. यह भी सारे काम करता है, जिनमें सारे नीच हथकंडे शामिल हैं. क्या टाटा और नीरा राडिया को लेकर सीबीआई कोई नई खिचड़ी पका रही है या फिर नीरा राडिया वायदा माफ गवाह बन गई हैं.

लेकिन ये सवाल ऐसे नहीं हैं, जिनके जवाब के लिए दिमाग़ ख़र्च किया जाए. सवाल अगर है तो वह केंद्र की कार्यप्रणाली से जुड़ा है. अगर केंद्र सरकार अपने को नहीं सुधारेगी तो सुप्रीम कोर्ट को अपना ध्यान उन बातों में लगाना पड़ेगा, जहां नहीं लगाना चाहिए. सामान्य चीज़ें सही ढंग से नहीं चलतीं. इन्हें चलाना उस समय और ज़रूरी हो जाता है, जब हर जगह भरोसे टूट रहे हों. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ता है. जब सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप  करता है, तब राजा और कनिमोझी की गिरफ़्तारी होती है. जब सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप करता है, तब सीएनजी के इस्तेमाल का फैसला होता है. इससे पहले साठ हज़ार करोड़ की डीज़ल लॉबी वैज्ञानिकों, पत्रकारों को ख़रीद लेती है और सीएनजी के ख़िला़फ अभियान चलाती है. राजनेता तो बिकने को तैयार रहते हैं, ऐसा अक्सर दिखाई देता है. सीएनजी मामले में राजनेताओं ने जैसे बयान देने में होड़ लगा ली थी.

पर क्या सिस्टम को सुधारने की ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट पर है? बहुत सी बातों पर फैसला हो जाता है, लेकिन सिस्टम चलाने वाले उसे लागू ही नहीं करते. अब सीबीआई एक्सपायर हो चुके वारंट के साथ किम डेवी को पकड़ने चली जाए तो इसमें सुप्रीम कोर्ट का क्या दोष? लाखों लोग जेल में बेकसूर बंद हैं, इसमें सुप्रीम कोर्ट क्या करे? मालेगांव विस्फोट में निर्दोष जेल में बंद हैं, सीबीआई नए लोगों को पकड़ रही है, पर उन्हें नहीं छोड़ा जा रहा, जिन्हें शक के आधार पर पकड़ा गया था.

एक बार फिर सोचने का व़क्त आ गया है कि क्या सचमुच व्यवस्था यानी अफसर चुस्त-दुरुस्त और अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार नहीं हो सकते? क्या सामान्य चीजों के लिए, सामान्य आपूर्ति के लिए, सामान्य विकास के लिए भी जनता को लगातार घूस देनी पड़ेगी? ग़रीब को अपने हिस्से की चीनी, मिट्टी तेल और राशन के लिए कब तक आंसू बहाने पड़ेंगे? राजनेताओं और राजनैतिक दलों में अब इतनी ग़ैरत भी नहीं बची है कि वे इनके बारे में औपचारिक ढंग से सोचें भी. सोचना भी सुप्रीम कोर्ट को पड़ता है और कहना पड़ता है कि कोई भूख से न मरे. यह ज़िम्मेदारी तो सरकारों की है, लेकिन जब सड़ते अनाज को लेकर सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इसे ग़रीबों में बांट दो तो सरकार कहती है कि वह नहीं बांटेगी.

इस ख़तरे को राजनैतिक तंत्र नहीं समझ रहा है. देश का केवल ग़रीब ही नहीं, बल्कि मध्य वर्ग भी व्यवस्था से, सरकार से और राजनेताओं से निराश हो रहा है. यह निराशा एक ओर नक्सलवाद को समर्थन देती है और दूसरी ओर उस ताक़त की राह तकती है, जो लोकतंत्र में है, लेकिन लोकतांत्रिक नहीं है. कौन चेतेगा पता नहीं, पर हम तो चौकीदार हैं, अपना कर्तव्य निभाएंगे ही कि सोओ मत, जागते रहो, वरना लोकतंत्र को कोई चुरा ले जाएगा.


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