क्या इस देश से ईमानदारी और वफ़ादारी का जनाज़ा ही उठ जाएगा? क्या भारत में ईमानदार अधिकारी पैदा होने ही बंद हो जाएंगे? स्थिति देखकर तो ऐसा ही महसूस होता है. चारों ओर बेईमानी, रिश्वतख़ोरी, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और लूट-खसोट का बोलबाला है. ईमानदारी तो जैसे इस देश को रास आना ही बंद हो गई है और बेईमानी इसकी नियति बन गई है. नासिक के अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे का केवल यही दोष था कि वह ईमानदार थे. इसी दोष ने उन्हें स्वर्गीय, बच्चों को अनाथ और पत्नी को विधवा बना दिया. वाक़ई हमारे देश में कितना मीठा फ़ल है ईमानदारी का! यह बात भी बड़ी अजीब है कि एक तो हमारे देश में ईमानदार अधिकारियों का पहले से ही अभाव है और जो ईमानदार हैं भी, तो उन्हें या तो बेईमान बनने पर मजबूर कर दिया जाता है या फिर मौत के हवाले. सोनावणे देश के उन्हीं ईमानदार अधिकारियों में से एक थे, जो अपना फ़र्ज़ निभाते-निभाते मौत की आग़ोश में चले गए. उन्हें मिलावटख़ोरों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ने की सज़ा के तौर पर अपनी जान गंवानी पड़ी.
दरअसल पिछले दिनों महाराष्ट्र के नासिक में एक भयानक घटना को अंजाम देते हुए मिलावटख़ोरों ने अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनावणे को जिंदा जला दिया. यह दर्दनाक घटना नासिक से 75 किलोमीटर दूर एक तेल डिपो पर दिन के उजाले में अंजाम दी गई. याद रहे कि यह पूरा इलाक़ा पेट्रोल, डीज़ल और केरोसिन में मिलावट के लिए बदनाम है. सोनावणे ने इस इलाक़े से गुज़रते हुए देखा कि कुछ ट्रक संदिग्ध अवस्था में खड़े हैं, इसलिए उन्होंने अपना फर्ज़ निभाते हुए कार से उतर कर लोगों से पूछताछ शुरू कर दी, तभी पोपट शिंदे नामक एक आदमी ने अपने साथियों समेत हमला कर दिया और उन पर तेल डालकर आग लगा दी, जिससे मौक़े पर ही उनकी मौत हो गई. सोनावणे तो चले गए, लेकिन सरकार और जनता के सामने कई सवाल खड़े कर गए. उनकी मौत से यह स्पष्ट हो गया कि देश में अपराधी कितने आज़ाद हैं. वे क़ानून से कैसे खिलवाड़ करते हैं? पुलिसकर्मियों को वे इस तरह मौत के घाट उतार देते हैं, जैसे वे क़ानून के रखवाले न होकर आम आदमी हों. वे जिस चीज़ में चाहें, मिलावटख़ोरी कर सकते हैं और अगर क़ानून के रखवाले भी उनके इस काम में रोड़ा बनेंगे तो वे उन्हें मौत के घाट उतार देंगे. यह हमारी सरकार के लिए सोचने का समय है.
सोनावणे की मौत का मुद्दा ताज़ा है, इसलिए सरकार और प्रशासन हरकत में हैं. दो-चार महीने गुज़र जाएंगे तो लोग भूल जाएंगे और सरकार भी कि कौन था सोनावणे और कहां है उसकी विधवा और बच्चे? यही हमारा क़ानून और प्रथा है और यही हमारी परंपरा है.
ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र के मनमाड क्षेत्र में सबसे ज़्यादा तेल के डिपो हैं, जहां से प्रतिदिन 3000 टैंकरों में तेल की आपूर्ति होती है. यहां के तेल माफ़िया ट्रांसपोर्टरों से मिलीभगत करके प्रतिदिन 5 हज़ार लीटर पेट्रोल की चोरी करते हैं. फिर इन ट्रैंकरों में केरोसिन मिला दिया जाता है और यह तेल अन्य भागों में सप्लाई कर दिया जाता है. यह हमारी आदत बन चुकी है या फिर परंपरा रही है कि हम किसी भी अवैध काम को रोकने के लिए उस वक़्त तक कार्यवाही नहीं करते, जब तक कोई बड़ा नुक़सान न हो जाए. यानी बड़े पैमाने पर जान और माल का नुक़सान न हो जाए. सोनावणे की मौत के फ़ौरन बाद ही सरकार हरकत में आ गई और मिलावटख़ोरों के ठिकानों पर छापामारी शुरू कर दी गई, सैकड़ों मिलावटख़ोरों की गिऱफ्तारी भी हुई. सवाल यह उठता है कि यह काम पहले क्यों नहीं किया गया? क्यों देश को एक ईमानदार अधिकारी की सेवा से वंचित कर दिया गया? क्या सरकार और प्रशासन को मिलावटख़ोरों के इस काले धंधे की पहले से जानकारी नहीं थी? निश्चित रूप से थी, बल्कि उनके ठिकानों की भी जानकारी थी. उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही सिर्फ़ इसलिए नहीं की गई, क्योंकि वे सरकार में बैठे लोगों और अधिकारियों को मोटी रिश्वत देते हैं. मिलावटख़ोरी का यह काम सरकार और प्रशासन के संरक्षण में होता है. यह तो केवल डीज़ल और पेट्रोल की कहानी सामने आई है, खाद्य पदार्थों में भी बड़े पैमाने पर ज़हर मिलाया जा रहा है. ऐसा ज़हर, जो कितने ही मासूम लोगों की जिंदगियां लील चुका है और उससे प्रशासन भी पूरी तरह वाक़िफ़ है, लेकिन कार्यवाही उस समय तक नहीं होगी, जब तक कोई बहुत बड़ा नुक़सान न हो जाए और मीडिया उसे प्राथमिकता देकर प्रकाशित-प्रसारित न करे.
सोनावणे के हत्यारों की गिऱफ्तारी भी मीडिया और जनता के दबाव में आकर की गई. जब महाराष्ट्र सरकार को एहसास हुआ कि सोनावणे की हत्या राष्ट्रीय मुद्दा बन चुकी है तो उसने आनन-फ़ानन में सैकड़ों मिलावटख़ोरों को गिऱफ्तार कर लिया. यह गिऱफ्तारियां तब की गईं, जब लाखों सरकारी कर्मचारी उत्तेजित होकर विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आए. राज्य के 80,000 राजपत्रित अधिकारियों समेत 17 लाख सरकारी कर्मचारियों ने अपना काम बंद करके विरोध प्रदर्शन किया. इससे सरकार को अपनी कुर्सी पर ख़तरा मंडराता नज़र आया तो उसने मिलावटख़ोरों को गिऱफ्तार ही नहीं किया, बल्कि ऐसे तत्वों से सख्ती से निपटने की घोषणा भी की. अब देखना यह है कि सोनावणे के हत्यारों को कितनी जल्दी फांसी के तख्ते तक पहुंचाया जाएगा और उनकी विधवा को कब शांति मिलेगी. संभव है, सोनावणे के मामले की फ़ाइल भी उन लाखों-करोड़ों फ़ाइलों में दबकर रह जाए, जिन्हें नंबर आने से पहले ही दीमक चाट चुके हैं, जिनके पन्ने पीले और बेजान होकर झड़ चुके हैं और न्याय की उम्मीद लगाए बैठे लोग इस दुनिया से चले गए.
मुंबई पर हमला हुआ यानी देश की प्रतिष्ठा पर हमला हुआ. क़साब पकड़ा गया और उसे अदालत ने मौत की सज़ा भी सुना दी, लेकिन वह आज भी जिंदा है और जेल में मज़े से जिंदगी गुज़ार रहा है. मुंबई हमले के पीड़ित आज भी क़साब की फांसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उन्हें हमले में अपनों को खोने का दु:ख आज भी सता रहा है, उनके ज़ख्म आज भी ताज़ा हैं, लेकिन वे कर भी क्या सकते हैं? सिर्फ़ अपनों को याद करके आंसू बहा सकते हैं और क़ानून का रोना रो सकते हैं. सोनावणे की मौत का मुद्दा ताज़ा है, इसलिए सरकार और प्रशासन हरकत में हैं. दो-चार महीने गुज़र जाएंगे तो लोग भूल जाएंगे और सरकार भी कि कौन था सोनावणे और कहां है उसकी विधवा और बच्चे? यही हमारा क़ानून और प्रथा है और यही हमारी परंपरा है. मिलावटख़ोरी का बाज़ार फिर गर्म हो जाएगा और फिर कोई सोनावणे बेरहमी से मौत के हवाले कर दिया जाएगा.