आडवाणी जी को धन्यवाद देना चाहिए कि आखिर उनकी समझ में आ गया कि देश की जनता उनकी पार्टी से खुश नहीं है. उन्हें शायद यह भी समझ में आ गया कि भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी अपने नेतृत्व से खुश नहीं हैं. इस नेतृत्व की परिभाषा क्या है? भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व का मतलब नितिन गडकरी, वैंकेया नायडू, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज एवं अरुण जेटली हैं. इसमें न तो जसवंत सिंह का नाम शामिल है और न यशवंत सिन्हा का और श्री लालकृष्ण आडवाणी का नाम तो बिल्कुल भी शामिल नहीं है. दो नाम नेतृत्व की इस सूची में और जुड़ने वाले हैं, जो शायद इन सबके ऊपर भविष्य में भारी पड़ेंगे, उनमें पहला नाम है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का और दूसरा राजस्थान की वसुंधरा राजे सिंधिया का. इन दोनों ने, गांव की भाषा में कहें तो, घूंसा दिखाकर और जूता दिखाकर भारतीय जनता पार्टी के तथाकथित नेतृत्व को झुकने के लिए विवश कर दिया. पार्टी विद डिफरेंस की यह हालत है. जाहिर है, इस हालत से आडवाणी जी कभी खुश नहीं हो सकते, पर अफसोस इस बात का है कि आडवाणी जी को यह सत्य प्रतीति उस समय हुई, जब उन्हें बूढ़ा शेर मानकर एक किनारे कर दिया गया और उनकी बात पार्टी में न कोई सुनता है और न कोई सुनना चाहता है. ऐसी स्थिति आने के बाद आडवाणी जी को अपनी बात कहने के लिए ब्लॉग का सहारा लेना पड़ा. यह भारतीय राजनीति की महानतम विडंबनाओं में से एक है.
हमने कई बार लिखा है कि लालकृष्ण आडवाणी जैसा नाम और इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी जैसा नाम सालों की मेहनत के बाद बनता है. इस मेहनत में कार्यकर्ताओं का विश्वास होता है, दिमाग की उर्वरता होती है और देश की नब्ज पहचानने की क्षमता भी होती है. लालकृष्ण आडवाणी का उदाहरण देश में एक बड़े नेता के बनने और बड़े नेता के अर्थ विहीन होने की कहानी है. इस कहानी का विश्लेषण भारतीय जनता पार्टी के लोग करें तो ज़्यादा बेहतर है, क्योंकि हमें यह लगता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता सबसे ज़्यादा देश पर असर डाल सकता है तो वह आज भी लालकृष्ण आडवाणी ही हैं. लेकिन लालकृष्ण आडवाणी अपनी गलतियों की वजह से, अपनी चूक की वजह से और अपने क्रियाकलापों के असंगत तरीकों से हाशिए पर चले गए हैं. लालकृष्ण आडवाणी का परिदृश्य से हटना जसवंत सिंह एवं यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं के लिए भी खतरे का संकेत है. लालकृष्ण आडवाणी का शायद संघ से भी मोहभंग हो गया है, अन्यथा वह यह ब्लॉग नहीं लिखते, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी में एक अघोषित अनुशासन की परंपरा रही है, लेकिन जब पार्टी का सर्वोच्च नेता ही स्वयं को अनुशासन के दायरे से बाहर ले जाए तो यह मानना चाहिए कि पार्टी में प्रधानमंत्री पद के लिए एक नया अघोषित या घोषित युद्ध छिड़ने वाला है.
भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद के कई महारथी उम्मीदवार हैं, जैसे नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज एवं अरुण जेटली और नया नाम वसुंधरा राजे का है. इस फैसले के साथ कि जो 75 साल के हो गए हैं, अब उन्हें कोई पद न दिया जाए. एक बड़ी पीढ़ी को राजनीति से अलग करने का रास्ता संघ और भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा नेताओं ने निकाल लिया है. आडवाणी जी के ब्लॉग को ध्यान से पढ़िए और जब आप पढ़ेंगे, तब आप यह भी समझ जाएंगे कि आडवाणी जी हाशिए पर क्यों चले गए. आडवाणी जी ने अपनी इस व्यथा को तब तक नहीं पहचाना, जब तक पत्रकार स्वप्न दास गुप्ता ने अंग्रेजी के पॉयनियर अ़खबार के अपने कॉलम में इसे नहीं लिखा. पॉयनियर अखबार के संपादक आडवाणी जी की पार्टी के सांसद हैं और पार्टी की आधिकारिक लाइन टेलीविजन चैनलों पर और प्रेस कांफ्रेंस में बताते रहते हैं. इसी अ़खबार में स्वप्न दास गुप्ता का कॉलम चलता है और स्वप्न दास गुप्ता भी भारतीय जनता पार्टी के दिमाग माने जाने वाले ग्रुप के एक सदस्य हैं. अंग्रेजी में अगर दर्द न बयान हो तो आडवाणी जी जैसा बड़ा नेता उसे नहीं समझता, क्योंकि उनके कार्यकर्ता तो पिछले तीन सालों से अपना सिर पीट रहे हैं. हम पिछले तीन सालों से भारतीय जनता पार्टी से दोस्ताना अपील करते रहे हैं कि आपका काम न करना और आपका विपक्ष के तौर पर व्यवहार न करना देश के लोकतंत्र के लिए खतरा हो सकता है.
देश ने भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष का रोल निभाने के लिए चुना है और विपक्ष का रोल भी महाराज के दरबार का विदूषक वाला रोल नहीं, एक सार्थक विपक्ष का रोल, जो भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन सालों से निभाना छोड़ दिया है. ऐसा लगता है, जैसे भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस की बी टीम बन गई है. न नीतियों में अंतर, न व्यवहार, न सोच और न समझ में. यही भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं का असली दर्द है, जिसे समझने में आडवाणी जी को तीन साल लग गए और वह भी उन्होंने तब समझा, जब स्वप्न दास गुप्ता का कॉलम पढ़ा.
हमने बार-बार लिखा कि देश ने भारतीय जनता पार्टी को विपक्ष का रोल निभाने के लिए चुना है और विपक्ष का रोल भी महाराज के दरबार का विदूषक वाला रोल नहीं, एक सार्थक विपक्ष का रोल, जो भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन सालों से निभाना छोड़ दिया है. ऐसा लगता है, जैसे भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस की बी टीम बन गई है. न नीतियों में अंतर, न व्यवहार, न सोच और न समझ में. यही भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं का असली दर्द है, जिसे समझने में आडवाणी जी को तीन साल लग गए और वह भी उन्होंने तब समझा, जब स्वप्न दास गुप्ता का कॉलम पढ़ा. स्वप्न दास गुप्ता को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने आडवाणी जी के लिए सुजाता का रोल निभाया. सुजाता उस महिला का नाम है, जिसने गया में बोध वृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी, जिससे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. हम यह तो नहीं कहते कि सुजाता खीर नहीं खिलाती तो बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, लेकिन कहानी ऐसी ही है. आज की सुजाता स्वप्न दास गुप्ता के रूप में आडवाणी जी के पास गई और उसने लिखा, जिससे उन्हें ज्ञान हुआ. हम इस बात को कतई नहीं मानते कि आडवाणी जी अगर स्वप्न दास गुप्ता का कॉलम नहीं पढ़ते तो उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अंतर्विरोध का, दर्द का या कार्यकर्ताओं की निराशा का ज्ञान नहीं होता, लेकिन आडवाणी जी ने अपना यह दर्द छिपाने के लिए स्वप्न दास गुप्ता का जो सहारा लिया, वह आडवाणी जी जैसे आदमी को नहीं लेना चाहिए.
कार्यकर्ता आज भी आडवाणी जी में एक बड़े नेता का दर्शन करता है. कार्यकर्ताओं को आज भी लगता है कि लालकृष्ण आडवाणी अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जो अगर देश में निकलें और पार्टी उनका साथ दे तो पार्टी दोबारा अपनी साख बना सकती है और धीरे-धीरे सत्ता प्राप्ति की दौड़ में शामिल हो सकती है. आडवाणी जी के इस ब्लॉग से उन कार्यकर्ताओं को घोर निराशा हुई, जिनका यह मानना था कि आडवाणी जी की विश्लेषण शक्ति अद्भुत है. आडवाणी जी को विश्लेषण के लिए अगर अंग्रेजी अखबार में छपे एक कॉलम की ज़रूरत महसूस हो या ज़रूरत पड़े तो उसे भारतीय राजनीति की विडंबना ही कहा जाएगा. पर देर आए, दुरुस्त आए. अगर आडवाणी जी को ज्ञान हुआ है तो यह ज्ञान किसी कार्यक्रम में, निराशा के तोड़ में बदलेगा या नहीं, यह एक सवाल है. डॉ. लोहिया ने मशहूर वाक्य कहा था, निराशा का कर्तव्य. आडवाणी जी को लोहिया जी का वह सिद्धांत पढ़ना चाहिए, जिसमें निराशा का कर्तव्य विश्लेषित किया गया है. भारतीय जनता पार्टी में आडवाणी जी को अपने कार्यकर्ताओं के साथ निराशा के कर्तव्य को निभाने और उसका नेतृत्व करने के लिए तैयार होना चाहिए. हम आडवाणी जी जैसे नेता की इज़्ज़त करते हुए कम से कम यह अपील तो उनसे कर ही सकते हैं और आशा करते हैं कि आडवाणी जी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की अपेक्षा पर खरे उतरने की कोशिश करेंगे और इसके लिए वह कार्यकर्ताओं से मिलेंगे, न कि अ़खबारों के स्तंभकारों के जरिए अपनी समझ को बढ़ाएंगे.