संभलिए, अभी संभलने का मौक़ा है

jab-top-mukabil-ho1किसी भी सरकार को सरकार की तरह व्यवहार करना चाहिए. सरकार का मतलब होता है कि वह देश में रहने वालों के जीवन की, भोजन की, काम की, स्वास्थ्य की और उनके सुख-शांति से रहने की आज़ादी की गारंटी दे. जो सरकार इसे जितना ज़्यादा पूरा करती है, वह उतनी ही अच्छी सरकार मानी जाती है. सरकार से यह भी अपेक्षा रहती है कि वह परिपक्व मानसिकता के साथ काम करेगी. जो सरकार समग्र दृष्टि या परिपक्व मानसिक मस्तिष्क का पालन नहीं करती, वह या तो सीमा पर दुश्मन के भड़काने की वजह से युद्ध की स्थिति पैदा कर लेती है या फिर देश में निहित स्वार्थों के उकसाने पर क़त्लेआम करने पर आमादा हो जाती है. हमें भरोसा रखना चाहिए कि हमारी सरकार ऐसी नहीं है.

उनके पास शराब बनाने और पीने की एक ही वजह है कि वे शराब पीकर अपने दर्द, तक़ली़फ भूले रहते हैं. उनके पास खाना नहीं है, काम नहीं है, है तो केवल बीमारी और मौत. हज़ारों लोगों के बीच कौन माओवादी है, इसे पहचानना असंभव है. तो क्या उस एक माओवादी को मारने के लिए हज़ारों का कत्ल कर दिया जाए.

हमें अ़फसोस टेलीविज़न और अख़बारों पर ज़रूर होता है. मीडिया में ऐसे लोग बड़ी संख्या में आ गए हैं, जिन्हें न देश की बुनियाद की समझ है, न देश के सामाजिक विकास की गति की, न देश की समस्याओं की, न देश के दर्द और तक़ली़फ की और न ही पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों की. दंतेवाड़ा की घटना के बाद, जिसमें 76 जवान मारे गए, अचानक टेलीविज़न चैनलों और अख़बारों के एक बड़े हिस्से की ओर से सरकार को सलाह दी जाने लगी है कि वह नक्सलवादियों या माओवादियों के ख़िला़फ युद्ध की घोषणा करे, उन पर हमला करे और उन्हें नेस्तनाबूद कर दे. ऐसा लग रहा है, जैसे भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और मीडिया के एक हिस्से का मिलाजुला रोदन हो रहा है. एक जैसा स्वर देखकर नहीं लगता कि भाजपा विपक्षी दल है और कांग्रेस सत्ताधारी. मीडिया का यह हिस्सा जो नेस्तनाबूद करने की सलाह दे रहा है, ठीक वैसे ही व्यवहार कर रहा है, जैसा वह पाकिस्तान से जुड़ी किसी घटना पर करता है. इतना बहादुर मीडिया है कि जब चीन से जुड़ी कोई ख़बर आती है तो इन्हें सांप सूंघ जाता है और उस समय इन्हें राष्ट्र का कोई खयाल नहीं आता. सरकार को, नेस्तनाबूद करने की सलाह देने वाले बेशर्म पत्रकार इस बात पर कतई शर्मिंदा नहीं होते कि उन्होंने क्यों देश की समस्याओें पर ध्यान देना छोड़ दिया है. वे क्या स्थितियां बनीं, जिनकी वजह से देश के डेढ़ सौ से ज़्यादा ज़िलों में दंतेवाड़ा जैसे स्थान विकसित हो गए. इन ज़िलों में विकास के लिए गया पैसा किसकी जेब में गया. सड़क, अस्पताल, स्कूल क्यों नहीं बने. यहां पुलिस क्यों ग्रामीण क्षेत्र में जाने से डरती है. क्या सारे ग्रामीण नक्सलवादी या माओवादी हैं. इन विषयों और कारणों पर ध्यान देने की जगह मीडिया का एक हिस्सा मूर्खों की तरह सरकार को सलाह देने में लगा है. सरकार में, उसकी रणनीति में कितनी कमियां हैं, इसे गिनाने बैठें तो कब अंत होगा कह नहीं सकते. एक अधिकारी कहता है कि जंगल वार की ट्रेनिंग जवानों को नहीं है. दूसरा कहता है कि पूरी ट्रेनिंग है. गृहमंत्री कहता है कि वायु सेना का इस्तेमाल करेंगे तो वायुसेना अध्यक्ष कहते हैं कि हम सीमा पर बाहरी दुश्मनों से रक्षा के लिए बने हैं. पुलिस कहती है कि अर्द्धसैनिक बल उनसे न मदद लेते हैं और न अपने मूवमेंट की जानकारी उन्हें देते हैं, जबकि अर्द्धसैनिक बलों का कहना है कि पुलिस के लोग माओवादियों से न केवल मिले हैं, बल्कि अपनी रक्षा के लिए उन्हें पैसे तक देते हैं. क्या सच है, यह ये तथाकथित सलाहकार नहीं बताते, क्योंकि बताने के लिए इन्हें वहां जाना पड़ेगा या संवाददाताओं को भेजना पड़ेगा, जहां माओवादी हैं. इन सलाहकार चैनलों के आंखें फाड़कर डरावना चेहरा बनाकर जनता को भयभीत करने वाले उपदेशक पत्रकारों को हम बताना चाहते हैं कि जब वे वहां जाएंगे तो उन्हें ऐसे लोग मिलेंगे, जिनके तन पर कपड़े ही नहीं हैं, न आदमियों के और न औरतों के. उनके पास शराब बनाने और पीने की एक ही वजह है कि वे शराब पीकर अपने दर्द, तक़ली़फ भूले रहते हैं. उनके पास खाना नहीं है, काम नहीं है, है तो केवल बीमारी और मौत. हज़ारों लोगों के बीच कौन माओवादी है, इसे पहचानना असंभव है. तो क्या उस एक माओवादी को मारने के लिए हज़ारों का कत्ल कर दिया जाए. माओवादियों की ताक़त है, लोगों की ग़रीबी, लोगों की भूख, लोगों का रेंग-रेंग कर जीना. इसमें जब माओवादी कहते हैं कि अच्छी ज़िंदगी नहीं मिलती तो उसके लिए संघर्ष करो और मर जाओ, तो लोग उनकी बात मानते हैं. इसका मुक़ाबला करना है तो केवल एक रास्ता है, उन्हें पकड़ना जो इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं. ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए. पिछले पचास सालों से इन डेढ़ सौ ज़िलों में रहे कर्मचारी, आईएएस अ़फसर और राजनेता, जिन्होंने मिलकर माओवाद के लिए दंतेवाड़ा जैसे स्थान विकसित किए हैं, पहचानने होंगे. आज और अभी से सरकारों को पहले इन ज़िलों में और साथ ही पूरे देश में ईमानदारी से विकास और समन्वित विकास की योजना बनानी होगी और बिना व़क्त खोए लागू करनी होगी. इसकी जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए. अफसर, एमएलए, मंत्री जो दोषी निकले, उसे सजा मिलनी चाहिए. लेकिन ज़िम्मेदारी कौन तय करेगा. मनरेगा जैसी ग्रामीण योजना भ्रष्टाचारियों के लिए लूट का अवसर लेकर आई है. प्रधानमंत्री की चौदह सूत्री योजना में क्या हो रहा है पता नहीं. प्रधानमंत्री ख़ुद सौ दिनों का रिपोर्ट कार्ड देखना ही भूल गए हैं तो ज़ारी क्या करेंगे. अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की जगह हिटलर की तरह सोचने वाले राय दे रहे हैं, सभी को मार डालेंगे और उन्हें मीडिया के नालायक छोटे हिटलर समर्थन दे रहे हैं कि सबको नेस्तनाबूद कर दो. इन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि समस्याओं का तू़फान अपने साथ एक विद्रोह लिए बढ़ता चला आ रहा है. आकाश में उठती गुस्से की आंधी उन्हें पहचाननी चाहिए, जो सरकार चला रहे हैं या जो चलाना चाहते हैं. अगर इस आंधी में तमाशबीन भी शामिल हो गए तो संकट की तस्वीर और बदसूरत हो जाएगी. इन तथाकथित मीडिया सलाहकारों से कहना चाहेंगे कि सत्ता के दलालों की जगह जनता के हितों के पहरेदार बनें, उसी में शान है. सत्ता से विनम्र अनुरोध है कि बिना दिमाग़ का उतावलापन आपके लिए नई परेशानियां पैदा करेगा. बेहतर हो आप समस्याएं सुलझाइए, लोगों के दर्द-तक़ली़फ दूर कीजिए, विकास की ईमानदार कोशिश कीजिए और देश को देश के रहने वालों की नज़र से देखिए. ये अपने देश के परेशान-दुखी लोग हैं, किसी दुश्मन देश के रहने वाले नहीं. मूर्खता भरे फैसलों से ऐसा व़क्त नहीं आना चाहिए, जब गोली चलाने वाले हुक्म मिलने पर कहें कि हम अपने ही लोगों पर गोली नहीं चलाएंगे. संभलिए, अभी संभलने का मौक़ा है.


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