भारत की राजनीति में एक बहुत खतरनाक प्रवृत्ति पिछले 10-12 सालों में बढ़ी है और वह प्रवृत्ति सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष के बीच में देखी जा रही है. पिछली सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, उन्होंने इसका प्रतिपादन किया और अब मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस प्रवृत्ति को बढ़ाते जा रहे हैं. वह प्रवृत्ति है, विपक्ष के साथ संवाद न करना, किसी भी विषय के ऊपर विपक्ष से राय न लेना. यह मानना कि चूंकि उनके पास बहुमत है, इसलिए वह जो फैसला करेंगे, उसे सबको मानना ही चाहिए. एक औपचारिकता संसद के सत्र से पहले निभाई जाती है, जिसमें संसदीय कार्यमंत्री सर्वदलीय बैठक बुला लेते हैं या फिर लोकसभा या राज्यसभा अध्यक्ष सदन कैसे सुचारू रूप से चले, इसके बारे में बात करते हैं. बस इतना ही. और, इसका नतीजा यह निकल रहा है कि मनमोहन सिंह के समय महीनों सदन में न काम हुआ, न काज हुआ, न सवाल पूछे गए और जनता का पैसा बर्बाद हुआ. ठीक वही चीज अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समय देखी जा रही है. मजे की बात यह कि दलों के प्रवक्ता, खासकर सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं से जब यह जानने की कोशिश की जाती है कि क्या सदन को चलाने का मुख्य रोल सत्तारूढ़ पार्टी का नहीं है, तो उनका एक ही रटा-रटाया जवाब होता है कि सरकार सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक बुला तो लेती है और फिर सदन में जब सरकार कहती है कि हम बात करना, बहस करना चाहते हैं, तो विपक्ष तैयार क्यों नहीं होता.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में या कहें कि दस साल के कार्यकाल में शायद पांच बार भी सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई और उनके साथ देश की किसी समस्या के ऊपर राय-मशविरा नहीं किया. सोनिया गांधी तो यूपीए की अध्यक्ष थीं, लेकिन वह जब अपनी ही पार्टी के लिए सुलभ नहीं थीं, तो विपक्ष के लिए कहां से सुलभ होंती. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष को निरर्थक मान बैठे हैं और इस निरर्थक विपक्ष से क्यों बात करना, यह शायद उनकी सोच का मुख्य केंद्र बिंदु है.
मैं मौजूदा राजनीतिक दलों के नेताओं को, जिनमें सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों शामिल हैं, यह बताना चाहता हूं कि जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे और उनके पास विशाल बहुमत था, तब उन्हीं दिनों किसी ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रोफेसर हीरेंद्र नाथ मुखर्जी से पूछा कि संसद में विपक्ष के कौन नेता हैं और उनका रोल क्या है? प्रोफेसर हीरेंद्र नाथ मुखर्जी ने जवाब दिया कि इस समय सदन के नेता यानी प्रधानमंत्री यानी पंडित जवाहर लाल नेहरू ही विपक्ष के सबसे बड़े नेता हैं. इस पर लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ. प्रोफेसर मुखर्जी ने कहा कि पंडित जवाहर लाल नेहरू यह जानते हैं कि लोकतंत्र में विपक्ष का क्या महत्व है और चूंकि दोनों सदनों में विपक्षी दलों की संख्या बहुत कम है, इसलिए वह स्वयं विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले सवालों को उठाते हैं, उनका जवाब देते हैं, उनका हल भी निकालते हैं और इस क्रम में पंडित जवाहर लाल नेहरू को यह पता चल जाता है कि कहां पर चूक हो रही है तथा वह उसे ठीक करने की कोशिश भी करते हैं.
प्रोफेसर मुखर्जी का यह उत्तर राजनीतिज्ञों के लिए आंखें खोलने वाला है. लोकतंत्र का दिशा निर्देशक तत्व विपक्ष है. अगर विपक्ष अपनी बात राजनीति को परे रखकर जनता के हित के लिए उठाता है, तो उसे सत्तारूढ़ दल को सुनना चाहिए और विपक्ष को भी अपने विपक्ष होने की क़ानूनी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहिए. वहीं दूसरी तऱफ सरकार अगर विपक्ष से राय-मशविरा नहीं करती है और विपक्ष से बात नहीं करती है, तो लोकतंत्र से दूर जाती हुई दिखाई देती है. भारत जैसे देश, जहां लोकतांत्रिक परंपराएं कूट-कूटकर भरी हैं और जहां पिछले पैंसठ सालों से लोकतंत्र निर्बाध गति से चल रहा है, अगर वहां पर पक्ष या विपक्ष लोकतंत्र से दूर जाता हुआ दिखाई दे, तो इसे बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण मानना चाहिए.
इसके साथ ही राजनीति में एक और नई खतरनाक चीज दिखाई दे रही है कि मंत्री स्वयं को अपने दल का मंत्री मान बैठे हैं. मैं केंद्रीय सरकार की बात कर रहा हूं. जो संसद के सदस्य हैं या वरिष्ठ राजनेता हैं, संसद के सदस्य भले ही न हों, अगर उन्हें किसी बारे में बात करनी हो, तो किससे बात करेंगे? वे बात सरकार के मंत्री से ही करेंगे, क्योंकि सरकार का मंत्री देश का मंत्री होता है. सुषमा स्वराज का यह कहना कि उनके ऊपर कांग्रेस के लोगों ने दबाव डाला, मेरी समझ में नहीं आता. कांग्रेस के लोग कैसे दबाव डाल सकते हैं? क्या उन्होंने सुषमा स्वराज से यह कहा कि आप यह बात मान लीजिए, तो हम आपको सदन में वाकओवर दे देंगे कि आप जैसा चाहें, वैसा करें? ऐसा कभी होता नहीं है. सुषमा स्वराज मंत्री हैं या कोई भी मंत्री है, स्वास्थ्य मंत्री हैं, ग्रामीण विकास मंत्री हैं, रेल मंत्री हैं. इन सबके पास लोग जाएंगे और अपनी समस्याएं बताएंगे. कभी उचित सिफारिश होगी, तो कभी अनुचित सिफारिश होगी. लेकिन, उन तमाम सिफारिशों को मानना या न मानना मंत्री के ऊपर निर्भर करता है. अब अगर कोई मंत्री अपनी किन्हीं चीजों को छिपाने के लिए या विषय को डायवर्ट करने के लिए यह कह दे कि उसके ऊपर दबाव डाला गया, तो उसे बताना पड़ेगा कि दबाव का मतलब क्या? अथवा यह भी स़िर्फ एक जुमला है. जैसा कि भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों जुमलेबाजी शुरू हो गई है और हर नेता किसी भी बात पर कह देता है कि यह तो जुमला था, राजनीतिक जुमला था. क्या वैसे ही भारत की राजनीति में नए सिरे से एक जुमलेबजी शुरू हो रही है?
ये सारी बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि मुझे कुछ नाम याद आ रहे हैं, जैसे भैरो सिंह शेखावत, बल्कि उनसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या फिर चंद्रशेखर जी. ये ऐसे लोग थे, जिनके दोस्त हर दल में थे और वे कभी औपचारिक मुलाकातें नहीं करते थे, अनौपचारिक मुलाकातें करते थे. उस अनौपचारिक मुलाकात में बहुत सारे मसले हंसी के ठहाकों के बीच हल हो जाते थे और सदन सुचारू रूप से चलता था. इसलिए जब कोई ऐसा नेता सदन में खड़ा होता था, तो सदन ध्यान से उसकी बात सुनता था. आज तो सदन में एक भी नेता ऐसा नहीं है कि जो खड़ा हो और पूरा सदन उसे ध्यान से सुने. आज लोकसभा और राज्यसभा में अनौपचारिक बैठकों के लिए जगह नहीं है. आज तो हालत यह हो गई है कि अगर कोई किसी के यहां शादी-ब्याह में भी चला जाए, तो सवाल खड़ा हो जाता है कि वह उसके यहां क्यों गया था. यह राजनीति की वह ़खतरनाक प्रवृत्ति है, जो लोकतंत्र के ख़िला़फ मानी जाती है. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि भारत की राजनीति में फिर से उस परंपरा का सूत्रपात हो. जितने भी सफल संसदीय कार्यमंत्री रहे हैं या जितने भी सफल अध्यक्ष रहे हैं लोकसभा या राज्यसभा के, उनके दरवाजे अपनी पार्टी के अलावा विपक्ष के लिए हमेशा खुले रहते थे और वे बातचीत करके मसलों का हल निकाल लेते थे. राजनीति में शत्रुता, राजनीति में मित्रता और राजनीति में आत्मीयता ज़रूरी है, वरना लोकतंत्र और तानाशाही में ़फर्क़ क्या रह जाएगा? भारत की राजनीति में फिर से उन लोगों के आगे आने की ज़रूरत है, जिनकी दोस्ती हर दल में है और जो अनौपचारिक रूप से लोगों को बुलाकर दोस्ती का एक नया सिलसिला शुरू कर सकें.
ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग आज कम हो गए हैं. लोग हैं, लेकिन उनमें हिम्मत समाप्त हो गई है. अटल जी, चंद्रशेखर जी और भैरो सिंह जी जैसे लोग राजनीति में हमेशा इसीलिए याद किए जाते हैं, क्योंकि कभी वे एक दल के नहीं होते, वे हर दल के होते हैं, हर दल में उनके दोस्त होते हैं और वे कभी किसी के यहां जाने से गुरेज नहीं करते. यही तत्व भारत की राजनीति से गायब हो रहा है. यह जितनी जल्दी पुनर्स्थापित हो, लोकतंत्र के लिए शुभ होगा.