सर्वोच्च न्यायालय को अंतर्विरोधों का जवाब देना चाहिए

Santosh Bhartiyaहर व्यवस्था के अपने बंधन होते हैं, अपने सवाल होते हैं. अधिनायकवादी व्यवस्था में न्याय के ऊपर सवाल नहीं उठता. अधिनायकवादी व्यवस्था में अन्याय के ऊपर सवाल नहीं उठता, क्योंकि वहां अधिनायक अगर किसी को न्याय कहता है, तो सब उसे न्याय मानते हैं और किसी को अन्याय कहता है, तो सब अन्याय मानते हैं. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होता. लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्याय की एक प्रक्रिया होती है और न्याय तथा अन्याय की स्पष्ट परिभाषा भी होती है. लोकतंत्र में हर समुदाय को संविधान का संरक्षण मिलता है. संविधान लोकतंत्र की गीता और कुरान है. जहां पर संविधान की व्याख्या करनी हो और जहां पर जरा भी शंका हो, वहां पर उसकी व्याख्या करने का काम सर्वोच्च न्यायालय करता है. ये सारी बातें दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश में लागू होती हैं. हमारा देश भारत भी एक लोकतांत्रिक देश है.

लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों का विद्रोह नहीं चलता और बहुसंख्यक का अधिनायकवाद नहीं चलता. लोकतंत्र में अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, संविधान के तहत एक ही तरह के अधिकार मिलते हैं और उन अधिकारों के तहत उनकी समस्याओं के निदान तलाशे जाते हैं. बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, दोनों वर्गों में लोकतंत्र को न मानने वाले दिमाग हैं और ये दिमाग यह बतलाते हैं कि उन्हें लोकतंत्र पसंद नहीं है, उन्हें बहुसंख्यक समाज का अधिनायकवाद पसंद है और दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों में अलोकतांत्रिक दिमाग अल्पसंख्यकों को विद्रोह के लिए उकसाना अपना फर्ज समझता है, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह खूबी है कि दोनों तरह के दिमाग अपनी बात संपूर्ण जनता के सामने रखते रहते हैं, पर जहां लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं, वहां पर आम जनता इन दिमागों से प्रभावित नहीं होती और चुनावों में हमेशा ऐसा फैसला देती है, जो लोकतंत्र को मजबूत करता है, कमजोर नहीं.

इसके बावजूद सवाल तो खड़े होते हैं. प्रशासन के तरीके पर सवाल खड़े होते हैं, कानून बनाने के तरीके पर सवाल खड़े होते हैं, अवसरों के सामान वितरण की जगह अवसरों की असमान उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े होते हैं, किसी घटना की जिम्मेदारी तय करने के तरीके के ऊपर सवाल खड़े होते हैं और देश में व्यवस्था चलाने के तरीके को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं. इन सवालों का उत्तर लोकतांत्रिक व्यवस्था जब तक सक्षम रूप से देती रहती है, तब तक वह व्यवस्था देश के हित में मानी जाती है. जहां व्यवस्था के सारे अंग सवालों का जवाब देना बंद कर दें या सवालोें से भटकाने की कोशिश करें, वहां लोकतांत्रिक देशों में सर्वोच्च न्यायालय या न्याय व्यवस्था के ऊपर यह जिम्मेदारी आ जाती है. न्याय व्यवस्था के ऊपर इस जिम्मेदारी का मतलब ये भी निकालना चाहिए कि देश में लोकतंत्र को बचाए रखने का आखिरी हथियार या तो जनता है या फिर न्याय व्यवस्था है.

पर जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में दिखने लगे कि न्याय पैसे के आधार पर, राजनीतिक प्रभाव के आधार पर या धर्म के आधार पर मतभेद करने लगे, तो मानना चाहिए कि लोकतंत्र में कहीं कुछ सड़ने लगा है. और ये सड़न अगर तत्काल दूर नहीं की गई, तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने आप में निष्प्रभावी होने के रास्ते पर निकल पड़ेगी.

लोकतंत्र को चलाने की ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी बहुसंख्यक समाज की है और दूसरी तरफ सरकार और विधायिका की है. अगर हम स्पष्ट रूप से देखने लगें कि कुछ लोगों को न्याय मिलने में जबरदस्ती अड़ंगे लगते हैं और दूसरी तरफ जानबूझकर कुछ फैसलों को इतने लंबे समय तक लटकाया जाता है. जब यह कहा जाए, चूंकि फैसला होने में देरी हुई इसलिए अब इन्हें न्याय के अनुसार दिए गए फैसले पर होने वाले अमल से बरी कर दिया जाए. हमारे देश में पिछले दिनों ऐसे ही उदाहरण देखने को मिले, जहां पर यह शंका पैदा हुई कि राजनीति के आधार पर राजनीतिक प्रभावशीलता के आधार पर और धार्मिक असहनशीलता के आधार पर होने वाले फैसलों ने देश के एक बड़े वर्ग के अंदर असहजता पैदा करनी शुरू कर दी है. हो सकता है यह ट्रेंड स्थाई न हो, पर यह ट्रेंड अस्थाई भी नहीं है.

अफसोस की बात यह है कि इन सारे सवालों पर जहां बहुसंख्यक समाज का एक प्रभावशाली हिस्सा चुप नहीं है, बल्कि इन विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है. वहीं अल्पसंख्यक समाज में आवाजें बंद हैं और जब एक आवाज उन विसंगतियों का विरोध करती है, तो वो अल्पसंख्यकों के बाकी नेताओं को अप्रासंगिक साबित करती है और एकछत्र नेतृत्व की तरफ अल्पसंख्यकों को ले जाती है. किसी भी समाज में अकेला नेतृत्व बहुत स्वस्थ नहीं माना जा सकता, लेकिन जब बाकी लोग खामोश हों और सिर्फ एक आवाज उठे, तो अल्पसंख्यक  जनता के मन में उस आवाज के लिए आदर पैदा होना आश्चर्यजनक चीज नहीं मानी जा सकती.

लोकतंत्र के भीतर उठे हुए सवाल और जिन अंतर्विरोधों का जिक्र हम कर रहे हैं, अगर इन अंतर्विरोधों के सवाल पर लोकतांत्रिक व्यवस्था या संविधान की व्याख्या करने वाला सर्वोच्च न्यायालय खामोश रहता है और इनका उत्तर नहीं देता, तब हमें मानना चाहिए कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए स्थापित व्यवस्था से बाहर भी कुछ करने की जरूरत है और ये कुछ करने का जिम्मा जहां एक तरफ बुद्धिजीवियों के ऊपर है, वहीं इसका दूसरा दायित्व पत्रकारों के ऊपर भी है. पर हमारे देश में बुद्धिजीवियों की बात तो मैं नहीं कहता, लेकिन पत्रकारों के बारे में मेरे मन में एक संदेह है कि उनमें कितने ऐसे हैं, जिनके मन में लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर सम्मान है या जो यह मानते हैं कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही चलनी चाहिए. ये शंका पिछले 8-10 सालों में जिस तरह से रिपोर्टिंग हो रही है, जिस नजरिये से सवालों को देखा जा रहा है, उसे देख कर खड़ी हुई है. पर चिंताएं एक तरफ और चिंताओं से लड़ाई दूसरी तरफ. वक्त आ गया है कि हम सब सर्वोच्च न्यायालय से कहें कि वो अंतर्विरोधों के जवाब दे और अगर सर्वोच्च न्यायालय भी खामोश रहता है तो फिर व्यवस्था से इतर जनता को लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए कुछ सोचने की और करने की आवश्यकता दिखाई देती है.


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