मामला चाहे लोकपाल का हो या फिर काले धन का, दरअसल इन सबके पीछे असल मुद्दा सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही का है. आज भ्रष्टाचार को लेकर देश में जो माहौल बना है, उसमें सीबीआई सहित सभी जांच एजेंसियों में सुधार की ज़रूरत है. सरकार उल्टा सोचती है. सीबीआई को पारदर्शी बनाने की जगह उसे आरटीआई के दायरे से ही बाहर कर दिया गया. मतलब यह कि सीबीआई के दफ्तर से अब कोई जानकारी आरटीआई के ज़रिए बाहर नहीं आ सकती. सरकार और कांग्रेस पार्टी सूचना का अधिकार क़ानून यूपीए सरकार की पहली प्रमुख उपलब्धि मानती है. जनसभाओं में कांग्रेस नेता और सरकार के मंत्री यह कहते हैं कि चाहे कोई भी सरकार सत्ता में हो, कोई भी नागरिक इस क़ानून के माध्यम से सरकार से सवाल पूछ सकता है और जवाब की आशा कर सकता है. वे यह दावा करते हैं कि इस क़ानून से यूपीए ने सरकार के कामकाज में पारदर्शिता सुनिश्चित की है. सरकार सीबीआई को सूचना के क़ानून के दायरे से बाहर रखकर अपनी प्रमुख उपलब्धि से हाथ धो बैठी है. वैसे यह मामला अब मद्रास हाईकोर्ट में पहुंच चुका है. हाईकोर्ट में केंद्र सरकार को अगले दो सप्ताह में जवाब देना है. अगर कोर्ट ने सरकार के फैसले को ग़लत करार दिया तो वैसे भी सरकार और कांग्रेस पार्टी की किरकिरी होने वाली है.
सूचना का अधिकार क़ानून 2005 में लागू हुआ. इस क़ानून ने पिछले 6 सालों से लोगों में एक नई आशा, एक नई उम्मीद जगाने का काम किया. अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि सरकार ने सीबीआई को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखने का फैसला ले लिया. सरकार ने अगर ऐसा कर दिया तो साथ में यह उसका दायित्व था कि इस आदेश के साथ-साथ देश की जनता को यह बताया जाता कि किन परिस्थितियों में सरकार यह फैसला लेने को मजबूर हुई. सीबीआई ऐसा क्या काम कर रही है, जिसकी सूचना जनता में आने से देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए खतरा बन जाता. जहां तक मुझे खबर है, सुप्रीम कोर्ट की वजह से सीबीआई आजकल पिछले कुछ सालों में हुए बड़े-बड़े घोटालों की जांच में व्यस्त है. सीबीआई के अधिकारी मंत्रियों की बातों को मानने से इंकार कर रहे हैं. ऐसे में क्या यह समझा जाए कि सरकार की तरफ से सीबीआई को लुभाने की कोशिश है. सवाल तो यह है कि जब आज तक सीबीआई के किसी डायरेक्टर ने यह मांग नहीं की तो फिर सरकार ने यह फैसला क्यों लिया.
सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का सुझाव एटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती ने दिया था. वाहनवती ने अपने सुझाव 11 पेज की रिपोर्ट के रूप में दिए. उन्होंने यह दलील दी कि खुफिया एजेंसी को आरटीआई के दायरे से बाहर रखना चाहिए, क्योंकि इससे राष्ट्र की सुरक्षा का मामला जुड़ा है. वाहनवती की रिपोर्ट को आधार बनाकर सरकार ने सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का आदेश दे दिया. मज़ेदार बात यह है कि वाहनवती के सुझाव के ठीक उल्टा सुझाव क़ानून मंत्रालय और कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने दिया. आरटीआई को लागू कराने की ज़िम्मेदारी डीओपीटी के पास है. मज़ेदार बात यह है कि इसे चोरी-छुपे किया गया. सरकार ने इस फैसले को देश की जनता या संसद को बताने की जरूरत नहीं समझी, जो इस क़ानून का उल्लंघन है. इस बात का पर्दा़फाश भी एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने किया. हैदराबाद के आरटीआई एक्टिविस्ट सी जे करीरा ने नार्थ ब्लॉक स्थित डीओपीटी के दफ्तर में इस आदेश की फाइल को देखा. इसे देखने के लिए उन्होंने एक आरटीआई डाली थी. उन्हें पूरी फाइल देखने में पचास मिनट लगे. सीबीआई को दायरे से बाहर रखने के लिए आरटीआई क़ानून के सेक्शन 24 को आधार बनाया गया है. अब सवाल यह है कि इसका सेक्शन 24 क्या कहता है.
पहली बात तो यह है कि सूचना का अधिकार क़ानून सीबीआई जैसी जांच एजेंसी को इसके दायरे से बाहर रखने की अनुमति नहीं देता है. दूसरी बात यह है कि अगर एक जांच एजेंसी को इससे छूट मिली तो क्या भविष्य में ईडी, पुलिस या अन्य जितनी भी जांच एजेंसियां हैं, उन्हें भी आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का इरादा है? ऐसी ही मांग अगर राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों की तऱफ से उठने लगे तो इस सूचना के अधिकार क़ानून में क्या बचा रह जाएगा?
सेक्शन 24 के पहले हिस्से में सा़फ-सा़फ लिखा है कि आरटीआई क़ानून केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए खुफिया और सुरक्षा संगठनों पर लागू नहीं होगा. जिन संगठनों को इस क़ानून में छूट दी गई है, उनके नाम इसके दूसरे शेड्यूल में शामिल किए गए हैं. मज़ेदार बात यह है कि इस सेक्शन के अगले वाक्य में यह भी लिखा है कि भ्रष्टाचार और मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले में इन संगठनों को छूट नहीं दी जाएगी. सेक्शन 24 का दूसरा भाग यह कहता है कि केंद्र सरकार को अधिकार है कि वह एक नोटिफिकेशन जारी करके दूसरे शेड्यूल में शामिल संगठनों के नामों में फेरबदल कर सकती है. मतलब यह कि सरकार किसी खुफिया व सुरक्षा संगठन को जोड़ सकती है या हटा सकती है. सेक्शन 24 के तीसरे भाग के मुताबिक़, अगर सरकार किसी संगठन को जोड़ने या हटाने के लिए नोटिस जारी करती है तो उसे यह मामला संसद के दोनों सदनों में रखना ज़रूरी है.
सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का फैसला चौंकाने वाला है. यह फैसला क्यों लिया गया, क्या संसद में इस बात पर चर्चा हुई? आरटीआई के क़ानून के मुताबिक़, सुरक्षा और खुफिया विभाग को आरटीआई से छूट मिली है. सीबीआई का रिश्ता न तो देश की सुरक्षा से है और न यह खुफिया विभाग है. सीबीआई सिर्फ एक जांच एजेंसी है. इससे सरकार की मानसिकता को लेकर कई सवाल उठते हैं. क्या यह शुरुआत है. पहली बात तो यह है कि सूचना का अधिकार क़ानून सीबीआई जैसी जांच एजेंसी को इसके दायरे से बाहर रखने की अनुमति नहीं देता है. दूसरी बात यह है कि अगर एक जांच एजेंसी को इससे छूट मिली तो क्या भविष्य में ईडी, पुलिस या अन्य जितनी भी जांच एजेंसियां हैं, उन्हें भी आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का इरादा है? ऐसी ही मांग अगर राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों की तरफ से उठने लगे तो इस सूचना के अधिकार क़ानून में क्या बचा रह जाएगा? एक दलील दी जा सकती है कि आरटीआई क़ानून के सेक्शन 8 के मुताबिक़ जिन मामलों की जांच चल रही है, उनके बारे में कोई सूचना नहीं दी जा सकती है. सीबीआई को आरटीआई क़ानून के तहत ही यह छूट मिली है. एक बार मामले की जांच हो गई तो फिर सीबीआई को उस मामले के बारे में सूचना देने में क्या परेशानी हो सकती है. एक तर्क यह दिया गया कि जिन मामलों की जांच पूरी हो जाती है, उनके काग़ज़ात वैसे भी कोर्ट में जमा हो जाते हैं.
यह व़क्त सीबीआई और सरकार, दोनों की साख बचाने का है. सीबीआई पहले से ही आरोपों के घेरे में है. सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल होता है. सरकार चलाने वाले राजनीतिक दल सीबीआई से अपने हिसाब से काम कराते हैं. सरकार सीबीआई के जरिए विरोधियों पर शिकंजा कसती है और सहयोगी राजनीतिक दलों के मामलों को भुला देती है. सीबीआई में नियुक्ति के लिए लॉबिंग होती है. ऐसे कई आरोप हैं, जो देश की इस प्रीमियर जांच एजेंसी पर अक्सर लगाए जाते हैं. क्या सरकार यह समझती है कि इस देश के लोग एक सा़फ-सुथरी और सक्षम जांच एजेंसी के लायक भी नहीं हैं या फिर यह समझा जाए कि यूपीए गठबंधन सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार को खत्म करने का पक्षधर नहीं है.