सरकार इस खतरे को पहचाने

jab-top-mukabil-ho1सिर्फ भारत सरकार ही नहीं, सभी सरकारों के जागने का व़क्त आ गया है. जागने का व़क्त इसलिए कि अगर कोई सरकार सुशासन करते हुए नहीं दिखाई देती या कोई सरकार लोगों के लिए काम करते नहीं दिखाई देती तो अब लोगों का ग़ुस्सा जल्दी फूटता दिख रहा है. अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने यह दिखाया कि लोग सड़कों पर आ सकते हैं. किसानों ने यह दिखाया कि अगर उनके हितों के खिला़फ कोई सरकार काम करेगी तो वे सड़क पर आ जाएंगे और स़िर्फ सत्याग्रह ही नहीं करेंगे, बल्कि उग्र सत्याग्रह करेंगे. सरकार को या तो गोली चलानी पड़ेगी या किसानों से बात करके मसले का हल निकालना होगा. बाबा रामदेव का सत्याग्रह भी यही बताता है कि आप अगर लोगों की बात नहीं सुनते हैं, आप सरकार चलाते हैं, लेकिन आप लोगों की समस्याओं से, लोगों की चिंताओं से खुद को दूर रखते हैं तो फिर आप परेशानी में पड़ते हैं. फिर आपको अपने मंत्रियों को भेजना पड़ता है. और जब मंत्री कहीं बातचीत करने जाएं और आंदोलनकारी मंत्रियों की बात से सहमत न हों तो इससे इज़्ज़त अगर किसी की जाती है तो वह सरकार की जाती है.

इससे पहले राजस्थान में दो बार गुर्जरों ने दिल्ली-मुंबई का रास्ता बंद कर दिया था. उनकी मांग थी कि उन्हें आरक्षण मिले. पहले वसुंधरा जी की सरकार और बाद में अशोक गहलोत की सरकार ने आश्वासन देकर उन्हें टालना चाहा. सरकार ने यह सा़फ नहीं कहा कि वह आरक्षण नहीं दे सकती. सरकार ने कहा कि वह आरक्षण के मसले पर विचार करेगी और केंद्र से बातचीत करेगी. दो बार गुर्जर सड़क पर आ चुके हैं. जाट समाज कई बार दिल्ली और आगरा का रास्ता बंद कर चुका है. ये वे क़िस्से हैं, जो दिल्ली के आसपास के शहरों में घट रहे हैं, जहां की खबरें आसानी से अ़खबारों में छप जाती हैं, टेलीविजन पर आ जाती हैं. पर देश के बहुत सारे हिस्से हैं, जहां बंद होता है, चक्का जाम होता है, लोग सड़कों पर आते हैं, आंदोलन करते हैं, बल्कि बहुत सारी जगहों पर उग्र आंदोलन करते हैं, पर उनकी खबरें सामने नहीं आ पातीं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वहां समस्या नहीं है. चिंता की बात यह है कि न स़िर्फ सरकार देश के दूर के हिस्सों में काम करती नहीं दिखाई देती, बल्कि जहां सरकार का केंद्र है, राज्यों की राजधानी और देश की राजधानी, वहां भी वह काम करती नहीं दिखाई देती है.

चिंता की बात यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या सरकार को काम करने न देने के पीछे मंत्रियों का कम दिमाग़ काम कर रहा है? मंत्रियों को समझ में ही नहीं आता कि किस चीज़ का फैसला कब लेना है और किस चीज़ को किस पैमाने पर लागू करना है? या फिर मंत्री यह नहीं समझ पाते कि भविष्य में आने वाली चुनौतियां क्या-क्या हैं, जिनके बारे में वे दिशानिर्देश जारी कर सकें? या फिर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के पास व़क्त ही नहीं है कि अपने मंत्रियों से कह सकें कि वे लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए किस तरह की कुशलता विकसित करें? यह कहना अतिशयोक्ति होगी या शायद बड़बोलापन होगा कि इन दिनों जो मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हैं, उनमें यह क्षमता नहीं है. लोकतंत्र है तो मानना चाहिए कि क्षमता है. पर वह क्षमता दिखाई क्यों नहीं देती? दूसरा पहलू यह है कि मंत्री अगर काम करना चाहते हैं तो क्या नौकरशाही उन्हें काम करने से रोकती है? क्या नौकरशाही का देश में काम न होने, देश में परेशानी और दु:ख बने रहने, लोगों के पास तक विकास या समस्याओं का हल न पहुंच सकने के पीछे कोई वेस्टेड इंटरेस्ट है? अगर वेस्टेड इंटरेस्ट है तो यह बहुत खतरनाक है और अगर यह वेस्टेड इंटरेस्ट नहीं है तो क्या आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की ट्रेनिंग में कोई कमज़ोरी आ गई है? वे यही कला सीखते हैं कि किस तरह समस्याओं का हल निकालें और किस तरह कुशल मैनेजमेंट कर सकें. क्या इसमें कोई कमी आई है? इस कमी को अच्छे अधिकारी न पहचानें और बुरे अधिकारी इसे अपनी ताकत बनाएं, यह खतरनाक स्थिति है. शायद इसीलिए देश में जगह-जगह उग्र आंदोलन हो रहे हैं, जगह-जगह सड़कें रोकी जा रही हैं, रेल रोकी जा रही है. इसके बावजूद हमारी नौकरशाही नहीं चेत रही.

अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों के बीच में कम से कम चार महीने का फर्क़ दिखाई दिया. इन चार महीनों में न भारत सरकार चेती, न राज्यों की सरकारें चेतीं. अब जिन मुद्दों को लेकर देश के लोग चिंतित हैं, जिनमें किसान शामिल हैं, छात्र शामिल हैं, मज़दूर शामिल हैं, नागरिक समाज शामिल है और इन चिंताओं को अगर सरकार चिंता नहीं समझती तो यह समस्या जनता की नहीं है, यह समस्या सरकारों की है.

नौकरशाही या राजनेताओं, जो सरकार में हैं या वे भी जो सरकार में नहीं हैं, विरोधी पक्ष में हैं, उनका न चेतना या न जागना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. अब लोग अपनी समस्याओं को लेकर स़िर्फ मांग पत्र देने तक अपना कर्तव्य नहीं मानते. पहले यह होता था कि सरकार को, सरकार के किसी मंत्री को या सरकार के किसी बड़े अधिकारी को अपनी समस्याओं से संबंधित मांग पत्र दे दो और फिर उसकी कॉपी ले जाकर अ़खबार के दफ्तर में दे दो और इसके बाद लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते थे. राजनीतिक दल, जो लोगों की समस्याओं से जुड़ने में गर्व महसूस करते थे, उन मांगों को लेकर आंदोलन करते थे. एक चक्र पूरा होता था, पर अब न राजनीतिक दल आंदोलन करते हैं और न समस्याग्रस्त समुदाय स़िर्फ मांग पत्र देकर संतुष्ट होता है. अब वह चाहता है कि उसकी मांगों पर फौरन काम हो और इसके लिए वह उग्र आंदोलन करने में नहीं हिचकता. संपूर्ण राजनीतिक तंत्र इस समय अचेतावस्था में हैं. भारत के कई बड़े अधिकारियों से पिछले दिनों मेरी बातचीत हुई. उनका मानना है कि पूरा लोकतांत्रिक ताना-बाना थोड़ा सा हिल रहा है. शासन का तंत्र मजबूत नहीं रहा. अब अगर भारत सरकार के बड़े अधिकारी यह मानने लगें तो इसका मतलब है कि कहीं न कहीं बुनियादी गड़बड़ी है, कमज़ोरी है. इस कमज़ोरी को दूर करने में उन सभी को हाथ बंटाना होगा, जो लोकतंत्र को मज़बूत होते हुए देखना चाहते हैं. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमारा लोकतंत्र सीमित लोकतंत्र में बदलने लगेगा. सीमित लोकतंत्र पाकिस्तान में है, सीमित लोकतंत्र बांग्लादेश में भी है. इन देशों में लोकतांत्रिक गतिविधियां नहीं होतीं और अगर होती भी हैं तो वे कहीं न कहीं से निर्देशित होती हैं. परिणाम यह होता है कि आम आदमी की समस्या इन दोनों देशों में कभी हल ही नहीं हो पाती. सौभाग्य की बात है कि हमारे देश में ऐसा नहीं है. लेकिन हमारे देश में अगर सरकारों ने लोगों की समस्याओं को न सुना, लोगों की चिंताओं को न समझा और लोगों की परेशानियों से लड़ते हुए वे नहीं दिखाई दीं तो शायद हम भी सीमित लोकतंत्र के रास्ते पर चलने लगेंगे.

यह खतरा आज के राजनेता, जिनमें सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, स्वयं मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, प्रकाश करात, जयललिता, करुणानिधि, मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी सब इसमें शामिल हैं, लंबी फेहरिस्त है. वे सारे नेता जो देश को चलाते हैं, अगर इस खतरे को नहीं समझेंगे और खुद को छोटे- छोटे हितों तक या छोटी-छोटी दूरी की यात्रा का राही मानेंगे तो देश में लोकतंत्र कितने दिनों तक बचा रहेगा, कहा नहीं जा सकता. हमें मालूम है कि हम नक्काऱखाने में तूती की तरह हैं. हमें मालूम है, मीडिया में हमारे साथियों को इस बात से कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि देश में लोकतंत्र रहे, न रहे और इसीलिए वे अपने को सही पत्रकारिता की दिशा में नहीं चलाना चाहते. उनके लिए इस देश की सरकार को, इस देश के प्रशासन को चेताना उनका कर्तव्य नहीं है. पर हम भले नक्काऱखाने में तूती हों, हम अन्याय के खिला़फ अपना हाथ हमेशा खड़ा करेंगे. सरकारों का निकम्मापन, प्रशासन का निकम्मापन, राजनेताओं का निकम्मापन और जनता की आवाज़ को, जनता के दर्द को, जनता के सपने को न सुनने की आदत को विकसित करना इस देश के लोगों के साथ और लोकतंत्र के खिला़फ एक आपराधिक उदासीनता है. यह उदासीनता दूर हो, इसके लिए जनता को अपनी आवाज़ थोड़ी और ऊंची करनी पड़ेगी.

अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों के बीच में कम से कम चार महीने का फर्क़ दिखाई दिया. इन चार महीनों में न भारत सरकार चेती, न राज्यों की सरकारें चेतीं. अब जिन मुद्दों को लेकर देश के लोग चिंतित हैं, जिनमें किसान शामिल हैं, छात्र शामिल हैं, मज़दूर शामिल हैं, नागरिक समाज शामिल है और इन चिंताओं को अगर सरकार चिंता नहीं समझती तो यह समस्या जनता की नहीं है, यह समस्या सरकारों की है. और सरकारें अगर आज भी नहीं चेतीं तो जनता एक सही विकल्प के अभाव में अराजकता की ओर भी बढ़ सकती है. इसका खतरा लगातार हमारे सामने दिखाई दे रहा है. अ़फसोस की बात है कि इस खतरे को हम देख रहे हैं, लेकिन इस खतरे को सरकार नहीं देख रही है.


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