संघ, भाजपा और मोहन भागवत

मोहन भागवत किसी भी तरह नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय पटल पर नहीं लाना चाहते थे, लेकिन मोहन भागवत की इस योजना में एक त्रुटि थी. जिस तरह मोहन भागवत सोच रहे थे, उस तरह से गुजरात में उनके विचारों को अमल में लाने वाला कोई राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं था. स़िर्फ एक व्यक्ति पर उनकी निगाह टिकी और उनका नाम संजय जोशी था. नरेंद्र मोदी फौरन समझ गए कि संजय जोशी उनके लिए गुजरात में ख़तरा बन सकते हैं. नरेंद्र मोदी ने पहली खुली बिसात संजय जोशी को लेकर बिछाई और उन्हें एक किनारे कर दिया. सारे देश में भारतीय जनता पार्टी द्वारा संचालित गुजरात की सरकार ऐसी थी, जिसके प्रति लोगों में उत्सुकता थी और आशंका भी.


bhagwatराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में जितने सरसंघचालक हुए हैं, उनमें से अधिकांश साधु वृत्ति के रहे हैं और उन्होंने कभी भी अपनी राजनीतिक शाखा को लेकर, चाहे पहले वह जनसंघ रहा हो या बाद में उसका अवतार भारतीय जनता पार्टी के रूप में हुआ हो, कड़े फैसले नहीं लिए, उन्हें सीधे निर्देश नहीं दिए. हालांकि अफ़वाहें बहुत चलीं, लेकिन सत्य यह है कि उन्होंने स़िर्फ सलाहें दीं, निर्देश नहीं दिए. दूसरे शब्दों में कड़े फैसले नहीं लिए. सुदर्शन जी का दिमाग थोड़ा-सा राजनीतिक था और वह भारतीय जनता पार्टी में कुछ राजनीतिक परिवर्तन चाहते थे. पर शायद उनमें वह कुशलता नहीं थी. इसलिए मानना चाहिए कि रज्जू भैया तक जितने भी सरसंघचालक बने, वे सब सामाजिक ज़्यादा और राजनीतिक सोच वाले कम थे.
उस सारे अनुभव ने मोहन भागवत को बहुत कुछ सिखाया. श्री मोहन भागवत अभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक हैं. बीते 60 सालों की संघ कार्यप्रणाली और कोमल निर्देश देने की प्रक्रिया की वजह से जिस तरह पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी सत्ता से दूर होती गई, उसने मोहन भागवत को नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया. मोहन भागवत ने सबसे ज़्यादा विचार इसी बात पर किया कि कैसे उनके रहते भारतीय जनता पार्टी एक नया स्वरूप प्राप्त करे. उस समय मोहन भागवत के सामने दो चुनौतियां थीं. एक चुनौती भारतीय जनता पार्टी में नए लोगों की क्षमता का इस्तेमाल करने की थी और दूसरी चुनौती उन लोगों को नियंत्रण में रखने की थी, जो उनसे उम्र और अनुभव में काफी ज़्यादा थे. इनमें श्री लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का नाम आसानी से लिया जा सकता है. लालकृष्ण आडवाणी का जितना राजनीतिक अनुभव है, उससे बहुत कम श्री मोहन भागवत का अनुभव है. वह उम्र में भी आडवाणी जी से काफी छोटे हैं और अनुभव में भी काफी छोटे हैं. इसलिए मोहन भागवत के सामने सबसे बड़ी चुनौती श्री लालकृष्ण आडवाणी और श्री मुरली मनोहर जोशी को भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व पद से हटाना था. आडवाणी जी का अपना कोर ग्रुप था, जिसमें अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार और राजनाथ सिंह शामिल थे.
मोहन भागवत ने यह सारी प्रक्रिया जैसे ही शुरू की, वैसे ही उन्हें पहली चुनौती गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से मिली. नरेंद्र मोदी भविष्य की योजना बना रहे थे और उस योजना में उन्हें संघ से जुड़े प्रमुख लोग और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े प्रमुख लोग, जिनका संघ में काफी असर था, आगे बढ़ने से रोक रहे थे या दूसरे शब्दों में, नरेंद्र मोदी उन्हें अपने रास्ते की बाधा मान रहे थे. उन्होंने सबसे पहले गुजरात में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी वरिष्ठ प्रचारकों को एक किनारे किया और दूसरी तरफ़ उन्होंने उनका विश्‍वास लिए हुए राजनीति कर रहे
राजनेताओं को दूसरे किनारे करने में अपनी सारी ताकत लगा दी. नरेंद्र मोदी वहां सफल रहे. लेकिन, नरेंद्र मोदी की इस कार्यशैली को मोहन भागवत ने पसंद नहीं किया. मोहन भागवत किसी भी तरह नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय पटल पर नहीं लाना चाहते थे, लेकिन मोहन भागवत की इस योजना में एक त्रुटि थी. जिस तरह मोहन भागवत सोच रहे थे, उस तरह से गुजरात में उनके विचारों को अमल में लाने वाला कोई राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं था. स़िर्फ एक व्यक्ति पर उनकी निगाह टिकी और उनका नाम संजय जोशी था. नरेंद्र मोदी फौरन समझ गए कि संजय जोशी उनके लिए गुजरात में ख़तरा बन सकते हैं. नरेंद्र मोदी ने पहली खुली बिसात संजय जोशी को लेकर बिछाई और उन्हें एक किनारे कर दिया. सारे देश में भारतीय जनता पार्टी द्वारा संचालित गुजरात की सरकार ऐसी थी, जिसके प्रति लोगों में उत्सुकता थी और आशंका भी.

बीते 60 सालों की संघ कार्यप्रणाली और कोमल निर्देश देने की प्रक्रिया की वजह से जिस तरह पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी सत्ता से दूर होती गई, उसने मोहन भागवत को नए सिरे से सोचने के  लिए मजबूर किया. मोहन भागवत ने सबसे ज़्यादा विचार इसी बात पर किया कि कैसे उनके रहते भारतीय जनता पार्टी एक नया स्वरूप प्राप्त करे. उस समय मोहन भागवत के सामने दो चुनौतियां थीं. एक चुनौती भारतीय जनता पार्टी में नए लोगों की क्षमता का इस्तेमाल करने की थी और दूसरी चुनौती उन लोगों को नियंत्रण में रखने की थी, जो उनसे उम्र और अनुभव में काफी ज़्यादा थे.

नरेंद्र मोदी ने अपने प्रति भारतीय जनता पार्टी में उभरी उत्सुकता का फ़ायदा उठाया और उन्होंने मुंबई अधिवेशन में तब तक जाने से इंकार कर दिया, जब तक संजय जोशी की विदाई मुंबई से नहीं हो जाती. मोहन भागवत के लिए यह क्षण बहुत ही महत्वपूर्ण था. उन्हें फैसला लेना था कि वह आगे क्या करें. भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी मुंबई में बिना नरेंद्र मोदी के एक दिन चली. मोहन भागवत समझ गए कि अगर उन्होंने अभी नरेंद्र मोदी के बारे में नई रणनीति नहीं बनाई, तो भारतीय जनता पार्टी में हस्तक्षेप करने का मौक़ा संघ के हाथ से चला जाएगा. मोहन भागवत ने फौरन संजय जोशी का बलिदान देने का निर्णय ले लिया. उन्होंने एक तरफ़ संजय जोशी से भारतीय जनता पार्टी से त्याग-पत्र देने के लिए कहा और दूसरी तरफ़ खुद फोन करके नरेंद्र मोदी से मुंबई अधिवेशन में शामिल होने के लिए कहा. इसके लिए उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी को निर्देश दिए. संजय जोशी की बलि लेते ही देश में भारतीय जनता पार्टी के क्षितिज पर नरेंद्र मोदी नाम का सितारा उदय हो गया.
दरअसल, अपनी साधु वृत्ति के साथ राजनीतिक संरचना का कौशल मिलाने वाले मोहन भागवत चाणक्य के बाद दूसरे ऐसे साधु पुरुष के रूप में जाने गए, जिन्हें खुद सत्ता की आकांक्षा नहीं थी, लेकिन जो देश के भविष्य को संघ की सोच के साथ जुड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी को तैयार कर रहे थे. उन्हें लगा कि यही वह क्षण है, जब वह नरेंद्र मोदी नाम के हथियार से भारतीय जनता पार्टी में अब तक जमा सत्ता के केंद्र को बदल सकते हैं. उन्होंने संघ के कुछ विश्‍वस्त प्रचारकों के ज़रिये लालकृष्ण आडवाणी को लेकर वातावरण बनाना शुरू कर दिया कि अब आडवाणी युग गया और नया युग आने वाला है. उस नए युग में उन्होंने मोदी का भी नाम फेंका, नितिन गडकरी का भी नाम फेंका और राजनाथ सिंह का भी नाम फेंका. नितिन गडकरी चूंकि नागपुर के थे, संघ के हर बड़े नेता के साथ उनका गहरा रिश्ता था और खासकर मोहन भागवत उन्हें बहुत ज़्यादा पसंद करते थे. वह संघ के नागपुर केंद्र के लिए सारी सुविधाओं का भी ख्याल रखते थे. पर नितिन गडकरी भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए. उनके द्वारा संचालित कुछ कंपनियों को लेकर तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम और उस समय के भारतीय जनता पार्टी के कुछ प्रभावशाली लोगों की दोस्ती ने उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए विवश किया और तब धीरे से राजनाथ सिंह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने. मोहन भागवत को नितिन गडकरी का जाना बहुत अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन उन्होंने इसे भी रणनीति के तहत स्वीकार कर लिया और नितिन गडकरी को यह आश्‍वासन दिया कि जैसे ही उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आर्थिक घोटालों के आरोपों से उन्हें मुक्ति मिलेगी, वैसे ही उन्हें फिर भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाएगा.

अभी तक कोई भी ऐसी रिपोर्ट नहीं आई है कि नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान किसने संचालित किया, कैसे चला, कितने पैसे खर्च हुए और कैसे सारा मीडिया उन्हें देश में राजनीति के धूमकेतु के रूप में प्रस्तुत करने में लग गया? कैसे मीडिया ने नरेंद्र मोदी को आंधी के रूप में परिभाषित कर दिया? संभवत: इतने बड़े बहुमत की कल्पना खुद संघ और नरेंद्र मोदी ने नहीं की थी, इसीलिए उन्होंने बहुत बाद में मिशन 272 बनाया. चुनाव अभियान के आधे समय तक मिशन 272 कहीं पर भी भारतीय जनता पार्टी की प्रचार योजना में नहीं था. इतने बड़े बहुमत के बाद मोहन भागवत को एक नया डर लगा.

लेकिन, राजनीति में कोई भी काम गणित के हिसाब से नहीं होता. श्री नितिन गडकरी को अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों में आर्थिक अपराध के सवाल पर क्लीन चिट पाने में वक्त लग गया और इस बीच नरेंद्र मोदी ने गुजरात से अपने कैंपेन का प्रारंभिक चरण शुरू कर दिया. उन्होंने इतनी होशियारी से संघ पर दबाव बनाया कि वह उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे. नरेंद्र मोदी को डर था कि दिल्ली में रहने की वजह से कहीं संघ आडवाणी जी के दबाव में राजनाथ सिंह को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न बना डाले. उनकी दबाव की उस रणनीति को दिल्ली में बैठे लालकृष्ण आडवाणी नहीं समझ पाए. मुरली मनोहर जोशी निश्ंिचत थे कि अगर आडवाणी जी को संघ हटाता है, तो वह उनके ऊपर हाथ रखेगा. और, वह जब-जब मोहन भागवत से मिले, उन्होंने उन्हें यही इशारा दिया. लेकिन अचानक यह हवा चल पड़ी कि संघ दिल्ली में बैठे नेताओं के वर्चस्व को भारतीय जनता पार्टी के ऊपर से ख़त्म करना चाहता है और इसमें नाम वही सामने थे, श्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू आदि-आदि. अरुण जेटली ने जैसे ही इस स्थिति को भांपा, एक कुशल वकील की तरह उन्होंने अपना पाला बदल लिया. उनकी पहले से नरेंद्र मोदी से अंतरंगता थी. अब उन्होंने पूर्णतया नरेंद्र मोदी के व्यक्ति के रूप में दिल्ली में काम करना शुरू कर दिया. एक वक्तथा, जब अरुण जेटली, अमर सिंह और नरेंद्र मोदी की तिकड़ी लगभग हर पंद्रह दिन में दिल्ली में बैठती थी और खुुफिया तौर पर देश की राजनीति का विश्‍लेषण करती थी.

मोहन भागवत के दिमाग में एक निष्ठुर योजना आई. उन्होंने नरेंद्र मोदी की वे सारी चीजें भुला दीं, जो उन्होंने गुजरात के संघ के लोगों के साथ की थीं और यह भी भुला दिया कि कैसे उन्होंने संघ की इच्छाओं की अवहेलना की थी. उन्होंने नरेंद्र मोदी को आगे कर सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा के बारे में भारतीय जनता पार्टी में लगभग यह साफ़ कर दिया कि इन्हें अगली बार टिकट नहीं मिलने वाला और उसी समय 75 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों को टिकट न दिया जाए, जैसी बात आई. किन लोगों को किसी क़ीमत पर टिकट नहीं दिया जाएगा, यह बात निकली. और, ये सारी चीजें भारतीय जनता पार्टी में आश्‍चर्य के साथ देखी गईं और इनकी जगह लेने वाले नेताओं के मन को उल्लास से भर गईं. नरेंद्र मोदी ने इस पूरी स्थिति को अपने अनुकूल ढालकर यह शर्त रखी कि उन्हें अगर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित किया जाता है, तो कैंपेन कमेटी या प्रचार समिति का प्रमुख बनाया जाए और यह घोषणा की जाए कि प्रचार समिति का प्रमुख ही अगला प्रधानमंत्री होगा. बिना घोषणा किए यह बात सारे देश में फैल गई.

अपनी साधु वृत्ति के साथ राजनीतिक संरचना का कौशल मिलाने वाले मोहन भागवत चाणक्य के बाद दूसरे ऐसे साधु पुरुष के रूप में जाने गए, जिन्हें खुद सत्ता की आकांक्षा नहीं थी, लेकिन जो देश के भविष्य को संघ की सोच के साथ जुड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी को तैयार कर रहे थे. उन्हें लगा कि यही वह क्षण है, जब वह नरेंद्र मोदी नाम के हथियार से भारतीय जनता पार्टी में अब तक जमा सत्ता के केंद्र को बदल सकते हैं. उन्होंने संघ के कुछ विश्‍वस्त प्रचारकों के ज़रिये लालकृष्ण आडवाणी को लेकर वातावरण बनाना शुरू कर दिया कि अब आडवाणी युग गया और नया युग आने वाला है.

नरेंद्र मोदी ने यहां से श्री मोहन भागवत को अपने संपर्क में लेना शुरू किया और उन्हें यह आश्‍वासन दिया कि आधे उम्मीदवार उनकी (मोदी) अपनी राय के हों और आधे उम्मीदवार, जिन्हें संघ या भाजपा चाहे, वे हों. नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे विश्‍वस्त व्यक्ति को उत्तर प्रदेश का इंचार्ज बनवा दिया और उसे पार्लियामेंट्री बोेर्ड में भी ले लिया. नरेंद्र मोदी की संपूर्ण प्रचार योजना को श्री मोहन भागवत का समर्थन प्राप्त था और श्री मोहन भागवत ने सफलतापूर्वक भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व परिवर्तन का काम कर दिया. अब लगभग सबके सामने साफ़ हो गया कि आने वाला वक्त नरेंद्र मोदी का है और संघ जिसे चाहेगा, उसे फिलहाल नरेंद्र मोदी के साथ काम करने का मा़ैका मिलेगा. इसलिए सारे लोग लालकृष्ण आडवाणी का दरवाजा छोड़कर नरेंद्र मोदी के
दरवाजे पर हाजिरी देने लगे.
इसके बाद का काम मोहन भागवत का नहीं था, नरेंद्र मोदी का था और उन्होंने जिस कुशलता के साथ अपना चुनाव प्रचार अभियान चलाया, देश में मीटिंगें कीं, जिस तरह के वादे किए और हर उस बिंदु का अपने पक्ष में विश्‍लेषण किया, जिसकी वजह से कांग्रेस कठघरे में खड़ी होती थी, वह एक इतिहास बन गया. अभी तक कोई भी ऐसी रिपोर्ट नहीं आई है कि नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान किसने संचालित किया, कैसे चला, कितने पैसे खर्च हुए और कैसे सारा मीडिया उन्हें देश में राजनीति के धूमकेतु के रूप में प्रस्तुत करने में लग गया? कैसे मीडिया ने नरेंद्र मोदी को आंधी के रूप में परिभाषित कर दिया? संभवत: इतने बड़े बहुमत की कल्पना खुद संघ और नरेंद्र मोदी ने नहीं की थी, इसीलिए उन्होंने बहुत बाद में मिशन 272 बनाया. चुनाव अभियान के आधे समय तक मिशन 272 कहीं पर भी भारतीय जनता पार्टी की प्रचार योजना में नहीं था. इतने बड़े बहुमत के बाद मोहन भागवत को एक नया डर लगा. उन्हें लगा कि जीत को स्थायी कैसे किया जाए और जीत को अगर स्थायी न किया गया, तो पार्टी के भीतर विद्रोह हो न हो, जनता में विद्रोह पैदा हो सकता है. इसलिए उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर एक नई रणनीति बनाई, जिसके ऊपर इन दिनों अमल हो रहा है. मोहन भागवत की दूसरी सबसे बड़ी चिंता भारतीय जनता पार्टी और संघ के नेताओं में सत्ता का अहंकार न पैदा होने देना तथा सत्ता से उपजे स्वाभाविक भ्रष्टाचार का हिस्सेदार न होने देना है. और, इन दिनों उनकी सारी सोच इन्हीं दोनों बिंदुओं के इर्द-गिर्द चल रही है.


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