संभालिए, अभी कुछ बिगडा़ नहीं है

jab-top-mukabil-ho1बहुत सारी चीजें अमेरिका में बनती हैं, अमेरिका में खुलती हैं, तब हमें पता चलता है कि हम किस तरह के जाल में कभी फंस चुके थे, इन दिनों फंस रहे हैं या आगे फंसने वाले हैं. हमारे देश की धुरंधर हस्तियां, जो लोगों की राय बनाती हैं, जिनमें जस्टिस राजेंद्र सच्चर, दिलीप पडगांवकर, उम्र के आखिरी पड़ाव पर खड़े प्रसिद्ध संपादक, लेखक एवं सोशल एक्टिविस्ट कुलदीप नैय्यर साहब और गौतम नवलखा शामिल हैं, जिन्होंने रूरल जर्नलिज्म और वैचारिक पत्रकारिता में नाम कमाया तथा इनके साथ बहुत सारे लोग एक साजिश में फंसे नजर आ रहे हैं, जिसका खुलासा अमेरिका में हुआ. आईएसआई भारत में ऐसे लोगों की तलाश में रहती है, जो सेक्युलर हों, निर्भीक हों, साथ ही जिनकी बात पर देश का एक बड़ा वर्ग विश्वास भी करता हो. अक्सर वह इस तलाश में सफल हो जाती है और उन्हें इस तरह संगठित करती है कि जो शिकार हो जाते हैं, उन्हें पता भी नहीं चलता कि वे अनजाने में देश के खिलाफ खड़े हो गए हैं. कश्मीर एक ऐसा विषय है, जिस पर हिंदुस्तान में दो राय हैं. एक राय यह है कि कश्मीर हिंदुस्तान का अविभाज्य अंग है और उसे हर कीमत पर हिंदुस्तान से जोड़कर रखना चाहिए. इसके लिए हमें सेना की जितनी भी मदद लेनी पड़े, लेनी चाहिए. दूसरी राय उन लोगों की है, जिनका कहना है कि कश्मीर हमारा है, लेकिन कश्मीरियों को उनका हक मिलना चाहिए, वहां से सेना की संख्या कम होनी चाहिए, विकास के काम होने चाहिए और ज्यादतियां नहीं होनी चाहिए. कश्मीर के लोगों को भी देश के दूसरे राज्यों की तरह विकसित होने का मौका मिलना चाहिए. पहली धारा के लोग फंडामेंटलिस्ट है और वे आईएसआई के काम के नहीं हैं. उसके काम के लोग दूसरी तरह के हैं. उसने सारी दुनिया में सेमिनार करने की योजना बनाई और उन लोगों को तलाशा, जो ऐसे सेमिनार कर सकें. ऐसे लोगों को छांट-छांटकर आमंत्रित किया, जो दूसरी धारा के हैं और कश्मीर को लेकर पॉजिटिव थिंकिंग रखते हैं. ये लोग सारी दुनिया में गए, लेकिन इन्हें यह समझ में नहीं आया कि जहां वे जा रहे हैं, वहां के लिए इन्हें एक्जीक्यूटिव क्लास की टिकटें कौन दे रहा है, फाइव स्टार होटल में कौन ठहरा रहा है? जो संगठन सेमिनार कर रहा है, क्या उसका घोषित उद्देश्य वही है जो उनके सामने आया है? उस संगठन के तार कहीं किसी दूसरे संगठन से तो नहीं जुड़े हैं? अफसोस इस बात का है कि ये सवाल गौर करने लायक हैं, लेकिन वे लोग जो सही हैं, ईमानदार हैं, वे इन चीजों पर ध्यान नहीं देते. परिणाम यह निकला कि आईएसआई ने एक कोशिश की कि सारी दुनिया में कश्मीर को लेकर भारत पर उंगली उठाई जाए और इसमें उसने उन भारतीयों को शामिल कर लिया, जो सचमुच सही पत्रकार या सही सोच वाले लोग हैं.

सरकार क्या कर रही है? उसके पास एक नेटवर्क है, अलग-अलग तरह की खुफिया एजेंसियां हैं और खुफिया एजेंसियों से इतर भी जानकारी के स्रोत हैं. वह इजरायल और सीआईए के साथ खुफिया जानकारी शेयर कर रही है. ऐसे में उसे आज तक यह क्यों नहीं पता चला कि दुनिया के वे कौन-कौन से संगठन हैं, जो हमारे देश के हितों के खिलाफ, यहां के लोगों को बरगला कर शामिल करते हैं और अपना हित साधते हैं. चाहे कश्मीर को लेकर, लोकतंत्र को लेकर या जिस तरीके के भी सारी दुनिया में सेमिनार होते हैं, उन्हें अगर हिंदुस्तान से बाहर का कोई संगठन आयोजित करता है तो उसके बारे में सरकार को क्यों पता नहीं होता? अभी जो अमेरिका में नेटवर्क पकड़ा गया, उसमें शामिल फाई, जो बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान में ही पढ़े-लिखे और अब अमेरिका में हैं, ने यह नेटवर्क कैसे बनाया, इस बारे में हिंदुस्तान की खुफिया एजेंसियों के पास जानकारी क्यों नहीं आई? यह गंभीर विषय है. 

ये सही सोच वाले लोग इस साजिश को नहीं पहचान पाए, लेकिन साजिश को न पहचान पाना और उसका हिस्सेदार बन जाना मासूमियत का नहीं, बेवकूफी का उदाहरण है. अफसोस इस बात का है कि ऐसी जगहों पर, जहां हम देश के बाहर होते हैं, वहां कोई ऐसी बात हो जिसमें भारत का नाम आए, उसके बुनियादी सवालों पर बातचीत हो, वहां हम बेवकूफी यह करते हैं कि देश के खिलाफ बोलने लगते हैं. शायद हमारे इन दोस्तों ने कई जगह पर ऐसा किया. मुझे लाहौर का एक किस्सा याद है. लाहौर में बाबा साहब अंबेडकर को लेकर एक सेमिनार हुआ, जिसमें हिंदुस्तान से कई लोग गए, जिनमें दक्षिण के एक दलित नेता भी थे, जो एक अखबार चलाते हैं और फायर ब्रांड माने जाते हैं. उस दलित नेता ने वहां हिंदुस्तान के हितों, आजादी के आंदोलन और देश के वजूद के खिलाफ बातें कहीं. उस शख्स को शर्म नहीं आई कि वह हिंदुस्तान के सहयोग से ही पाकिस्तान में था. जब हम देश के बाहर होते हैं तो हमें बोलते समय बहुत सावधानी रखनी चाहिए. यह न हो कि हम कुछ ऐसा बोल जाएं कि दूसरे देश में हमारा मजाक बन जाए. जब हम देश के खिलाफ बोलते हैं तो मजाक के पात्र होते हैं और किसी के हाथ में खेलने लगते हैं. हमारे इन दोस्तों ने कश्मीर या दुनिया में जो सेमिनार होते हैं, उनमें जाकर यही किया. इन्होंने हिंदुस्तान के हितों के खिलाफ दूसरे देश के हितों का समर्थन किया. आईएसआई यही चाहती थी कि कश्मीर को लेकर भारत के ही लोग तल्ख अंदाज में बोलें. कभी भी हमारे दोस्तों की समझ में यह नहीं आया कि जितनी गड़बड़ियां उस कश्मीर में हैं जो हिंदुस्तान के साथ है, शायद उससे ज्यादा गड़बड़ियां उस कश्मीर में हैं जो पाकिस्तान के साथ है. इन दोस्तों ने कभी पाकिस्तान के साथ वाले कश्मीर और मुजफ्फराबाद में जाकर देखने की कोई कोशिश नहीं की, कभी यह मांग नहीं की कि हम जब इस्लामाबाद या कराची आते हैं तो हमें मुजफ्फराबाद भी जाने की इजाजत दी जाए. अगर इजाजत नहीं मिलेगी तो हम कराची या इस्लामाबाद नहीं जाएंगे. लेकिन कुलदीप नैय्यर साहब हों या बाकी साथी, इन्हें पाकिस्तान जाने की इतनी जल्दी रहती है कि जैसे अगर ये नहीं गए तो इनके सेकुलरिज्म पर कोई चोट पहुंचेगी या लोग इन्हें सेकुलर मानने से मना कर देंगे. सेकुलरिज्म का मतलब कम्युनलिज्म का साथ देना नहीं है, देश के हितों के खिलाफ बोलना भी नहीं है. अपने देश में सेकुलरिज्म के लिए लड़ना एक बात है और इसे लेकर सारी दुनिया में अपने देश को बदनाम करना बिल्कुल दूसरी चीज है. हिंदुस्तान सेकुलर मुल्क है, यहां की सरकार सेकुलर आदर्शों पर चलती है, यहां मुसलमान सुरक्षित हैं. उतने सुरक्षित हैं, जितना दूसरे देशों में नहीं हैं. यहां के मुसलमान देश के साथ हैं, वे दूसरे देशों के मुसलमानों की तरह नहीं हैं, जो रहते कहीं हैं और उनके हित कहीं और जुड़े होते हैं. ये पॉजिटिव चीजें हिंदुस्तान के इथोज़ में हैं, संस्कृति में हैं और यहां के हिंदुओं एवं मुसलमानों की मिली-जुली गंगा-जमुनी संस्कृति में रची-बसी हैं. इन चीजों के बारे में सारी दुनिया में न बोलना और इन इथोज़ के खिलाफ माहौल बनाना शायद हिंदुस्तान के हितों के खिलाफ बोलना माना जा सकता है. सरकार क्या कर रही है? उसके पास एक नेटवर्क है, अलग-अलग तरह की खुफिया एजेंसियां हैं और खुफिया एजेंसियों से इतर भी जानकारी के स्रोत हैं. वह इजरायल और सीआईए के साथ खुफिया जानकारी शेयर कर रही है. ऐसे में उसे आज तक यह क्यों नहीं पता चला कि दुनिया के वे कौन-कौन से संगठन हैं, जो हमारे देश के हितों के खिलाफ, यहां के लोगों को बरगला कर शामिल करते हैं और अपना हित साधते हैं. चाहे कश्मीर को लेकर, लोकतंत्र को लेकर या जिस तरीके के भी सारी दुनिया में सेमिनार होते हैं, उन्हें अगर हिंदुस्तान से बाहर का कोई संगठन आयोजित करता है तो उसके बारे में सरकार को क्यों पता नहीं होता? अभी जो अमेरिका में नेटवर्क पकड़ा गया, उसमें शामिल फाई, जो बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान में ही पढ़े-लिखे और अब अमेरिका में हैं, ने यह नेटवर्क कैसे बनाया, इस बारे में हिंदुस्तान की खुफिया एजेंसियों के पास जानकारी क्यों नहीं आई? यह गंभीर विषय है. अगर सरकार के पास उन संगठनों की जानकारी या विवरण नहीं होगा, कुंडली नहीं होगी, जो देश के हितों के खिलाफ या उन विषयों पर सेमिनार आयोजित करते हैं, जिन पर देश के बुद्धिजीवी उत्तेजित होते हैं, तो वह किस तरह लोगों को चेतावनी दे पाएगी कि आपकी राय सही है. आप अपनी राय देश में लिखिए, यहां अखबार हैं, टेलीविजन है, पब्लिक मीटिंग है. लेकिन आप बाहर जिस मंच पर जा रहे हैं, वह आईएसआई सर्पोटेड है या किसी और मुल्क द्वारा सर्पोटेड है. उसका फाइनेंस वहां से आता है. सरकार उन लोगों को, जो इनमें शामिल हैं, शामिल होना चाहते हैं या शामिल हुए हैं, एक बार चेतावनी तो देती, लेकिन उसने किसी को चेतावनी नहीं दी. गृहमंत्री ने दिलीप पडगांवकर के बचाव में खुलकर कहा कि वह जिस सेमिनार में गए, कश्मीर में वार्ताकार बनने से पहले गए. इसका मतलब यह है कि आपके पास उस संगठन के बारे में न तब कोई जानकारी थी और न शायद अब कोई जानकारी है. जरूरत इस बात की है कि सरकार देश को लेकर गंभीर हो, सरकारी एजेंसियां गंभीर हों. जो देशभक्त हैं, देश की समस्याओं को लेकर चिंतित हैं, चेतावनी देते हैं, हल बताते हैं, ऐसे लोगों पर नज़र रखने और उनके टेलीफोन टेप करने से ज़्यादा जरूरी है उन लोगों पर नजर रखना, जो उन संगठनों के जाल में फंस सकते हैं, जो देश के हितों के खिलाफ सारी दुनिया में काम कर रहे हैं. हमारे उन सभी लोगों को, जो देश के बाहर किसी भी ऐसे सेमिनार या सभा में जाते हैं, जिसका रिश्ता देश की किसी समस्या से है, जाने से पहले अवश्य पता कर लेना चाहिए कि वह संगठन आखिर है क्या? जब वे वहां जाएं तो बहुत नपा-तुला बोलें. ऐसा न करें कि अपनी ही एक आंख फोड़ लें, इस उत्तेजना या भ्रम में कि वे मानवता के लिए हाथ उठा रहे हैं, जबकि उनका हाथ उनके देश के हितों के खिलाफ उठ रहा है. सांप्रदायिक विचारधारा वाले संगठन उन संगठनों को बढ़ावा देते हैं, जो बुनियादी सवालों पर बाहर सेमिनार या सभाएं करते हैं. उन्हें जब फाइनेंस मिलता है, तब वे यह नहीं देखते कि फाइनेंस आ कहां से रहा है. वे सेमिनार के लिए फाइनेंसर तलाशते हैं और जो भी फाइनेंस कर दे, उसके लिए काम करते हैं. सरकार को इनकी जानकारी रखनी चाहिए और उन लोगों को वक्त रहते चेताना चाहिए, जो इस देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वरिष्ठ संपादक हैं, ओपीनियन मेकर हैं और देशद्रोही नहीं हैं. उन्हें समझाना-बताना चाहिए कि आप जहां जा रहे हैं, उस संगठन की असलियत यह है. अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे देश के वे लोग, जो सचमुच पत्रकारिता में, समझ में नाम कमा चुके हैं, ऐसे जाल में नहीं फंसते और आज उन्हें शर्म से अपना मुंह छुपाने और टेलीविजन पर आकर माफी मांगने की जरूरत नहीं पड़ती कि हम क्षमा चाहते हैं, हम नहीं जानते थे कि जिसके आमंत्रण पर सेमिनार में गए, वह आईएसआई फंडेड है. अमेरिका से यह खबर बाहर आई. अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने पहले यह जानकारी हिंदुस्तान को क्यों नहीं दी, यह सरकार जाने, लेकिन अगर सरकार थोड़ी सी गंभीर हो जाए तो हम बहुत सारी शर्मनाक स्थितियों से बच सकते हैं.


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