भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को समझे बिना आने वाले समय में क्या होगा, इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता. भारतीय जनता पार्टी संसद में प्रमुख विपक्षी पार्टी है और कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी, जो 2014 के चुनाव में दिल्ली की गद्दी पर दांव लगाने वाली है, इस समय सबसे ज़्यादा परेशान दिखाई दे रही है. यशवंत सिन्हा, गुरुमूर्ति, अरुण जेटली, नरेंद्र मोदी एवं लालकृष्ण आडवाणी के साथ सुरेश सोनी ऐसे नाम हैं, जो केवल नाम नहीं हैं, बल्कि ये भारतीय जनता पार्टी में चल रहे अवरोधों, गतिरोधों, अंतर्विरोधों और भारतीय जनता पार्टी पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश करने वाली तोपों के नाम हैं. एस गुरुमूर्ति चेन्नई में रहते हैं, बड़े चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काफ़ी सालों से दिमाग़ माने जाते हैं. गुरुमूर्ति ने अपनी सार्वजनिक ज़िंदगी इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी स्वर्गीय रामनाथ गोयनका के साथ शुरू की और वहीं से उनका संपर्क नानाजी देशमुख से हुआ. नानाजी देशमुख के ज़रिए वह तत्कालीन संघ नेतृत्व के नज़दीक आए और संघ को उनका विश्लेषण करने का तरीक़ा, उनके संपर्क सूत्र और उनकी सादगी पसंद आ गई. तबसे अब तक संघ के कई सरसंघ चालक बदले, लेकिन गुरुमूर्ति का स्थान वही बना रहा. वह स़िर्फ दो बार असफल हुए, पहली बार गोविंदाचार्य को लेकर, जब वह उन्हें बचा नहीं पाए और दूसरी बार संजय जोशी को लेकर, जब वह संजय जोशी को बचा नहीं पाए, लेकिन न बचा पाने के भी अलग कारण हैं. गुरुमूर्ति ने पांच साल पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की बिसात बिछा दी थी. वह सबसे पहले राम जेठमलानी को राज्यसभा में इसलिए लाए, क्योंकि उन्हें लगा कि राम जेठमलानी से बेहतर वकालत नरेंद्र मोदी की कोई और नहीं कर सकता. जब गुरुमूर्ति को लगा कि स्वयं नितिन गडकरी में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाग उठी है तो उन्होंने सबसे पहले नितिन गडकरी की कंपनियों का ख़ुलासा अरविंद केजरीवाल के ज़रिए करा दिया. अभी तक यह रहस्य है कि गुरुमूर्ति के सूत्रों ने कैसे सारे काग़ज़ अरविंद केजरीवाल के पास पहुंचाए, क्योंकि अरविंद केजरीवाल और गुरुमूर्ति में कोई सीधा या टेढ़ा रिश्ता नहीं है. इसके बाद गुरुमूर्ति ने महेश जेठमलानी से नितिन गडकरी का इस्तीफ़ा मंगवाया. महेश जेठमलानी देश के मशहूर वकील राम जेठमलानी के पुत्र हैं और ख़ुद बड़े वकील हैं. वह भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी के सदस्य हैं और गुजरात के भूतपूर्व मंत्री अमित शाह के वकील भी हैं. महेश जेठमलानी ने भाजपा की कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा देने की घोषणा की और नितिन गडकरी का इस्तीफ़ा मांग लिया. महेश जेठमलानी ने यह काम अपने पिता राम जेठमलानी और गुरुमूर्ति की सलाह पर किया. इसके बाद राम जेठमलानी ने गडकरी को हटाने के लिए एक अभियान सा छेड़ दिया. वह कई भाजपा नेताओं के पास गए, लेकिन किसी ने उनका खुलकर साथ नहीं दिया.
एस गुरुमूर्ति चेन्नई में रहते हैं, बड़े चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काफ़ी सालों से दिमाग़ माने जाते हैं. गुरुमूर्ति ने अपनी सार्वजनिक ज़िंदगी इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी स्वर्गीय रामनाथ गोयनका के साथ शुरू की और वहीं से उनके संपर्क नानाजी देशमुख से हुए.
नितिन गडकरी के संपूर्ण राजनीतिक क्रियाकलापों और उनकी कंपनियों के ख़ुलासे के बाद बनी स्थिति पर बात करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के नेता अलग-अलग मिल रहे थे. भारतीय जनता पार्टी के भूतपूर्व मंत्री एवं उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जसवंत सिंह के घर पर यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा मिले, जहां उनमें भारतीय जनता पार्टी की स्थिति को लेकर गंभीर बातचीत हुई. ये तीनों इस बात से चिंतित थे कि जहां भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आते दिखना चाहिए था, वहां भारतीय जनता पार्टी बहुत पीछे खिसकती दिखाई दे रही है. इस बैठक के बाद जसवंत सिंह ने एक लंबा और राजनीतिक तकलीफ को बताने वाला पत्र लालकृष्ण आडवाणी को लिखा, जिसमें उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से आग्रह किया कि उन्हें इस स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए. आडवाणी जी ने पत्र को पढ़कर जसवंत सिंह को फोन किया और कहा कि उन्हें यह पत्र गुप्त रखना चाहिए और किसी को बताना नहीं चाहिए, लेकिन स्वयं उन्होंने भाजपा के कुछ नेताओं को यह बात बता दी. जब राम जेठमलानी जसवंत सिंह से मिलने गए, तो जसवंत सिंह ने इस पत्र की चर्चा उनसे कर दी. राम जेठमलानी ने उसी दिन शाम प्रेस वालों से इस तरह बात की, मानो जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा का एक गु्रप उनके नेतृत्व में बन गया है. जबकि हक़ीक़त यह थी कि उस समय तक ये तीनों क्या करें-क्या न करें की उधेड़बुन में थे. पर इन तीनों ने तय कर लिया था कि भारतीय जनता पार्टी को इस जड़ता की स्थिति से निकालने के लिए कुछ न कुछ उन्हें ज़रूर करना होगा. यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि ये संघ से जुड़े हुए नहीं हैं. इतने सालों में भी इनका रिश्ता संघ से नहीं जुड़ पाया है. ये अटल जी की सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन संघ ने कभी इन्हें अपना नहीं माना. संघ ने यह भी तय कर लिया है कि इन तीनों को अगली बार पार्टी का टिकट नहीं देना है. इन सारी स्थितियों के बीच इन तीनों ने यह तय किया कि वे पार्टी को बचाने की एक कोशिश करेंगे और इसके लिए इन तीनों ने पहले तो अलग-अलग आडवाणी जी से बात की और बाद में एक साथ आडवाणी जी से मिले. उसके बाद जसवंत सिंह ने दो बार आडवाणी जी से मिलकर कहा कि वह अगर अब भी चुप रहे तो पार्टी बर्बाद हो जाएगी. इन तीनों ने आडवाणी जी से यह भी कहा कि उन्हें मोहन जी यानी मोहन भागवत जी यानी सरसंघ चालक से तत्काल बात करनी चाहिए. इन तीनों में एक ने यहां तक आडवाणी जी से कहा कि आप अभी फ़ोन उठाइए और मोहन जी से बात कीजिए. लेकिन आडवाणी जी ने अपने एक विश्वस्त साथी से कहा कि मैं इस उम्र में संघ से अलग नहीं जाऊंगा. उस व्यक्ति ने आडवाणी जी से पूछा कि और देश का क्या होगा? आडवाणी जी ख़ामोश रहे. आडवाणी जी की एक मानसिक परेशानी है. मोहन भागवत सहित संघ के सारे नेता आडवाणी जी से आयु में, अनुभव में और समझ में छोटे हैं. आडवाणी जी अपनी तरफ़ से उनसे बात करना अपनी गरिमा के अनुकूल नहीं मानते. इसलिए शायद ही ऐसा कोई अवसर आया हो, जब उन्होंने मोहन भागवत से अपनी तरफ़ से बात की हो. संघ यह चाहता है कि आडवाणी जी राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दें. कई बार ऐसे इशारे मिलने के बाद भी आडवाणी जी ने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर वह इस चुनाव से हट गए तो भारतीय जनता पार्टी की स्थिति बहुत ख़राब हो सकती है. संघ ने जब नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया था, तो उसने एक नया प्रयोग किया था. उसका मानना था कि दिल्ली में बैठे नेताओं, जिनमें पहला नाम लालकृष्ण आडवाणी का था, में से किसी को भी अब भाजपा का अध्यक्ष नहीं बनाना है. इसीलिए उसने नितिन गडकरी का अंधा समर्थन किया. नितिन गडकरी ख़ुद नागपुर के हैं और महाराष्ट्र में भाजपा सरकार में मंत्री रहे हैं. यह माना जाता है कि नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में धोबी से लेकर ड्राइवर तक के ख़र्च नितिन गडकरी ही उठाते रहे हैं, लेकिन नितिन गडकरी राजनीतिक रूप से अपना वर्चस्व भाजपा में स्थापित नहीं कर पाए. दिल्ली की राजनीति करने वाले लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू और अनंत कुमार ने उन्हें कभी इस लायक़ नहीं माना कि वह उनसे राजनीतिक विषयों पर चर्चा कर सकते हैं. अपने पूरे कार्यकाल के दौरान नितिन गडकरी कूरियर ब्वाय ही बने रहे.
संघ की नीतियों और भारतीय जनता पार्टी में सर्वमान्य नेता न होने की वजह से जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता मायूस हो गया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी में क्षत्रप पैदा हो गए हैं. शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, प्रेम कुमार धूमल और वसुंधरा राजे आदि किसी की नहीं सुनते. कर्नाटक के येदियुरप्पा तो सरकार गिराने तक के लिए तैयार हैं और उन्होंने पार्टी तक छोड़ दी है.
संघ के भीतर फिर एक विचार हुआ कि क्या नरेंद्र मोदी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. उन्हें लगा कि शायद नितिन गडकरी वह रिज़ल्ट न दे पाएं, जो रिज़ल्ट भारतीय जनता पार्टी को चाहिए. इसीलिए संघ के कार्यपालक अधिकारी सुरेश सोनी ने संघ की बैठक में यह कहा कि अरुण जेटली को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाना चाहिए और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार. सुरेश सोनी का यह बयान संघ के नेताओं की सोच का संकेत देता है, लेकिन अभी तक संघ के बाक़ी नेताओं की प्रतिक्रिया आनी बाक़ी है. 20 दिसंबर को गुजरात का रिज़ल्ट भी आएगा. अगर नरेंद्र मोदी ने अपना मौजूदा समर्थन बनाए रखा, तब एक फैसला होगा और उन्हें मिलने वाले वोटों का प्रतिशत गिर जाता है या फिर उनकी सीटें कम हो जाती हैं तो फिर एक तरह का फैसला होगा. नरेंद्र मोदी पिछली बार 30 चुनाव क्षेत्रों में 2 हज़ार के आसपास के बहुमत से जीते थे. अगर केशुभाई पटेल की वजह से उनकी सीटें कम हो जाती हैं तो फिर संघ के सामने परेशानी खड़ी हो जाएगी. संघ नरेंद्र मोदी के नाम पर स़िर्फ इसलिए सोच रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से उसे हिंदुओं को पोलराइज़ करने में आसानी होगी. साथ ही संघ को यह भी लगता है कि नरेंद्र मोदी अच्छे प्रशासक हैं, इसका भी फ़ायदा उन्हें मिलेगा. अरुण जेटली ने सबसे ज़्यादा समझ-बूझकर बिसात बिछाई. जिन अरुण जेटली को संघ अब तक एक मैनेजर के रूप में देखता था, उसी संघ को अरुण जेटली ने इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि संघ उन्हें भी अध्यक्ष बनाने के बारे में सोचे. संघ अगर ऐसा करता है तो उसे भूल सुधार के रूप में देखा जाएगा. हालांकि कुछ लोग यह भी कहते हैं कि दिल्ली में बैठे किसी भी नेता को, जिसे संघ ने डी-फोर कहा था, अब अगर अध्यक्ष बनाया जाता है तो उसे संघ का थूककर चाटना कहा जाएगा और संघ की राजनीतिक अपरिपक्वता भी कहा जाएगा. अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी में पुरानी दोस्ती भी है, समझदारी भी है और व्यवहारिकता भी है. इसलिए अगर अरुण जेटली प्रधानमंत्री पद का मोह छोड़ दें तो उनका और नरेंद्र मोदी का सफल गठजोड़ बन सकता है. नरेंद्र मोदी का समर्थन करने वाले भारत के बड़े पूंजीपति घराने जितने हैं, उनसे ज़्यादा घराने अरुण जेटली का समर्थन करते हैं. लालकृष्ण आडवाणी इस सारी लड़ाई में अलग-थलग पड़ गए हैं. उनका समर्थन स़िर्फ वे लोग कर रहे हैं, जो संघ से जुड़े नहीं हैं और जिनकी राजनीतिक ज़िंदगी भारतीय जनता पार्टी की सफलता और असफलता पर टिकी हुई है. संघ का राजनीतिक चेहरा सुरेश सोनी हैं, लेकिन सुरेश सोनी की समझ पर भारतीय जनता पार्टी में बहुतों को संदेह है. इनमें नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं, सुषमा स्वराज भी, अरुण जेटली भी और बचे हुए बाक़ी नेता भी, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी का निर्णायक नेता माना जाता है. दूसरी तरफ़ संघ के बारे में यह कहा जाता है कि उसने मुसीबत में किसी का साथ नहीं दिया है. बात अटल बिहारी वाजपेयी से शुरू करते हैं. सन् 80 में अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन संघ ने किया, लेकिन जब बाबरी मस्जिद टूटी तो अटल बिहारी वाजपेयी का साथ संघ ने छोड़ दिया. संघ की शह पर राजनाथ सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी का इस्तीफ़ा तक मांग लिया. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री अपने चेहरे और समझ की वजह से बने, न कि संघ के समर्थन की वजह से. दूसरा नाम लालकृष्ण आडवाणी का है, जिन्होंने पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार पर जो लिखा, वह सही लिखा था, लेकिन संघ ने संजय जोशी को भेजकर आडवाणी का इस्तीफ़ा ले लिया और जब संजय जोशी का विरोध नरेंद्र मोदी ने किया तो उसने संजय जोशी को अकेला छोड़ दिया. ऐसे कई सारे नाम हैं, जिनमें शांता कुमार, कल्याण सिंह, उमा भारती एवं मदन लाल ख़ुराना भी शामिल हैं. भाजपा में एक कहावत है कि जो भी संघ के चरणों में गया, वह उसके चरणों के नीचे आ गया. इस तथ्य की सत्यता को आडवाणी जी के अलावा और कौन ज़्यादा समझ सकता है. संघ की नीतियों और भारतीय जनता पार्टी में सर्वमान्य नेता न होने की वजह से जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता मायूस हो गया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी में क्षत्रप पैदा हो गए हैं. शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, प्रेम कुमार धूमल और वसुंधरा राजे आदि किसी की नहीं सुनते. कर्नाटक के येदियुरप्पा तो सरकार गिराने तक के लिए तैयार हैं और उन्होंने पार्टी तक छोड़ दी है. केंद्रीय नेतृत्व के नाम पर जो जाने जाते हैं, उनमें नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज एवं अरुण जेटली के ही नाम आते हैं और इन तीनों को राज्यों के क्षत्रपों के सामने हमेशा गिड़गिड़ाना पड़ता है. एक और नाम है, जो भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष हो सकता है और वह नाम है मुरली मनोहर जोशी का. मुरली मनोहर जोशी स़िर्फ एक बार भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने हैं, लेकिन उनके कार्य करने की शैली से भारतीय जनता पार्टी के अधिकांश नेता प्रसन्न नहीं हैं, क्योंकि जब वह अध्यक्ष थे तो किसी की नहीं सुनते थे. लेकिन मुरली मनोहर जोशी के भी अध्यक्ष बनने में संघ का एक सिद्धांत बाधक बन गया है और वह सिद्धांत है कि 75 वर्ष से ऊपर की उम्र के लोगों को राजनीति से हट जाना चाहिए. राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू, अनंत कुमार और सुषमा स्वराज का एक ही उद्देश्य है कि किसी तरह पहले नितिन गडकरी अध्यक्ष पद से हटें और जब यह हटेंगे, तभी आगे की राह खुलेगी. आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं नेताओं, ख़ासकर वे नेता, जो भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में जिताते हैं, उनकी साफ़ राय है कि इन चुनावों के लिए लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी की कमान सौंप देनी चाहिए. उन्हें लालकृष्ण आडवाणी के अलावा कोई और रास्ता नज़र नहीं आता, लेकिन यहां भी संघ का वही नियम आड़े आता दिखाई दे रहा है, जो कहता है कि 75 साल से ऊपर के लोगों को भाजपा की राजनीति से रिटायर हो जाना चाहिए और आडवाणी जी तो 80 पार कर चुके हैं. गुरुमूर्ति ने एक तरफ़ नितिन गडकरी के ख़िलाफ़ सारा माहौल बनाया, लोगों को खड़ा किया और दूसरी तरफ़ सार्वजनिक रूप से नितिन गडकरी को तथाकथित क्लीन चिट भी दे दी. इसलिए माना जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी की गुत्थी को उलझाने और सुलझाने के खेल में सबसे माहिर खिलाड़ी गुरुमूर्ति हैं. पर इस सारी क़वायद में सबसे ज़्यादा मनोबल भारतीय जनता पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं का टूटा है, क्योंकि उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि अपनी आंख में ख़ुद धूल झोंकने में कांग्रेस अव्वल है या उनकी ख़ुद की पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी. कार्यकर्ता यह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि राम का नाम लेने वाली पार्टी और रामराज्य को आदर्श मानने वाली पार्टी क्यों राम के इस उदाहरण को नहीं मानती कि अगर समाज में राजा को लेकर संदेह पैदा हो जाए तो राजा को संदेह का कारण हटा देना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने यह भी भुला दिया कि स़िर्फ एक धोबी के कहने पर राम ने सीता का त्याग कर दिया था.