राजनीतिज्ञों से डरना चाहिए

jab-top-mukabil-ho1राजनीतिज्ञों से डरना चाहिए. पिछले एक महीने की घटी घटनाएं तो यही कह रही हैं. अब वह राजनीतिज्ञ चाहे समाजवादी पार्टी का हो, भारतीय जनता पार्टी का हो या फिर वह कांग्रेस का हो. राजनीतिज्ञ कब क्या करे, कैसे करे, इसके उदाहरण पिछले एक महीने में हमारे सामने बहुत ही खुलेपन के साथ आए हैं. अन्ना हजारे का उदाहरण लिया जा सकता है, जो बिल्कुल यह समझने में आसानी पैदा करेगा कि राजनीतिज्ञों से क्यों डरना चाहिए. अन्ना हजारे ने एक आंदोलन किया. उनके साथ कुछ लोग आए. ज़ाहिर है उसमें पुलिस अधिकारी, पूर्व नौकरशाह एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे. इसलिए स्वत: स्फूर्त लोग जगह-जगह पर इकट्ठे हुए और उन्होंने अन्ना हजारे के साथ अनशन किया. जो अनशन पर नहीं बैठ सके, उन्होंने जुलूस निकाले. एक माहौल बन गया सारे देश में. यह माहौल मीडिया ने बनाया, कहना गलत होगा. मीडिया ने दिखाया. फिर मीडिया को लगा कि अरे यह तो माहौल बन रहा है तो इसको और ज़्यादा दिखाओ, ताकि उनकी व्यूअरशिप बढ़ेगी. लोगों को और ज़्यादा लगा कि हां, यह तो जो हो रहा है, वह हमारे हक के लिए हो रहा है और मीडिया भी साथ दे रहा है. कम्युनिकेशन चैनल पूरा बन गया. लोग सड़कों के ऊपर आ गए. अन्ना हजारे के साथ पहले नहीं आए थे, बाद में बाबा रामदेव भी आए, क्योंकि बाबा रामदेव से लोगों ने कहा कि जब वह आपकी रैली में आए थे तो आपको जाना चाहिए. बाबा रामदेव वहां आए. उन्होंने कुछ गीत भी गाए और अनशन स्थल पर भाषण देकर चले भी गए. अन्ना हजारे का साथ जो लोग लगातार दे रहे थे, उनमें किरण बेदी थीं, अरविंद केजरीवाल थे. अरविंद पुराने नौकरशाह हैं और अब सूचना आंदोलन के प्रमुख नेता हैं. स्वामी अग्निवेश हैं और दो वकील हैं प्रशांत भूषण, जिनका नाम अ़खबारों में चर्चित हो रहा है और शांति भूषण, जो इन दिनों सबकी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं.  किसे यह बुरा लगा, यह मैं नहीं कह सकता, लेकिन यह अभियान शांति भूषण और प्रशांत भूषण के खिला़फ नहीं है. यह अभियान किसके खिला़फ है, यह मैं आगे लिखने जा रहा हूं.

दरअसल जनता के उठे हुए उद्वेगों को, जनता के मन में उठे हुए भावों को और जनता के सामने आए इनिशिएटिव को भोथरा करने के लिए एक हमला हुआ. और वह हमला किसने किया. हमला राजनीतिज्ञों ने किया. सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी और बाबा रामदेव ने इस आंदोलन का सक्रिय समर्थन नहीं किया. वे चाहते तो लोगों से अपील कर सकते थे कि सारे देश में भ्रष्टाचार को लेकर लड़ाई शुरू हुई है, इसलिए सब लोग, जो भी भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हैं या बाबा रामदेव के समर्थक हैं या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक हैं, वे भी अपने-अपने यहां चौराहों पर, गलियों में, मोहल्लों में अनशन करना शुरू कर दें, क्योंकि एक आदमी सही लड़ाई लड़ रहा है. इन्होंने यह नहीं किया, क्योंकि ये देखना चाह रहे थे कि अगर कुछ माहौल बनता है तो उस माहौल को अपने पक्ष में कैसे मोड़ा जाए. पहला हमला दिग्विजय सिंह ने किया. दिग्विजय सिंह कांग्रेस के महासचिव हैं और दिग्विजय सिंह ने हमला यह मानकर किया कि यह पूरा आंदोलन कांग्रेस के खिला़फ में चला जाए. उन्हें कौन मिला हमला करने के लिए. सबसे पहले उन्हें हमला करने के लिए शांति भूषण ही मिले. और शांति भूषण का दुर्भाग्य यह है कि वह राजनीतिज्ञ नहीं हैं.

अंदर की कहानी यह है कि कांग्रेस नेतृत्व किसी बाहरी आदमी को तलाश रहा था, जो इस अभियान को शुरू करे, खासकर अन्ना हजारे के अभियान के खिला़फ. सोनिया गांधी के सिपहसालारों ने अमर सिंह से संपर्क साधा. अमर सिंह बहुत दिनों से कांग्रेस के पक्ष में, राहुल गांधी के पक्ष में और सोनिया गांधी के पक्ष में दाएं-बाएं से बयान दे रहे थे. अमर सिंह ने कहा कि मैं इनको निपटाता हूं. अमर सिंह इसके पहले संपर्क में रहे थे, बातचीत हुई थी. अमर सिंह को बहुत सारी चीजें वैसे भी पता हैं, क्योंकि अमर सिंह देश के उन राजनेताओं में हैं, जिनके पास खबर होती है. अमर सिंह ने पूरी राजनीतिक बिरादरी की तऱफ से अन्ना हजारे की टीम पर हमला बोल दिया और पहला निशाना उन्होंने बनाया और बाद में आखिरी निशाना और अकेला निशाना भी उन्होंने शांति भूषण और प्रशांत भूषण को बनाया. शांति भूषण को इसलिए, क्योंकि शांति भूषण के साथ उनका रिश्ता रहा है, उनका संपर्करहा है. और शांति भूषण ने पहला बयान यह दे दिया, कि शायद उनके बेटे प्रशांत भूषण ने दिया, शांति भूषण जी से बात करने के बाद ही दिया होगा कि वह मुलायम सिंह से तो बात करते रहे हैं, लेकिन अमर सिंह से उनकी कोई बात नहीं हुई. देश का कोई भी आदमी यह मानने को तैयार नहीं होगा कि प्रशांत भूषण की यह बात सही है. क्योंकि जिस दौर की यह बातचीत है, उस दौर में अगर किसी को मुलायम सिंह से बात करनी थी तो वह बिना अमर सिंह के हो ही नहीं सकती थी. यह बिल्कुल खुला सत्य है.

सिविल सोसायटी के लोगों को, अ़खबार वालों को, खासकर वे अ़खबार वाले, जो ईमानदारी से काम करते हैं, राजनीतिज्ञों से डरना चाहिए. नहीं तो राजनीतिज्ञ उनके खिला़फ भी कोई संपत्ति का छोटा सा मसला, किसी लड़की से उनकी कोई बातचीत, किसी हवाई जहाज का टिकट, किसी होटल में ठहरने जैसे मुद्दे को लेकर उनके खिला़फ शक़ का वातावरण पैदा कर देंगे और कह देंगे कि हम बेईमानी करते हैं तो सही करते हैं क्योंकि ये भी तो चार आने चुराए थे बचपन में. या दो साल पहले इसने भी तो चार रुपये का समोसा कहीं खाया था और बिना बिल दिए चला आया था.

अमर सिंह ने इसी चीज को सामने रखा और उन्होंने प्रशांत भूषण और उनके पिता शांति भूषण की विश्वसनीयता के ऊपर सवाल खड़ा कर दिया. फिर एक सीडी आई, जिसको कहा गया कि यह एडिटेड है, इसमें कुछ चीजें मिलाई गई हैं, कुछ चीजें काटी गई हैं. मैं यहां पर अमर सिंह की तारी़फ करूंगा कि अमर सिंह ने इस देश की राजनीतिक बिरादरी की ओर से उन लोगों के खिला़फ, जो राजनीतिज्ञों को भ्रष्ट मानते हैं और ज़्यादातर लोग राजनीतिज्ञों को भ्रष्ट मानते हैं, हमला बोल दिया और कहा कि यहां भी तो भ्रष्टाचार है. हम ही थोड़े भ्रष्ट हैं, यहां भी भ्रष्टाचार है. इसको अमर सिंह ने बहुत सफलतापूर्वक साबित किया. और इसके बाद सामने आए दिग्विजय सिंह. दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की तऱफ से कमान संभाली. और नतीजा यह हुआ कि आज शांति भूषण और प्रशांत भूषण लोगों की नज़र में विलेन तो नहीं हैं, लेकिन इनके खिला़फ एक शंका का वातावरण बन गया है. यह वातावरण इसलिए बनाया गया, क्योंकि निशाना यहां नहीं है, निशाना कहीं और है. प्रशांत भूषण 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में वकील हैं. एक कैंपेन के हिस्से हैं. और ऐसा लगता है कि इस 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कारपोरेट वार में, जिसे हम दूसरे लफ्जों में जो देशभक्त लोग कहते हैं कि यह देश के साथ धोखा हुआ, उसमें कहीं अनिल अंबानी फंस सकते हैं. और इसके खिला़फ अगर आप यक़ीन करें तो देश की एक बड़ी टेलीकॉम कंपनी है, जिसका एकछत्र राज पूरे हिंदुस्तान पर रहा है और वह कंपनी चाहती है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात ज़्यादा से ज़्यादा सामने आए, मुकदमा चले, लोगों को सज़ा मिले और उसका रास्ता अनिल अंबानी के घर के पास से भी होकर निकले. दरअसल यह प्रशांत भूषण को फिक्स करने की एक ऐसी चाल है, जिसे अमर सिंह ने बहुत सोच-समझ कर खेला और उन्होंने दो लोगों पर एहसान कर दिया. एक तरफ अनिल अंबानी पर और दूसरी तरफ सोनिया गांधी पर. या कहें कि कांग्रेस पर. शांति भूषण की ज़मीन जो उन्होंने ली, संपत्ति जो उन्होंने बनाई और कोर्ट फीस जिसके बारे में कहा जा रहा कि उन्होंने कम दिया, हमने उसके बारे में पड़ताल की. और पड़ताल करने पर हमको यह पता चला कि कोर्ट फीस का कोई ऐसा मसला नहीं है. उसमें शांति भूषण कहते हैं कि अगर नियम के हिसाब से कोर्ट फीस ज़्यादा होगी तो हम ज़्यादा दे देंगे, लेकिन दिग्विजय सिंह ने इसे पूरा राजनीतिक मुद्दा बना दिया. जो बड़े वकील हैं, चाहे वह शांति भूषण हों, चाहे वह वेणुगोपाल जी हों, चाहे राम जेठमलानी हो. ऐसा माना जाता है कि इस देश में बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जिन्होंने एक सुनवाई के लिए एक लाख रुपये इन लोगों को दिए हैं और अक्सर ये लोग एक सुनवाई का एक लाख लेते हैं. अब वह इनकम टैक्स में दिखाते हैं या नहीं, यह अलग चीज है, लेकिन ये पैसे लेते हैं. अगर शांति भूषण ने यह चीज इनकम टैक्स में नहीं दिखाई होती तो उनके पास एक अरब से ज़्यादा की संपत्ति नहीं होती.

मेरा सिर्फ यह कहना है कि अगर शांति भूषण और प्रशांत भूषण राजनीतिज्ञ होते तो वे यह कहते कि मेरी ज़मीन ले लो, मेरी संपत्ति पर इनकम टैक्स की इंक्वायरी बैठा दो और कोर्ट फीस जितनी कोर्ट कहेगा, जो रजिस्ट्री ऑफिस कहेगा, उतनी मैं अभी देने को तैयार हूं. सब कुछ ठीक है, लेकिन इससे लोकपाल बिल का क्या. ये राजनीतिज्ञ नहीं थे. इन्होंने अपना बचाव शुरू कर दिया और अपना बचाव करने की रणनीति ने राजनीतिज्ञों के सामने इनको हल्का साबित कर दिया. देश के लोगों के मन में इनको लेकर शंका पैदा हो गई. कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने परेशानी में पड़कर बयान दिया कि जिस तरह से कमेटी के लोगों की आलोचना की जा रही है, उससे वह इस्ती़फा देने के बारे में सोच सकते हैं. ऐसा बयान उन्होंने इसलिए दिया, क्योंकि उनकी कमेटी के लोगों की चमड़ी राजनीतिज्ञों जितनी मोटी नहीं है. वैसे अच्छा तो यह होता कि नरीमन को ये कमेटी का सह अध्यक्ष बनवाते, शांति भूषण उसमें रहते और एक दूसरी कमेटी बना देते, जो नरीमन साहब को सलाह देती. लेकिन ऐसा इन्होंने नहीं किया. करना चाहिए था. न करने का नतीजा निकला कि आज राजनीतिज्ञों के सामने अन्ना हजारे की टीम थोड़ी घबराहट में खड़ी है. हालांकि स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी एवं अरविंद केजरीवाल अपनी आवाज तेजी से उठा रहे हैं, लेकिन अब इनकी आवाज़ में वह दम नज़र नहीं आता, जो अन्ना हजारे के आंदोलन के दिनों में आता था. और जो सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सिविल सोसायटी के नाम पर ये पांच लोग तो हैं नहीं, बाकी लोग कहां चले गए. कहां बिल में घुस गए, जो उस समय कहते थे कि हम साथ देंगे, हम सिविल सोसायटी हैं, हम लोगों को खड़ा करेंगे. ये लोग नज़र नहीं आ रहे हैं. अगर ये नज़र आते तो शायद राजनीतिज्ञों का हमला यह सिविल सोसायटी झेल जाती कि दो ने हमला किया है, पचास लोग इनके पक्ष में खड़े हो गए. मैं इतना ही कह सकता हूं कि सिविल सोसायटी के लोगों को, अ़खबार वालों को, खासकर वे अ़खबार वाले, जो ईमानदारी से काम करते हैं, राजनीतिज्ञों से डरना चाहिए. नहीं तो राजनीतिज्ञ उनके खिला़फ भी कोई संपत्ति का छोटा सा मसला, किसी लड़की से उनकी कोई बातचीत, किसी हवाई जहाज का टिकट, किसी होटल में ठहरने जैसे मुद्दे को लेकर उनके खिला़फ शक़ का वातावरण पैदा कर देंगे और कह देंगे कि हम बेईमानी करते हैं तो सही करते हैं क्योंकि ये भी तो चार आने चुराए थे बचपन में. या दो साल पहले इसने भी तो चार रुपये का समोसा कहीं खाया था और बिना बिल दिए चला आया था. यह कौम बड़ी खतरनाक है, जिसका नाम राजनीतिज्ञ है. उन लोगों को राजनीतिज्ञों से डरना चाहिए, जो लोग देश से प्यार करते हैं या जो लोग देश से बुराइयों को मिटाना चाहते हैं.


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