राहुल गांधी ने खुद कहा है कि वह पार्टी और सरकार में बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं, लेकिन यह भूमिका वह कब से निभाएंगे, इसका फैसला उनकी मां एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करेंगे. इसका सीधा मतलब है कि राहुल गांधी संगठन में प्रतीकात्मक और सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. सरकार में उनकी भूमिका के बारे में हम बाद में बात करेंगे, पहले संगठन में निभाई जाने वाली उनकी भूमिका के बारे में बात करते हैं.
ट्रैफिक के कुछ नियम होते हैं, जैसे कार या किसी सवारी या पैदल चलने वाले को बायीं तऱफ से चलना होता है. अगर हम दाहिनी तऱफ से चलने की कोशिश करेंगे और दाहिनी तऱफ ही चलने का मन बनाएंगे तो आशंका की बात छोड़ दें, निश्चित है कि एक्सीडेंट होगा ही होगा. इसी तरह राजनीतिक ट्रैफिक के भी कुछ नियम हैं. अगर उन नियमों को छोड़ दें तो राजनीतिक एक्सीडेंट होना अवश्यंभावी है. राहुल गांधी ऐसा राजनीतिक एक्सीडेंट कर चुके हैं. कांग्रेस को मालूम था और राहुल गांधी को भी कि बिहार में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन न राहुल गांधी और न कांग्रेस पार्टी ने बिहार कांग्रेस का संगठन चुस्त-दुरुस्त करने के लिए कुछ नया किया, बल्कि जो अध्यक्ष बिहार कांग्रेस को सक्रिय किए हुए था, उसे हटाकर उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया, जो एरिस्टोक्रेट शख्सियत के रूप में जाना जाता है. पूरी पार्टी पैरालाइज्ड हो गई. इसके बाद टिकट वितरण के व़क्त एक साल से की जा रही घोषणाओं को भुला दिया गया और ऐसे लोगों को टिकट दिए गए, जिनका राजनीतिक रूप से कोई अस्तित्व था ही नहीं. नतीजा जो होना था, वही हुआ. बिहार में कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गई.
फिर दो साल का समय था. राहुल गांधी को मालूम था कि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं. उन्हें यह भी मालूम था कि बिहार में मिली हार के बाद उत्तर प्रदेश में उनके क्रियाकलापों, उनकी कुशलता को बड़ी पैनी नज़र से देखा जाएगा. और वह व्यक्ति जिसके बारे में कहा जाता है कि वह देश का प्रधानमंत्री होगा, अगर दूसरी बार भी असफल होता है तो उसकी कुशलता को लेकर सवालिया निशान खड़े हो जाएंगे. इसके बावजूद राहुल गांधी ने संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए कुछ नहीं किया. उत्तर प्रदेश में उन्होंने दिग्विजय सिंह और परवेज हाशमी को कमान सौंपी और प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी को लगभग निष्क्रिय कर दिया. रीता बहुगुणा जोशी वैसे भी निष्क्रिय अध्यक्ष रही हैं. उत्तर प्रदेश में रीता बहुगुणा जोशी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने कोई संगठनात्मक प्रगति नहीं की और सारा संगठन दिल्ली से चल रहा था. साल भर तक निष्क्रियता रही, क्योंकि चर्चा थी कि रीता बहुगुणा जोशी अध्यक्ष पद से हटा दी जाएंगी. न रीता बहुगुणा जोशी ने कुछ किया और न पार्टी ने. नतीजा जो निकलना था, वही निकला. न केवल कांग्रेस के लोगों, बल्कि मीडिया और उत्तर प्रदेश की जनता यानी सभी के सामने चुनाव के पहले ही यह सा़फ हो गया था कि कांग्रेस सबसे नीचे रहने वाली है, लेकिन यह सत्य राहुल गांधी को नहीं दिखाई दिया. चूंकि राहुल गांधी को नहीं दिखाई दिया, इसलिए कांग्रेस को भी नहीं दिखाई दिया.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने बिहार से ज़्यादा पैसे झोंके. जगह-जगह राहुल गांधी की सभाएं हुईं. एक मोटे अनुमान के हिसाब से मीडिया के ऊपर दो सौ करोड़ रुपये खर्च किए गए. शायद यह दो सौ करोड़ रुपये खर्च करना ही कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन गया, क्योंकि मीडिया ने कांग्रेस को यह बताया ही नहीं कि वह हार रही है. पैसे भी इसलिए टेलीविजन चैनलों को दिए गए, ताकि वे राहुल गांधी के चेहरे को दिखाएं, उनकी सभा में आने वाली भीड़ को न दिखाएं. राहुल गांधी और कांग्रेस, दोनों ही आज तक इस बात को नहीं समझ पाए कि यह दूसरा पॉलिटिकल एक्सीडेंट उन्हीं की नासमझी की वजह से हुआ है. सामान्य कार्यकर्ता, सामान्य नेता या दोयम दर्जे के नेता के लिए तो यह बात क्षम्य हो सकती है, लेकिन उस नेता के लिए, जो प्रधानमंत्री बनने वाला है, कितनी क्षम्य हो सकती है, इसे शायद कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी के साथ-साथ राहुल गांधी को भी तय करना है.
पॉलिटिकल एक्सीडेंट गुजरात में भी होने जा रहा है, क्योंकि इसी वर्ष गुजरात में चुनाव होने हैं, बल्कि दो महीने बाद चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. गुजरात में भी कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में वही गलतियां दोहरा रही है, जो उसने बिहार और उत्तर प्रदेश में की थीं. गुजरात के बाद हिमाचल है, फिर मध्य प्रदेश है. हर जगह अगर गलतियां ही दोहराना है, पॉलिटिकल एक्सीडेंट ही करने हैं तो इसका मतलब यह है कि आपका दिमाग सही ढंग से काम नहीं कर रहा है. शायद यह कहना राहुल गांधी, उनके साथियों और कांग्रेस पार्टी को नागवार गुजरे, लेकिन कांग्रेस के आम कार्यकर्ता को कतई नागवार नहीं गुजरेगा, यह मैं जानता हूं. इसलिए जानता हूं, क्योंकि ये सारी बातें मैं कांग्रेस कार्यकर्ताओं से पिछले कई महीनों में हुई बातचीत के आधार पर लिख रहा हूं. कांग्रेस कार्यकर्ता सक्रिय होना चाहता है, पार्टी के लिए कुछ करना चाहता है, लेकिन वह साथ में यह भी चाहता है कि पार्टी में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो. पार्टी का नेता अगर बड़े पैमाने पर वादाखिलाफी करता नज़र आए तो कांग्रेस कार्यकर्ता इसे विश्वासघात मानता है. बिहार में यह कहा गया कि तीस प्रतिशत से ज़्यादा टिकट नौजवानों को दिए जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. राहुल गांधी ने अपना पूरा समय युवा कांग्रेस को बनाने में लगाया. महामंत्री के नाते वह युवा कांग्रेस के प्रभारी थे, लेकिन बिहार में टिकट युवाओं को नहीं मिले. युवाओं का मतलब वे लोग, जो युवा कांग्रेस में रहते हुए पार्टी का आधार बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन टिकट उन्हें दिए गए, जो नौजवानों के नाम पर नए ठेकेदार बने थे, जिनके पास बोलेरो एवं स्कॉर्पियो सरीखी महंगी गाड़ियां थीं, जो बाहुबली थे, जिनके पास बंदूकें एवं राइफलें थीं. नतीजा सामने आ गया.
उत्तर प्रदेश में भी लगभग यही हुआ. दोनों जगह राहुल गांधी ने संगठन नहीं बनने दिया. पहले दिग्विजय सिंह ने यह कोशिश की कि पार्टी ऐसे उम्मीदवारों को चुने, जो अपने जिले या अपने क्षेत्र में कांग्रेस पार्टी का संगठन खड़ा कर सकें. लेकिन दिग्विजय सिंह की बात अधूरा सच थी, क्योंकि इससे संगठन नहीं खड़ा होता, हां संगठन का भ्रम ज़रूर दिखाई देता है. पर दिग्विजय सिंह की बात राहुल गांधी ने आखिरी क्षणों में नहीं मानी और उन्होंने चुनाव जीतने के लिए जो टीम बनाई, उसका मुखिया कनिष्क सिंह को बना दिया. इन लोगों ने मिलकर ऐसे लोगों को टिकट दिए, जिनका कोई आधार ही नहीं था और जो दूसरे दलों के रिजेक्टेड कैंडिडेट थे, जिन्हें वहां टिकट नहीं मिल रहा था. कांग्रेस में यह कहकर टिकट दिए गए कि हम समाजवादी पार्टी के नेता को तोड़ लाए, बहुजन समाज पार्टी के नेता को तोड़ लाए या भारतीय जनता पार्टी के नेता को तोड़ लाए. ये ऐसे लोग थे, जिन्हें वहां कतई टिकट नहीं मिलने वाला था. तीसरा जो बहुत खतरनाक प्रयोग राहुल गांधी ने किया, वह यह था कि वह लोगों को कोटे के आधार पर टिकट देते थे, जिसमें बेनी प्रसाद वर्मा शामिल थे, मोहन प्रकाश और रशीद मसूद शामिल थे. इन लोगों ने जिन्हें टिकट दिए, वे हार गए. संगठन न बनाना और कार्यकर्ताओं को निराश करना कितना बड़ा अपराध था, इसे जब तक राहुल गांधी नहीं समझेंगे, वह कोई भी रोल लेने की बात करें, सफल नहीं होंगे.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने बिहार से ज़्यादा पैसे झोंके. जगह-जगह राहुल गांधी की सभाएं हुईं. एक मोटे अनुमान के हिसाब से मीडिया के ऊपर दो सौ करोड़ रुपये खर्च किए गए. शायद यह दो सौ करोड़ रुपये खर्च करना ही कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन गया, क्योंकि मीडिया ने कांग्रेस को यह बताया ही नहीं कि वह हार रही है. पैसे भी इसलिए टेलीविजन चैनलों को दिए गए, ताकि वे राहुल गांधी के चेहरे को दिखाएं, उनकी सभा में आने वाली भीड़ को न दिखाएं. राहुल गांधी और कांग्रेस, दोनों ही आज तक इस बात को नहीं समझ पाए कि यह दूसरा पॉलिटिकल एक्सीडेंट उन्हीं की नासमझी की वजह से हुआ है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जमकर सदस्य बनाए, लेकिन जब चुनाव का मौका आया प्रदेश कांग्रेस कमेटी में, जिसे पीसीसी कहते हैं या जिले का अध्यक्ष चुनना हुआ तो दिल्ली में बैठकर नॉमिनेशन हो गया. कार्यकर्ता इससे इतना निराश और दु:खी हुआ कि उसने कांग्रेस में रुचि लेना बंद कर दिया. अब गुजरात में चुनाव होने हैं. वहां पर कांग्रेस कोई गतिविधि कर ही नहीं रही है. ऐसा लगता है, कांग्रेस चाहती है कि नरेंद्र मोदी को दोबारा वहां सत्ता मिल जाए और वह राजनीतिक रूप से शक्तिशाली दिखाई देते रहें, जिन्हें सामने रखकर वह देश में वोट लेने का अभियान चला सके, नकारात्मक अभियान, नेगेटिव कैंपेन. यह राहुल गांधी क्यों नहीं समझ पा रहे हैं. अगर वह इतने नासमझ हैं तो ज़िम्मेदारी कैसे निभाएंगे और अगर नासमझ नहीं हैं तो फिर वह महान बुद्धिमान हैं. वह कुछ करना ही नहीं चाहते और उस कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है. राहुल गांधी को अगर कहीं से सीख लेनी चाहिए, तो इंदिरा गांधी यानी अपनी दादी से लेनी चाहिए. श्रीमती गांधी ने हमेशा ऑफेंसिव पॉलिटिक्स की. उन्होंने हमेशा इश्यू क्रिएट किए. विपक्ष उनका जवाब देने में ही हमेशा लगा रहता था. जब तक वह एक बिंदु का जवाब दे पाता था, श्रीमती गांधी तीन बिंदु और फेंक देती थीं. राजीव गांधी ने ऐसा नहीं किया और उनके बाद के कांग्रेस अध्यक्ष ने तो ऐसा बिल्कुल नहीं किया. भाजपा की नालायकी के चलते 2009 में कांग्रेस फिर जीती और इस बार कांग्रेस कार्यकर्ता चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि 110, 115 और अधिकतम 120 सीटें लोकसभा में कांग्रेस की आएंगी. हो सकता है, कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल जाए, लेकिन कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं के दर्द को क्यों नहीं समझना चाहती, राहुल गांधी कार्यकर्ताओं के आंसुओं के पीछे छुपी तकलीफ को क्यों नहीं समझना चाहते, जिसके चलते वे यह कहने के लिए विवश हैं कि कांग्रेस अब 2014 में स़िर्फ 115 या 120 सीटें लेकर लोकसभा में आएगी.
अब एक नई रणनीति के ऊपर बात हो रही है. कांग्रेस के भीतर फैसला लेने वाले लोग चाहते हैं कि राहुल गांधी को एक नई राजनीतिक परीक्षा में डाल दिया जाए. वह राजनीतिक परीक्षा है कि उन्हें कैबिनेट में शामिल कर ग्रामीण विकास मंत्री बना दिया जाए और कैबिनेट में दो सत्ता केंद्र हो जाएं. जब राहुल गांधी मनमोहन सिंह की कैबिनेट में शामिल होंगे, तो प्रधानमंत्री न रहते हुए भी वह प्रधानमंत्री सरीखे तेवर दिखाएंगे, प्रधानमंत्री सरीखे भाषण देंगे और सत्ता का समानांतर केंद्र बन जाएंगे. इस स्थिति की कल्पना कांग्रेस नहीं कर रही है. कांग्रेस सोचती है कि जब सत्ता के दो केंद्र समानांतर होंगे और आपस में लड़ते हुए दिखेंगे तो देश को बंदर के तमाशे जैसा मजा आएगा और लोग खड़े होकर बिना वजह राहुल गांधी के पक्ष में तालियां बजाएंगे. आज से बीस साल पहले की बात होती तो शायद यह संभव था, लेकिन आज संभव नहीं है, क्योंकि लोग ज़्यादा परिपक्व हो गए हैं, ज़्यादा समझदार हो गए हैं और समस्याओं को ज़्यादा पहचानने लगे हैं. शायद इसलिए राहुल गांधी के नेतृत्व में पिछले नौ सालों से चल रहा युवक कांग्रेस बनाने का अभियान टांय-टांय फिस्स हो गया और कांग्रेस पहले से भी कमजोर नज़र आ रही है. उसकी आधिकारिक सदस्यता कम हो गई है.
अगर राहुल गांधी कैबिनेट मिनिस्टर बनकर गैर कांग्रेसी राज्यों में डंडा चलाएं और कहें कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना असफल रही और उसका फायदा ग़रीबों को नहीं मिला तो एक नए तरह का कन्फ्रंटेशन क्रिएट होगा, क्योंकि अभी केंद्र से राज्य सरकारों को पैसा जाता है. कांग्रेस के ग्रामीण विकास मंत्री पहले देशमुख रहे हों या जयराम रमेश, ये सब लोग गैर कांग्रेसी सरकारों पर निशाना साधते रहे कि वे योजना को सही ढंग से लागू नहीं कर रही हैं, लेकिन क्या कांग्रेस शासित राज्य सरकारें इस योजना को सही ढंग से लागू कर रही हैं? जाहिर है, राहुल गांधी कांग्रेसी सरकारों की बात तो करेंगे नहीं, वह बात करेंगे गैर कांग्रेसी सरकारों की. इसका नतीजा यह होगा कि गैर कांगे्रसी सरकारों को राहुल गांधी को घेरने के लिए एक नया हथियार मिल जाएगा और राहुल गांधी अपनी नासमझी के चलते या तैश में आकर कुछ ऐसी बात कह जाएंगे, जिसका उन्हें राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
हम ये बातें राहुल गांधी के खिला़फ नहीं लिख रहे हैं. हम चाहते हैं कि राहुल गांधी सीखें, परिपक्व बनें, इस देश के अंतर्विरोध को पहचानें, इस देश के आपसी सामंजस्य और आपसी वैमनस्य को पहचानें. यहां धर्म आधारित झगड़े कितने खोखले होते हैं, लेकिन लोगों को कितनी बुरी तरह प्रभावित कर लेते हैं, इसके पीछे की फिजियोलॉजी को पहचानें, यहां के ग़रीबों में आपसी रिश्तों की केमेस्ट्री को पहचानें. यह हम इसलिए चाहते हैं कि अगर राहुल गांधी यह सब पहचानेंगे और यदि उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो शायद वह देश को एक बेहतर नेतृत्व दे पाएं. वह ऐसा नेतृत्व न दें, जो ब्यूरोक्रेटिक एफट्र्स पर टिका हुआ हो. राहुल गांधी ज़िम्मेदारी संभालें तो होश के साथ संभालें और जोश के साथ भी संभालें, क्योंकि अभी तक उनमें जोश स़िर्फऔर स़िर्फ चुनावों के समय ही दिखा है. चुनाव से पहले और चुनाव के बाद राहुल गांधी का जोश कहीं गायब हो जाता है. इस बीच वह क्या बातें करते हैं, किसी को पता नहीं चलता. देश एक ऐसा नेता चाहता है, जिसकी ज़्यादातर बातें उसे पता हो और जिसके साथ वह कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो. राहुल गांधी की जानकारी के लिए बता दें कि उन्हीं की पार्टी में एक ऐसे नेता हुए हैं, जिनके साथ देश कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ था और उनका नाम है लाल बहादुर शास्त्री.