राहुल गांधी और बुद्धिमत्ता में फ़ासला बाकी है

Santosh-Sirनरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, दो व्यक्तित्व हैं, जिनके बारे में प्रचार हो रहा है कि इन दोनों में से कोई एक प्रधानमंत्री बनेगा. नरेंद्र मोदी की पार्टी छह महीने पहले तक महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी जैसे सवाल गाहे-बगाहे उठाती रहती थी. कभी-कभी महंगाई को लेकर इन्होंने प्रदर्शन भी किया, लेकिन अचानक ये सवाल भाजपा ने उठाने बंद कर दिए. कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी पर भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता, इनफाइटिंग के आरोप लगाती रहती थी, पर उसने भी ये आरोप लगाने बंद कर दिए. दोनों पार्टियों में एक छुपा हुआ समझौता हो गया. समझौते के पीछे की वजह स़िर्फ एक थी कि इन समस्याओं के ब़ढने में दोनों ही पार्टियों की थो़डी और ज़्यादा भूमिका रही है. इसलिए शायद दोनों पार्टियों ने तय किया कि हम मुद्दों को लेकर एक-दूसरे पर हमला ही न करें. हम दोनों व्यक्तित्वों को आमने-सामने लेकर आएं. भारतीय जनता पार्टी को इसमें फ़ायदा दिखा कि कांग्रेस के द्वारा फैलाए हुए ख़राब शासन को मुद्दा बनाकर आसानी से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाया जा सकता है और कांग्रेस को लगा कि राहुल गांधी की उम्र को मुद्दा बनाकर नौजवानों को अपने साथ लिया जा सकता है और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है. राहुल गांधी ने बयान भी दिया कि नई सरकार नौजवानों की होगी. कांग्रेस के जितने भी बुजुर्ग नेता हैं और बुजुर्ग से मेरा मतलब है पचास साल से ऊपर के लोग हैं, उन्हें लग रहा है कि उनकी भूमिका राजनीति में समाप्त करने की तैयारी कर ली गई है. शायद लोकसभा के इस चुनाव में 70 प्रतिशत से ज़्यादा सीटें 24 से लेकर 40 वर्ष की उम्र के लोगों को मिलेंगी. दोनों ही दल सत्ता पाने के सपने में खोए हुए हैं.

राहुल गांधी सारे देश में घूम रहे हैं, पर एक अजीब संयोग है कि राहुल गांधी की कहीं पर भी ब़डी सभा नहीं हो रही है. उत्तर प्रदेश में एक जगह उनकी सभा में एक सौ सत्तर लोग आए दूसरी सभा में ढाई हज़ार. उसके बाद जहां-जहां भी वो गए, वहां-वहां उन्हें दस हज़ार से ब़डी भी़ड कहीं मिली नहीं. क्या राहुल गांधी को कांग्रेस के ख़राब शासन का ख़ामियाज़ा भुगतना प़ड रहा है या फिर राहुल गांधी जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वो भाषा या वो शैली लोगों में उनके प्रति विश्‍वास नहीं जगा पा रही है? राहुल गांधी ने अपनी दादी की, अपने पिता की हत्या को चुनाव का मुद्दा बनाया. शायद राहुल गांधी के इन्हीं बचकाने बयानों से उनके गंभीर चुनौती के रूप में ख़डे होने में दिक्कत पेश आ रही है. नरेंद्र मोदी को महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी के हटने से कोई मतलब नहीं है, पर नरेंद्र मोदी में ये कला है कि वो इन सवालों को कांग्रेस के ख़िलाफ़ भाजपा के हित में प्रचार का हथियार बना रहे हैं. दूसरी तरफ़ राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ कोई भी ऐसी बात नहीं कह पा रहे हैं, जिस बात से उनके परिपक्व होने की, या उनमें राजनीतिक कुशलता का अभाव नहीं है, ये पता चल सके.

सोनिया गांधी भले ही इटली में पैदा हुई हों, लेकिन उनका मन भारतीय मां का मन है. वो बेटे को बेटी से ज़्यादा पसंद करती हैं. बेटी उनकी सहेली हो सकती है, लेकिन उनका राजनीतिक वारिस बेटा ही होगा, ऐसा सोनिया गांधी ने कई बार संकेतों-संकेतों में बता दिया है. इसीलिए वो अपने बेटे की किसी भी ऐसी हरकत को बुरा नहीं मानती हैं, जो हरकत उन पर या उनकी समझ पर सवाल ख़डा करती हैं. ऐसी ही एक घटना सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए अध्यादेश लाते व़क्त हुई. ये अध्यादेश सोनिया गांधी से बातचीत के बाद कैबिनेट ने पास किया, उसे राज्यसभा ने इंट्रोड्यूस किया, लेकिन राष्ट्रपति के पास जब अध्यादेश भेजा गया, तो अचानक राहुल गांधी ने कहा कि ये नॉनसेंस अध्यादेश है, इसे फा़डकर फेंक देना चाहिए.

कांग्रेस पार्टी पूरी तौर पर राहुल गांधी पर निर्भर है. राहुल के सामने एक मानसिक समस्या भी है. उनके बारे में कई तरह की अफ़वाहें देश के लोगों के मन में बस गई हैं. उन अफ़वाहों को लोग सच मान रहे हैं. जैसे रात आठ बजे के बाद राहुल गांधी क्या करते हैं, किससे मिलते हैं. माना ये जाता है कि राजनीतिक दलों के लोग शाम तक कार्यकर्ताओं से मिलते हैं और शाम के बाद राजनीतिक मंत्रणाएं करते हैं और रणनीति बनाते हैं, लेकिन राहुल गांधी के साथ किसी ने शाम आठ बजे के बाद मीटिंग होते देखी नहीं, लोगों से उन्हें मिलते देखा नहीं और ऐसी स्थिति में वही हो रहा है, जो होना चाहिए. भिन्न-भिन्न किस्म की अफ़वाहें राहुल गांधी को लेकर फैल रही हैं.

वहीं, दूसरी तरफ़ उनकी बहन प्रियंका गांधी को लेकर देश के लोगों में अभी भी एक उत्सुकता है. प्रियंका गांधी की राजनीतिक समझ उसी तरह लोगों के सामने नहीं आई, जिस तरह राहुल गांधी की नहीं आई है, लेकिन प्रियंका गांधी की मुट्ठी बंद है. प्रियंका गांधी को लेकर कांग्रेस के लोगों में आशा दिखाई देती है और उन्हें लगता है कि प्रियंका गांधी अगर चुनाव प्रचार में आईं और लोकसभा का चुनाव उन्होंने ल़डा तो वे देश में बहुत सारी सीटों पर अपना असर डाल पाएंगी. पिछले बीस सालों से हिंदुस्तान के लोगों के मन में ये बात बिठाई जा रही है कि प्रियंका गांधी की सारी अदाएं, प्रियंका गांधी की भाव-भंगिमा, उनकी शैली, यहां तक कि उनका चेहरा, उनके बाल उनकी दादी इंदिरा गांधी से मिलते हैं. और पता नहीं क्यों लोग प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि देखना चाहते हैं. इसीलिए जब-जब प्रियंका गांधी को लेकर कोई ख़बर फैलती है, कांग्रेस के लोगों के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौ़ड जाती है.

यह भी सत्य है कि सोनिया गांधी भले ही इटली में पैदा हुई हों, लेकिन उनका मन भारतीय मां का मन है. वो बेटे को बेटी से ज़्यादा पसंद करती हैं. बेटी उनकी सहेली हो सकती है, लेकिन उनका राजनीतिक वारिस बेटा ही होगा, ऐसा सोनिया गांधी ने कई बार संकेतों-संकेतों में बता दिया है. इसीलिए वो अपने बेटे की किसी भी ऐसी हरकत को बुरा नहीं मानती हैं, जो हरकत उन पर या उनकी समझ पर सवाल ख़डा करती हैं. ऐसी ही एक घटना सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए अध्यादेश लाते व़क्त हुई. ये अध्यादेश सोनिया गांधी से बातचीत के बाद कैबिनेट ने पास किया, उसे राज्यसभा ने इंट्रोड्यूस किया, लेकिन राष्ट्रपति के पास जब अध्यादेश भेजा गया, तो अचानक राहुल गांधी ने कहा कि ये नॉनसेंस अध्यादेश है, इसे फा़डकर फेंक देना चाहिए. कोई नहीं मानता कि सोनिया गांधी ने इसकी चर्चा राहुल गांधी से नहीं की होगी, क्योंकि सोनिया गांधी, राहुल गांधी को अपनी जगह पार्टी चलाने के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर तैयार कर रही हैं. उन्होंने ज़रूर बात की होगी. तब फिर अपनी मां के द्वारा किए गए फैसले के विरोध में राहुल गांधी क्यों ख़डे हो गए? राहुल गांधी इसका और बेहतर विरोध कर सकते थे. इसे लाने ही नहीं देते, पर उनके सलाहकारों ने उन्हें इसके लिए तैयार किया और उन्होंने इसका एक नाटकीय माहौल रचा.

राहुल गांधी के सलाहकारों में समझदार लोग हैं. मोहन प्रकाश उनमें सर्वाधिक समझदार हैं, जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रहे और डॉक्टर लोहिया के विचारों में उनकी आस्था है. मोहन प्रकाश कितना भी पूंजीपतियों के नज़दीक रहें, अधिकारियों के नज़दीक रहें, लेकिन मोहन प्रकाश बुनियादी तौर पर समाजवादी हैं और मोहन प्रकाश की सोच में ग़रीब है. राहुल गांधी जब-जब ग़रीबों की बात करते हैं या सामान्य जन की बात करते हैं तो मुझे मोहन प्रकाश का चेहरा याद आ जाता है कि इन लाइनों को या इस विषय को राहुल गांधी के दिमाग़ में भरने का काम अवश्य उन्होंने किया होगा. पर इसके बावजूद क्यों राहुल गांधी कि ज़ुबान ल़डख़डा जाती है? क्यों राहुल गांधी अपरिपक्व बयान दे देते हैं? राहुल गांधी को भाषण देते समय एंग्री यंग मैन की जगह इस देश के सामान्य जन को समझ में आने वाली भाषा बोलनी चाहिए. राहुल गांधी के दिमाग़ में किसने भर दिया कि देश को अपने साथ लाने के लिए दीवार के अमिताभ बच्चन की छवि ज़रूरी है? ये बात कभी राहुल गांधी को जावेद अ़ख्तर ने ज़रूर समझाई थी, लेकिन राहुल गांधी में अपनी समझ अगर हो, या मोहन प्रकाश की समझ को वो ज़रा आत्मसात करें तो वो इस देश के नेता की भाषा बोल सकते हैं, बजाय अपरिपक्व राजनीतिक शैली के.

राहुल गांधी के बयान, राहुल गांधी की शैली, राहुल गांधी की भाषा और राहुल गांधी का एपीयरेंस, ये सब इस देश के होने वाले प्रधानमंत्री को परिलक्षित नहीं करते. और यहीं पर मोहन प्रकाश जैसे लोगों का फ़र्ज़ है कि वो राहुल गांधी को थो़डा ग़ढें, राहुल गांधी को थो़डा पॉलिश करें और राहुल गांधी को इस देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में बताएं, ताकि वो नरेंद्र मोदी का सामना एक बुद्धिजीवी के तौर पर कर सकें. अगर वो ये नहीं करेंगे तो लोगों में ये विश्‍वास और ज़ोर पक़डेगा कि बुद्धिमत्ता और राहुल गांधी में अभी फ़ासला बाक़ी है.

 


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