प्रणब मुखर्जी को बधाई देनी चाहिए. उन्हें बधाई इसलिए नहीं देनी चाहिए कि वह कांग्रेस के उम्मीदवार हैं, बल्कि उन्हें इसलिए बधाई देनी चाहिए, क्योंकि वह देश में जीवित उन चंद लोगों में से हैं, जिन्हें राजनीतिज्ञ कह सकते हैं. देश में ऐसे व्यक्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं, जिनके मन में राजनीतिक विनम्रता के लिए आदर और स्थान है. नई पीढ़ी के बहुत से नेता राजनीतिक सहिष्णुता, राजनीतिक आदर भाव और राजनीतिक व्यवहार से अछूते हैं. उनके मन में दूसरों के प्रति इज्ज़त कम है. प्रणब मुखर्जी राजनीतिक व्यवहार, राजनीतिक विनम्रता और राजनीतिक सहिष्णुता के भंडार हैं. इसलिए उन्हें बधाई देनी चाहिए और उनसे आशा रखनी चाहिए कि वह अपने इन गुणों को राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपने अंदर संजोए रखेंगे, इन्हें तिलांजलि नहीं देंगे. अब तक प्रणब मुखर्जी ने सरकार में मंत्री रहते हुए और खासकर वित्त मंत्री रहते हुए वे सारे काम किए, जिन्हें प्रधानमंत्री को करना चाहिए. जब-जब सरकार संकट में पड़ी, तब-तब प्रणब मुखर्जी ने उसे उबारा, अच्छी रणनीति बनाई और रणनीति से ज़्यादा उन्होंने व्यक्तिगत रिश्तों का इस्तेमाल करके सरकार को कई बार बुरे व़क्त से बचाया.
प्रणब मुखर्जी के रिश्ते हर पार्टी के नेताओं के साथ अच्छे हैं और उनके पास विपक्ष का कोई भी सांसद या विपक्षी दल का नेता मदद मांगने गया तो उन्होंने किसी को भी खाली हाथ नहीं लौटाया. इसलिए यह मानना चाहिए कि इस देश में राष्ट्रपति भवन नई गतिविधियों का केंद्र शायद दोबारा बनेगा. प्रणब मुखर्जी के सभी के साथ अच्छे रिश्ते की बात को इसी से समझा जा सकता है और जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा है कि लोकसभा में जब आडवाणी जी ने प्रणब मुखर्जी की तारी़फ की तो उन्होंने अपने स्थान पर बैठे हुए विनम्रता से हाथ जोड़कर उसे स्वीकार किया. दूसरे मंत्रियों की तो तारी़फ हुई नहीं, लेकिन अगर कभी किसी के बारे में कोई अच्छी बात कही भी गई तो उसने उसे गर्व के साथ स्वीकार किया, लेकिन प्रणब मुखर्जी ने अपनी तारी़फ विनम्रता के साथ स्वीकार की. यह फर्क़ प्रणब मुखर्जी और कांग्रेस के बाक़ी नेताओं के बीच हमेशा दिखाई दिया, दिखाई देता है और आशा करते हैं कि दिखाई देता रहेगा.
अच्छा होता, अगर राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस ने थोड़ी ज़्यादा परिपक्वता दिखाई होती. बहुत कुछ नहीं करना था सोनिया गांधी या प्रधानमंत्री को. उन्हें अपने विश्वसनीय लोगों को खामोशी के साथ ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता एवं नवीन पटनायक के पास भेजना चाहिए था और उनसे स़िर्फ यह कहना था कि राष्ट्रपति के चुनाव का सवाल है, राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च पद होता है, वह सारी दुनिया में भारत की शान होता है. हम उसके लिए लड़ाई नहीं, आपस में बातचीत कर रहे हैं. पर यह काम कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने नहीं किया और इस चूक या आलस्य से देश के सम्मान को ठेस पहुंची. जो गंभीरता नेतृत्व को दिखानी चाहिए, वह गंभीरता यूपीए के नेतृत्व या कांग्रेस के नेतृत्व ने नहीं दिखाई. एनडीए ने शायद ज़्यादा परिपक्वता दिखाई. उसने अपनी तऱफ से अपील की कि सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्रपति के मुद्दे पर सबसे बातचीत करे, लेकिन सरकार को तब भी समझ में नहीं आया.
प्रणब मुखर्जी के सभी के साथ अच्छे रिश्ते की बात को इसी से समझा जा सकता है और जिसे मैंने अपनी आंखों से देखा है कि लोकसभा में जब आडवाणी जी ने प्रणब मुखर्जी की तारी़फ की तो उन्होंने अपने स्थान पर बैठे हुए विनम्रता से हाथ जोड़कर उसे स्वीकार किया. दूसरे मंत्रियों की तो तारी़फ हुई नहीं, लेकिन अगर कभी किसी के बारे में कोई अच्छी बात कही भी गई तो उसने उसे गर्व के साथ स्वीकार किया, लेकिन प्रणब मुखर्जी ने अपनी तारी़फ विनम्रता के साथ स्वीकार की.
कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जिनमें अहं का कोई स्थान नहीं होता. राष्ट्रपति का पद देश के सम्मान के साथ जुड़ा है. राष्ट्रपति का पद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अहं और ताक़त का पद नहीं है. राष्ट्रपति बनने वाले को ईमानदारी के साथ खुद को देश का राष्ट्रपति मानना पड़ता है, एक पार्टी या गठबंधन का राष्ट्रपति नहीं. अगर कांग्रेस थोड़ी सी समझदारी से काम लेती तो राष्ट्रपति पद को लेकर इतनी छीछालेदर नहीं होती. मानना चाहिए कि वित्त मंत्री रहते हुए जो चूक प्रणब मुखर्जी ने की और जिसकी वजह से महंगाई एवं बेरोज़गारी बढ़ी, विकास दर कम हुई, जीडीपी गड्ढे में चली गई, रुपया इतिहास में सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया, वैसी ग़लती प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति रहते हुए नहीं करेंगे.
जिस तरह देश में समस्याएं बढ़ रही हैं और जिस तरह देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है, उसमें राष्ट्रपति का बहुत बड़ा रोल हो जाता है. संयोग की बात है कि अब तक देश के ऊपर कोई बड़ा संकट नहीं आया है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश पर कोई संकट नहीं आ सकता है. मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इस देश में एक अजीब सी बेहोशी छाने लगी है. हम समस्याओं के हल के लिए काम नहीं करते, समस्याओं को टालने के लिए काम करते हैं. समस्याओं को टालने के लिए काम करने वाली सरकारें देश में जानबूझ कर संकट पैदा करती हैं.
प्रणब मुखर्जी से यह अपेक्षा करनी चाहिए कि जब देश पर संकट आए तो वह सच्चे हिंदुस्तानी के नाते उस संकट का सामना देश को साथ लेकर करेंगे. ऐसे समय में सारा देश उनके साथ खड़ा होगा. अभी तो हालत यह है कि देश के बड़े उद्योगपति प्रेस कांफ्रेंस करके कह रहे हैं कि देश नेतृत्वविहीन है. हवाई जहाज़ उड़ रहा है, लेकिन बिना पायलट के. जिन दो उद्योगपतियों ने यह बात कही, वे दोनों देश के बुनियादी ढांचे से जुड़े हुए उद्योगपति हैं. अज़ीम प्रेमजी और नारायणमूर्ति, दोनों ने दुनिया में हिंदुस्तान का नाम रोशन किया. अगर यह बात कुमार मंगलम बिड़ला, अनिल अंबानी और मुकेश अंबानी जैसे उद्योगपतियों ने कही होती तो उसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता था, लेकिन यह बात जिन दो लोगों ने कही है, उनकी इज्ज़त भारतीय आर्थिक जगत और भारतीय जनमानस में का़फी ज़्यादा है.
कांग्रेस के पास एक नया संकट पैदा हो गया है. यह शायद कांग्रेस के लिए एक अवसर है कि वह प्रणब मुखर्जी की तरह कुछ और व्यक्तित्वों को कैसे खड़ा करेगी. प्रणब मुखर्जी जिस तरह समस्याओं को देखते थे और उनका हल निकालते थे, शायद राष्ट्रपति बनकर अब वह उस तरह का रोल नहीं निभा पाएंगे. तब कांग्रेस पार्टी में यह रोल कौन निभाएगा, कांग्रेस के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. आशा करनी चाहिए कि कांग्रेस इस चुनौती का सामना सफलतापूर्वक कर पाएगी, पर आशा करना एक बात है और होना दूसरी बात है. जो ग़लती कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में की और जिसकी वजह से जगन मोहन रेड्डी ने उपचुनाव बहुमत से जीत लिया, वह कांग्रेस के लिए सोचने की बात है. जगन मोहन रेड्डी के पिता आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे और उन्हीं की वजह से कांग्रेस आंध्र प्रदेश में जीती थी. उनके बेटे का जिस तरह से अपमान कांग्रेस ने किया, वह बहुत दु:खद घटना थी. ऐसी घटनाओं से कांग्रेस को बचाने का काम अब कौन करेगा.
हमारी जानकारी के हिसाब से प्रणब मुखर्जी जगन मोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे, लेकिन उनकी बात कांग्रेस के लोगों ने नहीं मानी. प्रणब मुखर्जी खामोश हो गए. जगन मोहन रेड्डी ने कालांतर में साबित कर दिया कि वह आंध्र में विपक्ष के सबसे बड़े नेता हैं. इस बात को कांग्रेस क्यों नहीं समझ पाई, यह समझ से परे है. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि कांग्रेस अपनी कार्यशैली सुधारे, देश की समस्याओं को देखने का नज़रिया बदले और देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपना योगदान दे. प्रणब मुखर्जी देश के राष्ट्रपति बनेंगे, ऐसी पूरी आशा है और उनका राष्ट्रपति बनना राष्ट्रपति भवन की गरिमा के लिए बिल्कुल तार्किक आवश्यकता है.