वक्त, नैतिकता, नियम-कानून कैसे बदलते हैं, इसका प्रमाण और इसका मनोविज्ञान आज हमारे सामने है. आजादी के बाद देश के जितने नेता हुए, चाहे वे किसी भी पार्टी के रहे हों, वे मानते थे कि राजनीति और राज लोकलाज से चलता है, संविधान से चलता है. लोकलाज एक मान्य शब्द था. संविधान की व्याख्या अलग-अलग ढंग से हो जाती थी, लेकिन संविधान की आत्मा की हत्या नहीं होती थी. संविधान का मतलब देश की आत्मा अस्मिता और गौरव से था.
लेकिन वक्त बीता और 2014 आया. 2014 से पहले किसी भी विचारधारा वाली किसी भी पार्टी के लोग जो संवैधानिक पदों पर, जैसे राज्यपाल या राष्ट्रपति रहे हों, उनके सामने हमेशा एक सवाल रहा कि अगर वो कोई ऐसा फैसला करेंगे, जो पहली नजर में ही पक्षपातपूर्ण नजर आएगा तो कहीं इतिहास उनके नाम को बदनाम न कर दे और उन पर पक्षपात का आरोप न थोप दे. यही वो भावना थी, जिसे लोकलाज कहते हैं. वे इससे भी डरते थे कि उनका नाम इतिहास में ऐसे राज्यपाल, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप में न दर्ज हो, जिससे भावी पीढ़ियां उनके नाम को अवांछनीय, पक्षपातपूर्ण और देश की परंपराओं को तोड़ने वाले के रूप में देखे. इसलिए बहुत सारे उदाहरण ऐसे हैं, जब राज्यपाल ने कोई फैसला लिया, लेकिन राष्ट्रपति ने सत्यता जानने के बाद उस फैसले को बदलवाया.
2014 से पहले भी पक्षपात और कानून तोड़ने के कई उदाहरण हैं और जिन्होंने ये सब किया, उनका नाम कभी भी आदर से नहीं लिया जाता. इसमें एक नाम रामलाल का है, जो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल थे. लेकिन अब 2014 के बाद इन मान्यताओं को बीते जमाने की मान्यता के रूप में बदल दिया गया है. अब जो राज्यपाल हैं या संवैधानिक पदों पर बैठे लोग हैं, वे लोकलाज में विश्वास नहीं करते, वे परंपरा में विश्वास नहीं करते, वे तो सिर्फ उन तर्कों में विश्वास रखते हैं, जो उनकी विचारधारा वाले लोगों को सत्ता में बनाए रखने के लिए गढ़े जाते हैं. टेलीविजन चैनलों पर बहस हो रही है. चैनलों के एकंर इस तरह से सवाल करते हैं, मानो वे एक सत्तारूढ़ पार्टी के वकील हों. जाहिर है वकील बिना फीस के कोई बहस नहीं करता.
एक तर्क मेरी समझ में नहीं आता कि अगर भारतीय जनता पार्टी ने गोवा और मणिपुर में गलत किया, तो क्या आप यह चाहते हैं और यह मांग कर रहे हैं कि कर्नाटक में भी वो गलती हो. गोवा और मणिपुर में राज्यपालों ने तर्क दिया था कि वहां पर सबसे बड़ी पार्टी के नेता की जगह सबसे बड़े गठबंधन के नेता को शपथ दिलाई जाए, ताकि सरकार चल सके. कर्नाटक में राज्यपाल ने कहा कि सबसे बड़े गठबंधन को नहीं, बल्कि सबसे बड़ी पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री बनाया जाए और उन्होंने मुख्यमंत्री बना दिया. राज्यपाल, राष्ट्रपति और देश के हर आदमी को पता है कि इस बड़ी पार्टी के पास (इन पंक्तियों के लिखे जाने तक) कानूनी बहुमत का कोई प्रमाण नहीं है. उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर बहुमत सिद्ध करने के लिए पंद्रह दिन का समय दे दिया गया, ताकि वे कुछ विधायकों को सदन में अनुपस्थित रहने के लिए मना सकें या चाहें तो उनसे इस्तीफा करा सकें. ये सब देश की आंखों के सामने हो रहा है.
टेलीविजन पर बहस करने वाले एंकर, जिन्हें पत्रकारिता की एबीसीडी का भी ज्ञान नहीं है और जो परंपराओं का एक प्रतिशत भी नहीं जानते, वे सत्तारूढ़ पार्टी के वकील की भूमिका में बहस कर रहे हैं. मैं एक टेलीविजन चैनल पर बहस में था, जहां भारतीय जनता पार्टी के दो बड़े नेता बहस में शामिल हुए. शाहनवाज हुसैन से मेरा साधारण सवाल था कि आप कह रहे हैं, सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाए और वो सदन में अपना बहुमत साबित कर देंगे, क्या आप इसका तर्क दे रहे हैं कि अल्पमत की सरकार चले.
मैं टेलीविजन चैनलों के एंकरों के ज्ञान पर नहीं जाता, क्योंकि वे लोकतंत्र के इस नए स्वरूप के इतने बड़े वकील हैं कि उनके आगे नेता भी फेल हैं. उनके सारे तर्कों और भाव-भंगिमा से ऐसा लगता है कि जैसे अगर कोई भी तर्क भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने में रुकावट बनता है, तो वो कुतर्क है. शायद अब राजनीति से लोकलाज और संविधान की आत्मा के खत्म होने का डर समाप्त हो गया है. किसी भी तरह सत्ता में रहें, यही तर्क प्रमुख है.
एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल कर्नाटक में लगा रहा, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया और स्वयं प्रधानमंत्री जी ने कर्नाटक में 21 सभाएं की, फिर भी कर्नाटक में भाजपा सिर्फ सबसे बड़ी पार्टी बन पाई. उन्हें तो तिहाई सीटें जीतनी चाहिए थी. यह तब हुआ जब कांग्रेस में संगठनात्मक कमजोरी थी. राहुल गांधी और सिद्धारमैया कर्नाटक के लोगों के मन में अपने लिए विश्वास नहीं जगा पाए. सिद्धारमैया स्वयं अपनी विधानसभा की सीट हार गए. इसे भारतीय जनता पार्टी के नेता अपनी विजय कैसे बताते हैं?
यह सवाल मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मुझे महाभारत की एक कहानी याद आती है. अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध हो रहा था. अर्जुन जब बाण मारते थे, तो कर्ण का रथ सैकड़ों मील पीछे चला जाता और जब कर्ण बाण मारते, तो अर्जुन का रथ सिर्फ पांच या छह फीट पीछे जाता. अर्जुन यह देखकर मुस्कुराए और कृष्ण की तरफ गौरवपूर्ण नजरों से देखते हुए कहा- आपने देखा, कर्ण की मैंने क्या हालत कर दी है. कृष्ण ने दो बार सुना और तीसरी बार में जवाब दिया- अर्जुन तुम्हें मालूम है कि तुम्हारे रथ पर हनुमान बैठे हुए हैं और तीनों लोकों का भार लिए हुए मैं तुम्हारे रथ का संचालन कर रहा हूं.
यह चुनाव बताता है कि मोदी सरकार अगर अपने वादे पूरे नहीं करती है, तो फिर 2019 शायद उसके लिए कठिन परीक्षा साबित हो सकती है. राहुल गांधी के लिए स्पष्ट संकेत है कि वे अपनी बॉडी लैंग्वेज, अपनी सोच, अपने तर्क और अपनी भाषा शैली सुधारें. दूसरी तरफ, देश के तमाम विपक्षी दलों के साथ तार्किक संवाद करना और सीट शेयरिंग में ईमानदारी बरतना उनके लिए आवश्यक शर्त है. अगर राहुल गांधी ये दोनों चीजें नहीं करते हैं, तो उन्हें 2019 भूल जाना चाहिए और अपनी उसी लाइन पर चलना चाहिए, जिसमें उन्होंने कई दोस्तों से कहा है कि हम 2024 की तैयारी करें न कि 2019 की.
कर्नाटक चुनाव सबके लिए संदेश है. देश की जनता के लिए सबसे बड़ा संदेश यह है कि अब उसे राजनीतिक दलों से लोकलाज और नैतिकता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. जो भी राजनीतिक दल आएंगे, वो इन सब बातों की परवाह किए बिना सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करेंगे और इसका आधार सफलतापूर्वक रख दिया गया है.