भारत की संसद की परिकल्पना लोकतंत्र की समस्याओं और लोकतंत्र की चुनौतियों के साथ लोकतंत्र को और ज़्यादा असरदार बनाने के लिए की गई थी. दूसरे शब्दों में संसद विश्व के लिए भारतीय लोकतंत्र का चेहरा है. जिस तरह शरीर में किसी भी तरह की तकली़फ के निशान मानव के चेहरे पर आ जाते हैं, उसी तरह भारतीय लोकतंत्र की अच्छाई या बुराई के निशान संसद की स्थिति को देखकर आसानी से लगाए जा सकते हैं. आज भारत की संसद देश में पैदा हो रहे सवालों का जवाब नहीं तलाश पा रही है. सवालों का जवाब न तलाश पाना एक तरह की कमज़ोरी है, लेकिन सवालों की वजहों को भी न तलाश पाना अक्षमता है और यह संसद किसी भी मसले की वजह नहीं तलाश पा रही है. क्या यह मान लिया जाए कि बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, बैड गवर्नेंस या बेअसर शासन व्यवस्था, अपराध का बढ़ता जाना या फिर लोगों का पूरी व्यवस्था के प्रति निराश होना संसद की चिंता का कभी विषय नहीं बन पाएगा और संसद इन सवालों पर कभी परेशान नहीं दिखाई देगी.
हम संसद की कितनी भी इज्ज़त करें, इससे क्या फर्क़ पड़ता है. अगर देश के ज़्यादातर लोग यह कहें कि यह संसद ऐसे लोगों के क्लब में तब्दील हो गई है, जिनका देश की तकली़फ से कोई रिश्ता नहीं है. जब शरद यादव यह कहते हैं कि लोगों को संसद में ईमानदार व्यक्ति क्यों नहीं दिखाई देते तो इसका कारण भी उन्हें तलाशना चाहिए. शरद यादव को अपने समाजवादी सिद्धांत के ज्ञान का इस्तेमाल करने पर पता चलेगा कि संसद के चारों तऱफ अमानवीय, असंवेदनशील, लोगों की समस्याओं से दूर रखने की कोशिश करने वाली अभेद्य और अदृश्य दीवार खड़ी है, जिसके पार दिखाई नहीं देता और भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी एवं अपराध के रंग का शीशा लगा है, जिससे अंदर कुछ दिखाई नहीं देता. बहुत कोशिश करने पर शीशे से जब आम आदमी झांकता है तो उसे संसद में बैठे सभी चेहरे और सभी दल अनजान, अपरिचित, असंवेदनशील नज़र आते हैं. लोगों को किसी भी पार्टी से अलग दूसरी पार्टी के लोग नहीं दिखाई देते. जो आवाज़ें बाहर आती हैं, उनका स्वर अलग राग में सुनाई नहीं देता, बल्कि वे उस कोरस का हिस्सा लगती हैं, जिसका स्वर जनता के हितों के विरोध का है. शरद यादव का नाम हमने इसलिए लिया, क्योंकि शरद यादव वह अकेली आवाज़ हैं, जो संसद में अक्सर लोगों के पक्ष में बोलते दिखाई देते हैं. लेकिन अगर शरद यादव से ही पूछें कि वह अपने जैसे चार नाम और बता दें, जिनकी भाषा और अंदाज़ या समझ उनके जैसी है, तो वह नहीं बता पाएंगे. वामपंथी सदस्य अवश्य कभी-कभी बोलते हैं, पर उनकी भाषा और शैली स़िर्फ वे ही समझ पाते हैं. जो भाषा लोगों को समझ न आए, उसका कोई मतलब नहीं होता. जो भाषा लोगों के दु:ख, तकली़फ और दर्द का बयान न कर सके, वह लोगों के किस काम की? यह बात स़िर्फ संसद में बैठे सांसदों के कथन की है, उनकी करनी की नहीं.
अगर सांसदों की करनी की बात करें तो संसद के कई सारे सदस्य ऐसे हैं, जो मंत्रिमंडल में रहते हुए भ्रष्टाचार के घेरे में आ गए और जेल चले गए. कई सारे सदस्य ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए अपनी साख खो बैठे हैं. किसी एक अदालत से अपराध की सज़ा पाए हुए सांसदों की संख्या कितनी होगी, यह शायद संसद के सदस्यों को खुद नहीं मालूम. इन सब बातों को अनदेखा भी कर दें तो सिद्धांत रूप में संसद को जो काम करने चाहिए, क्या वह उन्हें कर रही है? संसद अगर वे काम नहीं कर रही है तो ऐसी संसद का मतलब संसद के लिए चुने गए सदस्यों के अलावा किसी और के लिए कुछ नहीं है. सांसदों को लेकर अ़फवाहों के बाज़ार हमेशा गर्म रहते हैं. सांसदों द्वारा पूछे गए सवाल जनहित के कम, कंपनियों या विभिन्न लॉबियों के पक्ष या विपक्ष के ज़्यादा होते हैं. कहने को लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर किसी सांसद से किसी स़िफारिशी पत्र पर दस्त़खत कराना हो तो अधिकांश मामलों में बिना भेंट दिए दस्त़खत नहीं हो सकते.
संसद के बारे में आम लोगों की राय कुछ ऐसी है, जैसी असंवेदनशील, क्रूर और स्वार्थ में लिप्त व्यक्तियों के बारे में होती है, जिन्हें अपने हित के अलावा दूसरे किसी का हित दिखाई ही नहीं देता. संसद के सदस्य भी अपनी इस तस्वीर को बदलना नहीं चाहते. इसीलिए संसद में होने वाली बहसों में संसद खुद नहीं दिखाई देती. लोकसभा टीवी का कैमरा दोपहर एक बजे के बाद ग़लती से यह चुगली कर देता है कि संसद में कोरम से भी कम लोग होते हैं. कभी कोई सदस्य अगर सवाल उठा दे तो कोरम की घंटी बजती है और तब संसद थोड़े समय के लिए स्थगित हो जाती है.
सन् पचास में घोषित भारतीय गणतंत्र की यह कैसी संसद है, जिसमें आज चुने गए सांसदों के चरित्र में भेद कर पाना मुश्किल है. जवाहर लाल जी, लाल बहादुर शास्त्री जी एवं इंदिरा जी, यहां तक की राजीव गांधी के समय भी सत्ता पक्ष और विपक्ष का चेहरा सा़फ था. पर अब कौन सत्ता पक्ष में है, कौन विपक्ष में, इसकी पड़ताल लगभग असंभव हो गई है. और उस समय, जब आप कहते हैं कि संसद सर्वोच्च है, सर्वोपरि है तो अचंभा होता है. संसद अगर सर्वोच्च है, सर्वोपरि है तो इसे किसानों के बीज का संकट दिखाई क्यों नहीं देता, किसानों की आत्महत्या इसे परेशान क्यों नहीं करती? किसानों के लिए जो सुविधाएं सरकार को देनी चाहिए, उनके प्रति यह मौन क्यों है? नौजवानों की बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य का टूटा हुआ ताना-बाना, दलित अल्पसंख्यक, पिछड़ों एवं ग़रीबों के आंसू इस महान संसद की चिंता का सबब क्यों नहीं हैं? क्या ये सारे नाम और इनसे जुड़ी हुई समस्याएं बिल्कुल बेमतलब हैं? इस महान और सर्वोच्च संसद को देश के 272 ज़िलों में फैलने वाला नक्सलवाद परेशान क्यों नहीं करता? क्या संसद यह समझ रही है कि नक्सलवाद के बढ़ने के पीछे आईएसआई, सीआईए या मोसाद जैसे संगठनों का हाथ है अथवा शायद संसद यह समझ रही है कि इन 272 ज़िलों में विकास हो गया है, सड़कें बन गई हैं, बिजली आ रही है, महंगाई नहीं है, बेरोज़गारी दूर करने के रास्ते तलाश लिए गए हैं, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के लिए स्कूल और अस्पताल खोले जा रहे हैं. इसके बावजूद इन ज़िलों में रहने वाले लोग भारतीय लोकतंत्र के प्रति नाशुक्रे हैं और झूठा शोर मचा रहे हैं.
संसद के बारे में आम लोगों की राय कुछ ऐसी है, जैसी असंवेदनशील, क्रूर और स्वार्थ में लिप्त व्यक्तियों के बारे में होती है, जिन्हें अपने हित के अलावा दूसरे किसी का हित दिखाई ही नहीं देता. संसद के सदस्य भी अपनी इस तस्वीर को बदलना नहीं चाहते. इसीलिए संसद में होने वाली बहसों में संसद खुद नहीं दिखाई देती. लोकसभा टीवी का कैमरा दोपहर एक बजे के बाद ग़लती से यह चुग़ली कर देता है कि संसद में कोरम से भी कम लोग होते हैं. कभी कोई सदस्य अगर सवाल उठा दे तो कोरम की घंटी बजती है और तब संसद थोड़े समय के लिए स्थगित हो जाती है. कोरम का पूरा न होना सत्ता पक्ष और विपक्ष की असंवेदनशीलता का जीता-जागता प्रमाण है. क्या सांसद खुद संसद का अपमान नहीं कर रहे हैं और अगर हम विनम्रता से यह कहें कि सांसदों द्वारा किए जा रहे इस अपराध की चिंता न लोकसभा के अध्यक्ष को है और न राज्यसभा के सभापति को, तो क्या हमारा यह कहना अतिशयोक्ति भरा है? संसद के सदस्य अगर चाहें तो हमें जवाब दे सकते हैं. सरकार के बारे में अब कुछ कहने का मतलब नहीं है. सरकार निरंकुश, असंवेदनशील, एकपक्षीय और जनता के हितों के बिल्कुल विपरीत ़फैसले लेने में महारथ हासिल कर चुकी है. संसद में अब चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी जैसा एक भी सांसद नहीं है, जो अकेले खड़ा होकर सवाल पूछे और जब वह अपनी बात कहे तो संसद उसे ध्यान से सुने.
और, आप चाहते हैं कि हम इस संसद को सर्वोच्च मानें. नहीं, हम आपको सर्वोच्च नहीं मानते, हम आपको संवेदनशील नहीं मानते, हम आपको ग़रीबों का पक्षधर नहीं मानते. आज जनता भी इसी फैसले पर पहुंच चुकी है और कल जब उसे फैसला देना होगा तो वह आपके पक्ष में फैसला नहीं देगी. जनता इंतज़ार कर रही है कि अब ऐसे लोग संसद में पहुंचें, जो उसकी समस्याओं को हल करने का वायदा चुने जाने के छह महीने के भीतर करें. जनता की समस्याएं सा़फ हैं, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी. अगर इनका हल निकालने का कार्यक्रम जिसके पास नहीं है, उसे चुनने में जनता शायद अब संकोच करे. व़क्त बदल रहा है, चेहरों से नक़ाब उतर रहे हैं, राजनीतिक तंत्र की विफलता और उसका खोखलापन लोगों के सामने आ रहा है. हो सकता है, देश एक बार फिर इतिहास की नई इबारत लिखने की कोशिश करे. इस इबारत को न लिखने देने की हरचंद कोशिश होगी, पर ज़िंदगी की आस लिए हुए लोग उन सारी कोशिशों को नाकाम कर देंगे. संसद को समझना चाहिए कि ये बातें हम नहीं लिख रहे हैं, ये बातें इस देश के लोगों के मन में हैं, जिन्हें हम स़िर्फ शब्द दे रहे हैं. हम फिर कहते हैं कि आपने सर्वोच्च होने का अधिकार खो दिया है. जो तकनीकी तौर पर सर्वोच्च होता है, वह तानाशाह होता है और जो दिलों में सर्वोच्च होता है, वह जननायक होता है.