प्रधानमंत्री जी, अभी भी व़क्त है

jab-top-mukabil-ho1केंद्र में कांग्रेस की सरकार है और अब कांग्रेस को अपनी आंखें खोलनी चाहिए. जिस देश में सेना सरकार से नक्सलवादियों पर हमला करने की इजाज़त मांगे, भले बहाना लें कि जब उस पर हमला हो तब, तो स्थिति की विकरालता का अनुमान लग जाता है. सेना की भूमिका देश के भीतर है ही नहीं, उसे तो देश की सीमा की निगरानी और पड़ोसियों के हमले से बचाव के लिए तैयार किया गया है. क्यों ऐसी स्थिति आ गई कि देश के नागरिकों के वंचित तबकों ने जगह-जगह हथियार उठा लिए और हमारी पुलिस, अर्द्ध सैन्य बल उनका मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं? अब सेना को सामने आने की अनुमति मांगनी पड़ रही है.

कश्मीर में हम पाकिस्तान पर आरोप लगाते हैं कि वहां प्रायोजित आतंकवाद है. होगा भी. लेकिन आंध्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार में क्या है? सारे उत्तर-पूर्वी राज्य, असम सहित उग्रवादियों के क़ब्ज़े में हैं. इन प्रदेशों के बहुत से क्षेत्रों में शाम होते ही लोग बाहर निकलना बंद कर देते हैं. इन क्षेत्रों को नक्सलवादी प्रभाव वाले क्षेत्र कहा जाता है, पर जहां इनका प्रभाव नहीं है, वहां भी शाम के बाद लोग घर में ही रहना पसंद करते हैं. ये कौन लोग और किस धर्म के हैं जिन्होंने सरकार के ख़िला़फ हथियार उठा लिए हैं, जो जीने से ज़्यादा मरने में यक़ीन करते हैं. शिक्षा पाए अच्छे परिवारों के लड़के-लड़कियां, बड़े प्रतिष्ठित स्कूलों की पैदाइश एक अच्छी ख़ासी संख्या में गांवों में नक्सलवादियों के साथ घूम रही है और कह रही है कि व्यवस्था बदलो.

व्यवस्था बदलो का मतलब सरकार क्यों नहीं समझ रही है? हमारे गृह मंत्री नक्सलवाद को हथियारों से कुचलना चाहते हैं, वे कुचल सकते हैं, कम से कम कोशिश कर सकते हैं. आज तक का अनुभव बतलाता है कि ऐसी कोशिशें जब भी हुई हैं, निर्दोषों का ख़ून ज़्यादा बहा है. एक मरता है, चार खड़े हो जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री नक्सलवाद को सबसे बड़ा ख़तरा बताते हैं, पर अर्थशास्त्र के ज्ञाता यह भूल जाते हैं कि इसके कारण भी तो उन्हें बताने हैं. वे बता नहीं पाएंगे, क्योंकि दरअसल जिस अर्थशास्त्र के वे ज्ञाता हैं, वही अर्थशास्त्र इस समस्या की जड़ है.

सरकारी योजनाएं असफल, सरकार का विकास अधूरा, ग़रीब को अर्थव्यवस्था में हिस्सा ही नहीं मिलता, जबकि उसका अधिकार सबसे ज़्यादा है. यही अर्थशास्त्र धर्म के आधार पर लोगों को बांट देता है. यह ज़मीन है जो नक्सलवाद को पैदा करती है.

जब ग़रीब अपनी आवाज़ उठाता है तो उसे आश्वासन मिलता है, जो कभी पूरा नहीं होता. ग़रीब अगर शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात रखे तो सरकार उसकी समस्या को समस्या ही नहीं मानती. अभी दो साल पहले पच्चीस हज़ार ग़रीब ग्वालियर से पैदल चलकर दिल्ली आए थे. उनकी व्यथा को अख़बारों और टीवी में जगह नहीं मिली. जब वे दिल्ली पहुंचे तो उनके बीच उस समय के ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह पहुंचे और उन्होंने सभी समस्याएं सुलझाने का वायदा किया. समस्याएं थीं, ज़मीन की बेदख़ली, अधिग्रहण न हो, ग़रीब को उजाड़ा न जाए, रोजी-रोटी के बारे में सोचा जाए.

दो साल बीत गए पर कुछ नहीं हुआ. अब अक्टूबर के आख़िरी सप्ताह में तीन हज़ार लोग फिर दिल्ली आ रहे हैं और कहने जा रहे हैं कि अपना वायदा याद करो सरकार मनमोहन सिंह. अगर नहीं याद किया तो एक लाख लोग दिल्ली में करो या मरो के नाम से आएंगे और दिल्ली को ग़रीबों की ताक़त दिखाएंगे.

अभी सरकार नहीं चेत रही. ये एक लाख लोग अगर निराश हुए तो क्या होगा? हो सकता है, नए नक्सलवादी क्षेत्र बन जाएं. गृह मंत्री को क़ानून व्यवस्था का सवाल बनाते कितनी देर लगेगी. गृह मंत्री को भारत के सामाजिक दबाव, सामाजिक अंतर्विरोध, व्यवस्था परिवर्तन का मतलब, लोगों का दु:ख, दर्द, भूख, प्यास, असमानता जैसे शब्दों का मतलब भी समझना चाहिए. और, तभी वे समझ पाएंगे कि स़िर्फ क़ानून व्यवस्था का नाम लेने भर से समस्या हल नहीं होगी. देश के गृह मंत्री और प्रधानमंत्री को बंदूक़ की भाषा से अलग सामाजिक बदलाव की भाषा भी समझनी चाहिए. अगर वे नहीं समझते तो हमें मान लेना चाहिए कि देर हो रही है और नौजवानों का धीरज चुक रहा है. उन्हें खोखले वायदों और ख़त्म होते अवसरों की सच्चाई का पता चल रहा है. वे निराश हो रहे हैं. उनकी निराशा अब वायदों की बारिश से नहीं भीगने वाली.

हमें कहते हुए बहुत ख़ुशी नहीं हो रही कि जिस दिन सेना भारत के आंतरिक क़ानून व्यवस्था के सवालों में उलझेगी, उस दिन लोकतंत्र का क्या होगा? सेना वहीं लोकतंत्र के ख़िला़फ खड़ी हुई है, जहां सेना का नागरिक प्रशासन या उसकी असफलता से वास्ता पड़ा है. दुनिया के उन देशों की, जहां फौज शासन कर रही है या कर चुकी है, ऐसा ही इतिहास है.

तो अपने वायदों को याद कीजिए प्रधानमंत्री जी. सौ दिन का रिपोर्ट कार्ड क्या है? अगले सौ दिनों का कोई एजेंडा आप बनाने जा रहे हैं या हमें आपके बयान को नज़रअंदाज़ करने की आदत डाल लेनी चाहिए. आप राज्यों के विधानसभा चुनाव जीत जाएं बहुत अच्छा, हार जाएं तो भी लोगों की ज़िंदगी पर क्या फर्क़ पड़ने वाला है? अभी तो आपका विरोध करने के लिए न भाजपा में इच्छाशक्ति है और न ही वामपंथियों में हिम्मत. शासक भी आप, विरोधी दल भी आप.

लेकिन, यह ख़तरनाक हालत है. देश की जनता आपके हाथ से निकल न जाए, इसके लिए तत्काल चेतने की ज़रूरत है. देश को नई शिक्षा व्यवस्था, नए रोज़गार के अवसर, न्याय की भ्रष्टाचार रहित व्यवस्था तथा ग़रीब की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी जैसी बातें टालनी नहीं चाहिए. अपनी ज़िम्मेदारी समझिए और उसे निभाइए.


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