बिहार में महा-गठबंधन सरकार के गठन के साथ ही एक नई राजनीति का सूत्रपात हो गया है. पूरे देश की नज़र बिहार सरकार पर टिक गई है और बिहार सरकार की नज़र राज्य के विकास पर. इस सरकार से राज्य की जनता को बहुत आशाएं हैं और भरोसा भी. अगर यह महा-गठबंधन सरकार बिहार को विकास की पटरी पर लाकर उसे देश में एक नए मॉडल के रूप में पेश करने में सफल होती है, तो देश की राजनीतिक दशा-दिशा पूरी तरह बदल जाएगी. नीतीश कुमार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने. सबेरे से पूरा पटना शहर झंडियों से, झंडों से, बड़े-बड़े फोटोग्राफ्स से कुछ इस तरह भरा हुआ लग रहा था, मानों लग रहा हो कि यह समारोह कांग्रेस का है. नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की खुशी जितनी ज़्यादा लोगों में नहीं थी, उससे ज़्यादा खुशी कांग्रेस ने स्वयं को सालों बाद सत्ता में आने पर प्रकट की. पूरा शहर ऐसा लग रहा था, मानों कांग्रेस के सरकार बनाने की घोषणा कर रहा हो. और, शायद यही कांग्रेस का बेस्ट पार्ट है. उसे स्वयं को प्रचार की क्रीज में रखना तो कम से कम आता है और यही उसने पटना में किया. कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी शपथ ग्रहण समारोह में आए. कांग्रेस के लगभग सारे मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण समारोह में आए, चाहे वह कर्नाटक के रहे हों, असम के रहे हों या फिर हिमाचल के. कांगे्रस के वे सारे नेता पटना में नज़र आए, जो अब तक दुबके पड़े थे. लालू यादव को अपने मंत्रियों को चुनने में परेशानी हुई होगी, क्योंकि दो लड़के तो उनके अपने घर में बेटों के रूप में हैं और कोई यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका कि किसी एक बेटे को मंत्री बना दीजिए, दूसरे को बाद में बना दीजिएगा अथवा दोनों बेटों को तीन या चार महीने के बाद मंत्री बना दीजिएगा. शायद घर के भीतर एक दूसरा युद्ध आरंभ हो जाता. लालू यादव के 80 विधायकों में से हर एक को आशा थी कि वह इस बार मंत्री बनेगा, लेकिन लालू यादव की मजबूरी यह थी कि उन्हें स़िर्फ 16 पद मिलने थे. अब्दुल बारी सिद्दीकी को चौथे नंबर पर शपथ लेनी पड़ी, जबकि वह राजनीति में राजद में सबसे वरिष्ठ नेता माने जाते हैं. अगर उनके मुस्लिम होने को अनदेखा भी कर दें, तो जयप्रकाश आंदोलन से लेकर अब तक उनकी गंभीरता और साख उन्हें दूसरे नंबर पर शपथ लेने की योग्यता दर्शाती है, पर उन्हें चौथे नंबर पर शपथ लेनी पड़ी. पहले नंबर पर नीतीश कुमार, दूसरे नंबर पर तेजस्वी यादव और तीसरे नंबर पर लालू यादव के दूसरे पुत्र तेज प्रताप ने शपथ ली. लालू यादव की तऱफ से 12 लोगों ने शपथ ली, जिनमें से दो पहले भी मंत्री रह चुके हैं, बाकी सारे बिल्कुल नए हैं. शायद यह लालू यादव की इच्छा न भी रही हो, मजबूरी रही हो, क्योंकि बेटों की एक अलग दुनिया बन जाती है और उस दुनिया में दोस्तों का दखल बहुत ज़्यादा हो जाता है. वैसे लालू यादव को पहले भी यह कहने में कोई संकोच नहीं था कि बाप का उत्तराधिकारी बेटा ही होता है और उन्हें अपने दोनों बेटों को आगे बढ़ाना ही था. पहले लोगों का अंदाज़ था कि उनकी बेटी मीसा भारती उप-मुख्यमंत्री बनेंगी, पर अंतत: लालू यादव ने तय किया कि उनके छोटे पुत्र तेजस्वी यादव उप-मुख्यमंत्री बनें और उनकी बेटी मीसा राज्यसभा में जाएं. और, इन सारे क़दमों को लेकर राजद में किसी तरह का कोई असंतोष नहीं है. ग़ौरतलब है कि राजद सत्ता में हिस्सेदारी करने लगभग दस सालों के बाद आया है. यही परेशानी नीतीश कुमार के सामने थी. नीतीश को अपने विधायकों में से स़िर्फ 14 को मंत्री बनाना था. पहले नीतीश के साथ 36 मंत्री थे. इसलिए उन्हें निर्ममता से फैसला लेना पड़ा कि वह किसे मंत्री बनाएंगे और किसे नहीं. इस क्रम में उनके सबसे खास लोग भी मंत्रिमंडल में नहीं आ पाए. वे सारे खास लोग नाराज़ हैं. नीतीश कुमार को अपने साथियों को समझाने में दिक्कत अवश्य आई होगी, लेकिन मेरा इतना अंदाज़ ज़रूर है कि उन्होंने इस बार किसी को समझाया नहीं कि किसे मंत्रिमंडल में लिया जा रहा है और किसे नहीं. अ़खबारों में कई दिनों से खबरें आ रही थीं कि प्रशांत किशोर, जो नीतीश कुमार के नए सर्वोच्च अंतरंग मित्र हैं, ने मंत्रिमंडल के पुराने सदस्यों की ग्रेडिंग की है. मतलब यह कि किसने कितना काम किया और किसने नहीं किया. किसकी छवि ठीक है और किसकी छवि ठीक नहीं है. प्रशांत किशोर के सिर पर यह सेहरा है कि उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में सर्वे के हथियार का सही फैसला लेने में बखूबी इस्तेमाल किया. इसलिए जदयू से किसे मंत्री बनाना चाहिए, किसे नहीं बनाना चाहिए, इसमें उनका रोल अवश्य रहा होगा, क्योंकि प्रशांत किशोर पहले ही अ़खबारों में बयान दे चुके थे कि वह एक अनोखा मंत्रिमंडल बिहार को देने वाले हैं. मंत्रिमंडल बन गया, लेकिन नीतीश कुमार के सामने चुनौतियां बढ़ गईं. चुनौतियां इसलिए भी बढ़ गई हैं, क्योंकि उनके सामने नरेंद्र मोदी का उदाहरण है. नरेंद्र मोदी ने जितने बयान प्रधानमंत्री बनने से पहले और प्रधानमंत्री बनने के बाद दिए, बिहार की जनता ने उनमें से हर एक को अपने आस-पास के विकास के साथ आंका, समस्याओं से आंका और उसने फैसला लिया कि उसे नरेंद्र मोदी की बात के ऊपर विश्वास नहीं करना चाहिए. नतीजतन, डेढ़ साल के भीतर नरेंद्र मोदी को अपने प्रधानमंत्री जीवन की सबसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. नीतीश कुमार ने भी वायदे किए हैं और लोगों को स्वयं के विकास पुरुष होने का एहसास कराया है, ऐसे में अगर वह बिहार के लोगों की ज़िंदगी में अब परिवर्तन नहीं ला पाते और देश के सामने बिहार मॉडल जैसी चीज प्रस्तुत नहीं करते, जो बाज़ारवादी आर्थिक विकास से अलग जनोन्मुख विकास का मॉडल हो, तो लोगों का मन टूटना शुरू हो जाएगा. इसलिए ज़रूरी है कि वह बिहार के विकास का नक्शा बहुत धैर्य के साथ बैठकर बनाएं. विकास के नक्शे के बुनियादी क़दम सड़क, अस्पताल, शिक्षा, पेयजल और बिजली होने चाहिए. जब ये पांच चीजें बिहार के लोगों को मिल जाएं, तो उसके बाद कुछ और हो, तो काम मुश्किल नहीं रहेगा. नीतीश कुमार के इस लक्ष्य को पूरा करने में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के मंत्री कितना सहयोग करते हैं, यह यक्ष प्रश्न है. राष्ट्रीय जनता दल में स़िर्फ दो मंत्रियों को सरकार चलाने का अनुभव है और बाकी सारे मंत्री नए हैं. हमने देखा है कि सत्ता में आने के बाद जो नए मंत्री होते हैं, वे बहुत जल्दी उन लोगों से घिर जाते हैं, जो रास्ता भटकाने में माहिर होते हैं. उन्हें हम दलाल कह सकते हैं, पूंजीपतियों के एजेंट कह सकते हैं और दूसरे दलों द्वारा भेजे हुए प्रतिनिधि कह सकते हैं. वे इतने होशियार होते हैं कि नए मंत्रियों को अपने जाल में फंसा लेते हैं. कांग्रेस के भी जितने मंत्री बने हैं, उनमें से एक को छोड़कर बाकी सभी नए हैं. किसी को भी यह अनुभव नहीं है कि ब्यूरोक्रेसी को कैसे नियंत्रण में रखा जाए. मिलता-जुलता हाल जदयू का है, उसके भी आधे से ज़्यादा मंत्री नए हैं. कैसे सब एक ताल पर चलें, यही देखने की बात है. एक ताल पर अगर सब नहीं चलते हैं, तो बिहार विकास के कैसे रास्ते के ऊपर जाएगा, अभी नहीं कहा जा सकता. नीतीश कुमार के सामने चुनौती यह भी है कि वह तीनों दलों के मंत्रियों को एक सुर में और एक ताल पर कैसे चलाएंगे. अगर नीतीश कुमार चला ले गए, तो वह बिहार के विकास को एक मॉडल के रूप में देश के सामने रख पाएंगे. प्रमुख मंत्रालयों का जिस तरह बंटवारा हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि विकास से संबंधित ज़्यादातर विभाग राष्ट्रीय जनता दल के मंत्रियों के पास हैं. और, जब गठबंधन सरकार होती है, तो मुख्यमंत्री बहुत कम दखल देता है. दरअसल, गठबंधन सरकारों का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि हर मंत्री मुख्यमंत्री बन जाता है. यह हमने केंद्र में यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार में देखा कि जितने मंत्री थे, वे सब प्रधानमंत्री थे. अगर कहीं बिहार में भी ऐसा हुआ कि राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के मंत्रियों ने यह रुख लेना शुरू कर दिया कि हम अपने विभाग में जो चाहेंगे, सो करेंगे, मुख्यमंत्री को बोलने का कोई हक़ नहीं है, तो विकास की गाड़ी पटरी से उतर जाएगी. शपथ ग्रहण समारोह में सबसे खुश अगर कोई दिखाई दिया, तो वह राबड़ी देवी थीं. उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके दोनों पुत्र सबसे महत्वपूर्ण मंत्री बनेंगे. मां की खुशी आंखों और चेहरे, दोनों पर थी. दूसरी खुशी कांग्रेस के दूसरे प्रदेशों से आए नेताओं में थी. शपथ ग्रहण के बाद नीतीश कुमार के घर पर हुई चाय पार्टी में दूसरे प्रदेशों के नेता बिहार के नेताओं को बधाई दे रहे थे और कह रहे थे कि भाई, आपने देश में कांग्रेस को ज़िंदा कर दिया. बिहार कांग्रेस के नेता और मंत्री उनके इस बधाई संदेश को स्वीकार कर रहे थे. दरअसल, कांग्रेस ज़िंदा हुई है. कांग्रेस को कभी सपने में भी आशा नहीं थी कि उसे बिहार में 27 सीटें मिल जाएंगी, लेकिन मिलीं और एक संदेश दे गईं कि अब अकेले कांग्रेस का चलना मुश्किल है. राहुल गांधी भी काफी गर्व से और मुस्कुरा कर कांग्रेस की जीत को अपनी जीत मानते दिख रहे थे. पर यहीं से कांग्रेस के लिए एक ख़तरा शुरू हो रहा है. कांग्रेस अगर नीतीश कुमार के साथ बिना शर्त खड़ी होती है, तो प्रदेश में कांग्रेस को प्रासंगिकता मिलती है और अगर उसने अपने केंद्रीय नेताओं के निर्देश के ऊपर बिहार में विकास का नक्शा बनाया, तो शायद यह उसके लिए आने वाले लोकसभा चुनाव में बिहार में बहुत मददगार साबित नहीं होगा. लालू यादव बिहार और महा-गठबंधन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. इसी सवाल को लेकर देश का मीडिया या बिहार का मीडिया नीतीश के साथ खेलेगा, जैसे कि नीतीश और लालू क्या कहते हैं, उसका दूसरा व्यक्ति क्या प्रतिक्रिया देता है, दोनों में कौन महत्वपूर्ण है. लालू यादव के एक बयान के सौ अर्थ निकाले जाएंगे और नीतीश के एक बयान के दो सौ अर्थ निकाले जाएंगे. अगर ये दोनों लोग मीडिया के जाल में फंस गए, तो बिहार सरकार डगमगाने लगेगी. यद्यपि संख्या का बंटवारा इतना जादुई है कि यदि कोई डगमगाता है, तो उसे फिर मध्यावधि चुनाव का खतरा उठाना पड़ेगा, क्योंकि किसी अन्य के साथ मिलकर कोई सरकार बिहार में बनाई ही नहीं जा सकती. लालू यादव एवं नीतीश कुमार के साथ मीडिया एक और सवाल पर खेलेगा. वह उनके बेटों के मंत्रालयों में लिए गए ़फैसलों को चर्चा का विषय बनाएगा. देश में पूरा सोशल मीडिया लालू यादव के दोनों बेटों की शिक्षा और उनकी बातचीत के तरीके को लेकर चर्चाओं से भरा पड़ा है. अब मंत्रिमंडल में होने वाली चर्चा या मंत्रालयों में होने वाले फैसले मीडिया के लिए एक अचूक औजार बन जाएंगे और वह चाहेगा कि इन्हें लेकर बिहार की सरकार में कुछ अस्थिरता आए और जो समीक्षा नहीं होनी चाहिए, वैसी समीक्षा भी बिहार के मंत्रिमंडल के फैसलों की होगी. इसलिए कोई मंत्री सावधान रहे या न रहे, लेकिन लालू यादव के दोनों बेटों को अपने फैसलों, अपनी भाषा और अपने व्यवहार को लेकर ज़्यादा सावधान रहना चाहिए. अन्यथा लोगों के बीच साख के ऊपर सवाल खड़े होने लगेंगे. बिहार की क़ानून व्यवस्था भी नीतीश कुमार के लिए परीक्षा की कसौटी होगी. क़ानून व्यवस्था जितनी सुधरी है, उससे और ज़्यादा उसे सुधारना होगा. अन्यथा भारतीय जनता पार्टी के जंगलराज वाले प्रचार अभियान को लोग फिर माइक्रोस्कोपिक ग्लास से देखने लगेंगे. लेकिन, जिस तरह का तालमेल अभी लालू यादव और नीतीश कुमार में दिखाई दे रहा है, उससे लगता है कि नीतीश कुमार को कोई परेशानी निकट भविष्य में होने वाली नहीं है. शपथ ग्रहण समारोह में मुलायम सिंह का न आना लोगों को काफी अखरा. मुलायम सिंह ने जनता परिवार को इकट्ठा किया था, सबसे मालाएं पहनी थीं और सबने उन्हें एक राय से अपना नेता माना था, लेकिन मुलायम सिंह बिहार चुनाव में एक अलग गठबंधन बनाकर कूदे. उनकी सीटें नहीं आईं, यह एक अलग सवाल है. उन्होंने नीतीश कुमार का निमंत्रण स्वीकार भी कर लिया, लेकिन अपनी समाजवादी पार्टी के किसी भी व्यक्ति को शपथ ग्रहण समारोह में नहीं भेजा. जानकारी के अनुसार, मुलायम सिंह से लालू यादव ने भी बात की और नीतीश कुमार ने भी बात की. मुलायम सिंह ने पहले कहा कि वह आएंगे, लेकिन एक दिन पहले उन्होंने अपने न आने की ़खबर अ़खबारों में लीक करा दी और शपथ ग्रहण के दिन अखिलेश यादव को भी आने से मना कर दिया. इसलिए उत्तर प्रदेश में भविष्य में क्या नक्शा बनेगा, यह एक दिलचस्प प्रश्नचिन्ह के रूप में सामने खड़ा हो गया है. असम में होने वाले चुनाव के लिए एक नई आधारशिला नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में दिखाई दी. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के साथ-साथ यूडीएफ के प्रेसिडेंट बदरुद्दीन अजमल भी शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद थे और यह माना जा रहा कि अगर नीतीश कुमार बीच में पड़ें, तो असम में कांग्रेस, जदयू और यूडीएफ के बीच एक वैकल्पिक गठबंधन बन सकता है. आने वाले दिनों में पंजाब में भी चुनाव हैं, असम में भी हैं और उत्तर प्रदेश में भी. इस शपथ ग्रहण समारोह में एक नए तरह के दिलचस्प समीकरण बने. पश्चिम बंगाल के धुर-परस्पर विरोधी ममता बनर्जी और सीपीएम के राष्ट्रीय महासचिव सीताराम येचुरी पहली कतार में बैठे थे. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और यूडीएफ के प्रेसिडेंट बदरुद्दीन अजमल इस शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए, जो अब तक आमने-सामने चुनाव लड़ते थे. तमिलनाडु से स्टालिन, जो करुणानिधि के बाद डीएमके के सबसे सशक्त नेता हैं और अन्ना डीएमके के टीआर बालू शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर थे. पंजाब से सुखबीर सिंह बादल और उनके मुक़ाबले चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस शपथ ग्रहण समारोह में थे. कांग्रेस की वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी उनके साथ थीं और वे आपस में बातचीत करते दिखाई दिए. तमिलनाडु से सीपीआई सांसद एवं पार्टी सचिव डी राजा इस शपथ ग्रहण समारोह में थे और वह कम्युनिस्टों से लड़ने वाली ममता बनर्जी से लगातार बातचीत करते दिखाई दिए. इसी तरह कर्नाटक से भूतपूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा और उनके पुराने शिष्य, जो अब कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं सिद्धारमैया, इस समारोह में आए. जम्मू-कश्मीर से फारुख अब्दुल्ला एवं उमर अब्दुल्ला आए. इसी तरह झारखंड में एक-दूसरे के खिला़फ चुनाव लड़ने और राजनीति करने वाले हेमंत सोरेन, बाबूलाल मरांडी एवं सरयू राय भी समारोह में मौजूद थे. यह दृश्य बता रहा था कि शायद देश में एक नए तरीके की राजनीतिक समझदारी विकसित हो रही है. यह समझदारी अगर बिहार में विकसित होती है, तो यह नीतीश कुमार के व्यक्तित्व की स्वीकार्यता का संदेश देती है. देश से लगभग दो लाख लोग अपने पैसों से इस शपथ ग्रहण समारोह का हिस्सा बनने आए. कांग्रेस को जदयू और राजद का पूरा वोट मिला तथा उन्हें भी कांग्रेस का वोट मिला. भाजपा यह मानकर बैठी थी कि लालू का वोट नीतीश को ट्रांसफर नहीं होगा, नीतीश का वोट लालू को ट्रांसफर नहीं होगा और कांग्रेस का वोट किसी को ट्रांसफर नहीं होगा. पर भारतीय जनता पार्टी की आशा उस समय निराशा में बदल गई, जब तीनों पार्टियों का वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर हो गया. अगर हम ट्रेडिशनल वोट ट्रांसफर की भाषा में चीजों को जानना चाहें, तो हमें पता लग जाएगा. वैसे मोटे तौर पर नीतीश कुमार बिहार के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में प्रथम स्थान पर जहां खड़े थे, वहीं पर अभी भी खड़े हैं और अभी भी कोई ऐसा नहीं दिखाई देता, जो नीतीश कुमार की इस छवि को धूमिल कर सके. इसलिए एक चुनौती नीतीश कुमार के सामने भी है, लालू यादव के सामने भी है, कांग्रेस के सामने भी है और पूरे बिहार के सामने भी है कि अगर किसी भी तरह इस गठबंधन में मरमरी शुरू होती है या किन्हीं फैसलों को लेकर या किन्हीं क़दमों को लेकर कोई भटकाव नज़र आता है, तो मीडिया में ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहेंगे. और, अगर उन्होंने फायदा उठा लिया, तो जिस अद्भुत प्रयोग की शुरुआत बिहार में हुई है, वह फिर कहीं और हो पाएगा, हाल-फिलहाल तो नहीं दिखाई देता. अगला चुनाव उत्तर प्रदेश एवं पंजाब में है और उत्तराखंड में भी. देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा विरोध की राजनीति किस तरह से आगे बढ़ती है और श्रेय लेने की होड़ में कहीं ऐसा न हो चले कि भाजपा विरोध की राजनीति की भ्रूण हत्या हो जाए.