प्रेसीडेंट बुश के ऊपर जूता क्या चला, सारी दुनिया में जूतों की बहार आ गई. हमारे देश में भी यह दूसरा या तीसरा वाक़िया है, जब राजनेताओं के ऊपर हमले हुए. जनार्दन द्विवेदी पर जूता फेंका गया और अब शरद पवार को एक शख्स ने थप्पड़ मारा. ये घटनाएं दो तरह के संकेत देती हैं. पहला संकेत यह है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों से नौजवानों का भरोसा उठ रहा है. उन्हें यह लगता है कि धरना-प्रदर्शन, भूख हड़ताल, सिविल ना़फरमानी, ये शब्द बेमानी हो गए हैं और इनके ऊपर अमल करने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है. खासकर, सरकारें इन तरीक़ों से कही हुई बात नहीं सुनतीं. किसी भी प्रदेश की राजधानी चले जाएं तो वहां आपको दो साल से, कहीं तीन साल से, कहीं पांच साल से तंबू लगाए अपनी मांगों की फरियाद सरकार के कानों तक पहुंचाने के लिए अनशन करते लोग मिल जाएंगे. लेकिन बड़े पैमाने के आंदोलन नहीं हो रहे हैं. बड़े पैमाने के आंदोलन से मतलब, किसी भी एक मुद्दे को लेकर राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या जनता का कोई एक वर्ग संगठित होकर अपनी बात कहे, ऐसा दिखाई नहीं देता. जो चीज़ें दिखाई देती हैं वे हैं, जाति के समर्थन में उठी हुई आवाज़ें. चाहे वह जाटों की आवाज़ हो या गूजरों की आवाज़. इस तरह के जातिगत समूहों की आवाज़ें जब उठती हैं तो लोग इकठ्ठे होते हैं, सड़कें भी जाम होती हैं और रेलें भी रोकी जाती हैं. कुछ लोग घायल होते हैं, कुछ मरते हैं. सरकार आश्वासन दे देती है और मांगें वहीं की वहीं अपना दम तोड़ देती हैं. दक्षिण में जनांदोलन अवश्य दिखाई दे रहा है और वह है तेलंगाना का आंदोलन, जहां पर छात्र बड़े पैमाने पर चाहे वे उस्मानिया यूनिवर्सिटी के हों या आंध्र प्रदेश की किसी अन्य यूनिवर्सिटी के हों, वे तेलंगाना के समर्थन या विरोध में सड़कों पर हैं. अभी तक लोगों के बीच आपस में लड़ाई नहीं हुई है. पर सरकार के मुक़ाबले तेलंगाना के विरुद्ध और तेलंगाना के समर्थन में आंदोलन ज़रूर हो रहा है.
शरद पवार को लगे थप्पड़ का दूसरा संकेत भी है. संकेत है कि यह सरकार ऐसी स्थिति पैदा कर रही है, जिससे लोग उत्तेजित हों और इतने उत्तेजित हों कि देश एक गहरी अशांति में डूब जाए. ये बातें मैं बहुत ख़ुशी से नहीं कह रहा हूं. इसलिए कह रहा हूं कि पिछले दस साल नहीं, बल्कि पिछले बीस साल को देखें तो सरकार ने लोगों की समस्याओं पर ध्यान देना तो बंद ही कर दिया है, साथ ही स्वयं ही समस्याएं पैदा कर रही है. खाद, बीज, पानी, बिजली, जो किसान के लिए सबसे आवश्यक तत्व हैं, उसकी ज़िंदगी के लिए, उसके परिवार के लिए, इस देश की ग्रामीण संरचना के लिए, उन्हीं सारी चीज़ों को सरकार दिनोदिन महंगा करती चली जा रही है.
इससे यह भी सा़फ पता चलता है कि राजनीतिक दल अब कोई मांग नहीं कर रहे हैं तो लोगों को स्वयं अपनी मांगों के लिए खड़ा होना पड़ रहा है और वे संगठित रूप से नहीं, क्योंकि संगठन का आज के दौर में कोई मतलब रह नहीं गया है. अब तो चुनावों में भी कार्यकर्ता नहीं मिलते, बल्कि पैसे देकर लाए हुए एजेंट मिलते हैं. या पैसे देकर ख़रीदे हुए कार्यकर्ता चुनाव में काम करते हैं. राजनीति में कार्यकर्ता शब्द का मतलब धीरे-धीरे बदल रहा है. इसलिए कुछ अपनी मांगों के समर्थन में भूख हड़ताल कर रहे हैं, कुछ धरने पर बैठे हुए हैं और जो यह सब नहीं कर सकते और बहुत ज़्यादा निराश हो जाते हैं, वे आत्महत्या कर लेते हैं. कुछ बंदूक़ भी उठा लेते हैं. और बंदूक़ उठाने वाले लोगों को हम नक्सलाइट के नाम से जानते हैं.
शरद पवार को लगे थप्पड़ का दूसरा संकेत भी है. संकेत है कि यह सरकार ऐसी स्थिति पैदा कर रही है, जिससे लोग उत्तेजित हों और इतने उत्तेजित हों कि देश एक गहरी अशांति में डूब जाए. ये बातें मैं बहुत ख़ुशी से नहीं कह रहा हूं. इसलिए कह रहा हूं कि पिछले दस साल नहीं, बल्कि पिछले बीस साल को देखें तो सरकार ने लोगों की समस्याओं पर ध्यान देना तो बंद ही कर दिया है, साथ ही स्वयं ही समस्याएं पैदा कर रही है. खाद, बीज, पानी, बिजली, जो किसान के लिए सबसे आवश्यक तत्व हैं, उसकी ज़िंदगी के लिए, उसके परिवार के लिए, इस देश की ग्रामीण संरचना के लिए, उन्हीं सारी चीज़ों को सरकार दिनोदिन महंगा करती चली जा रही है. योजना आयोग यह कहता है कि हम इस पर से सब्सिडी हटाएंगे, क्योंकि ऐसा विश्व बैंक या अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष का रोड प्लान है. सब्सिडी अगर आप हटाते हैं, हम आपको मना नहीं करते, सब्सिडी आप क्यों देते हैं. लेकिन लागत मूल्य में जो बढ़ोत्तरी आप करवा रहे हैं, वह तो आप कम करवा सकते हैं. पर हो यह गया है कि उत्पादन करने वाले लोगों को मिलने वाले कच्चे माल को सस्ता करने या उन्हें वह माल सही क़ीमत पर उपलब्ध हो, इन सब बातों पर सरकार का न तो कोई नियंत्रण है और न ही इससे संबंधित कोई योजना है. परिणाम स्वरूप इस देश का उत्पादक वर्ग, जिसमें किसान और मज़दूर दोनों आते हैं, आज सर्वाधिक निराश है. ऐसे में जनता क्या करे? सरकार नए-नए फैसले ले रही है. नया फैसला वॉलमार्ट का है. पहले आपने सब्ज़ी के क्षेत्र में बड़ी कंपनियों के लिए रास्ता खोला. अब उनसे भी बड़ी कंपनी के लिए, जो अंतरराष्ट्रीय कंपनियां है, जैसे वॉलमार्ट, आपने हिंदुस्तान के दरवाज़े खोल दिए हैं. जब से ये बड़ी दुकानें सब्ज़ी के क्षेत्र में आईं, तब से सब्ज़ी में ज़्यादा ज़हर मिलना शुरू हो गया है और ये बड़ी खुदरा दुकानों की चेन जब मल्टीनेशनल यहां लेकर आएंगे तो हमारे सामने और क्या मुसीबतें आएंगी, कहा नहीं जा सकता. लेकिन एक मुसीबत तो सामने दिखाई दे रही है. फ्रेश सब्ज़ी के नाम की चेन से जिस तरह बेरोज़गारी बढ़ी, उससे ज़्यादा बेकारी हिंदुस्तान के खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी की अनुमति के बाद अपर मिडिल क्लास या मिडिल क्लास के लोगों के लिए बढ़ेगी. वॉलमार्ट एक कंपनी है. वॉलमार्ट जैसी कम से कम डेढ़ सौ कंपनियां हैं, जो हिंदुस्तान में भूखे भेड़िए की तरह कूदने वाली हैं. यह वॉलमार्ट कल्चर देश की आठ से दस प्रतिशत जनता के लिए है. अभी जितने भी फैसले हो रहे हैं, वे केवल आठ से दस प्रतिशत जनता के लिए हैं. कुछ लोगों का कहना है कि यह फैसला पांच प्रतिशत के लिए है. अगर थोड़ी ढील देकर देखें तो यह कहीं आठ या दस प्रतिशत के पास पहुंचता है. हिंदुस्तान के 90 प्रतिशत लोग लाभान्वित नहीं होते और वे देश के आठ से दस प्रतिशत लोगों के लिए बने इन भव्य बाज़ारों, भव्य दुकानों, भव्य कारों और भव्य भवनों को टुकुर-टुकुर देखते हैं, तो हमें डर नहीं लगना चाहिए कि कल इनके ऊपर पत्थर पड़ सकते हैं. कल इनमें लूट हो सकती है. कल इनमें घुसपैठ हो सकती है. यह डर हमें क्यों नहीं लगता? शायद इसलिए नहीं लगता, क्योंकि जो लोग ये फैसले लेते हैं, वे पुलिस के पहरे में रहते हैं. उनके घर के आसपास बिजली के तारों की बाड़े हैं, वे पब्लिक के बीच अब जाते ही नहीं हैं कि उन्हें विरोध का डर हो. अब वे उन्हीं जगहों पर जाते हैं, जहां जनता न हो. लेकिन इसके बावजूद कहीं तो जाना पड़ता है. आप शादी में जाएंगे, किसी राजनीतिक समारोह में जाएंगे. अगर आप नहीं संभलेंगे तो शरद पवार जी के साथ जो हुआ, वह कई और लोगों के साथ भी हो सकता है. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह राजनीतिक मसला है. कुछ लोग कह सकते हैं, यह एक निराश व्यक्ति की हताशा है. लेकिन व्यक्ति निराश क्यों होता है, हताश क्यों होता है? इस पर राजनीतिक तंत्र में शामिल सभी लोगों को सोचना चाहिए.
इस देश की जनता 120 करोड़ के आसपास है. हम अगर इन 120 करोड़ में से 100 करोड़ लोगों का ध्यान नहीं रखेंगे और स़िर्फ 10 या 12 करोड़ लोगों का ध्यान रखेंगे और उन्हीं के लिए सारी नीतियां बनाएंगे तो परेशानी तो होगी ही. इसमें कोई दो राय नहीं है कि शरद पवार जी के साथ हुआ व्यवहार या जनार्दन द्विवेदी के साथ हुआ व्यवहार अत्यंत निंदनीय है. यह बताता है कि हमारी सहिष्णुता कम हो रही है, पर आदमी सहिष्णु रहे तो आखिर कब तक? यह संकेत है, जिसे अगर हमारे राजनीतिज्ञ समझ लें तो हम यह मानेंगे कि उनमें थोड़ी बुद्धि बची हुई है. वरना इस देश को चलाने वाले अर्थशास्त्री, इस देश के विपक्ष में बैठे जनता से कटे नेता और वे सरकारी अधिकारी, जो इन दिनों काम ही नहीं कर रहे हैं और जो राजनेताओं को भ्रष्ट करने में लगे हुए हैं. ये सब मिलकर इस देश में इतना तनाव ब़ढाएंगे कि देश गृहयुद्ध की तऱफ चला जाएगा. आज, विद्रोह या गृहयुद्ध की बात करना सपने जैसा लगता है. लेकिन कोई शरद पवार को थप्पड़ मारे. इसके बारे में भी आज से पांच या दस दिन पहले कोई नहीं सोच सकता था कि शरद पवार जैसा क़द्दावर नेता बात करके उतर रहा है और उन्हीं की सभा में बैठा कोई व्यक्ति उनको तमाचा मार देता है. ऐसी घटनाएं बढ़नी नहीं चाहिए. लेकिन ये घटनाएं न बढ़ें, इसके लिए राजनीतिज्ञों को भी पहल करनी चाहिए. अगर पहल नहीं करेंगे तो मेरा यह मानना है कि कहीं कोई सुरक्षित नहीं है और गोली की जगह आज लोग हाथ का इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि गोली लेकर तो कोई जा नहीं सकता. पर हाथ में ब्लेड लेकर तो आदमी जा सकता है. क्या होता, अगर ब्लेड की खरोंच शरद पवार के ऊपर लग जाती?
यहां एक दुखद पहलू है, अन्ना हजारे की प्रतिक्रिया. अन्ना हजारे को लोग बहुत इज्ज़त और आदर के साथ देखते हैं. अन्ना हजारे के कहे हुए एक-एक वाक्य का लोग समर्थन करते हैं. अन्ना हजारे जैसे व्यक्ति, जो देश में नई आशाओं को पैदा करने में महत्वपूर्ण रोल निभा रहे हैं, उनकी प्रतिक्रिया बहुत लोगों को पसंद आई और बहुत लोगों को पसंद नहीं भी आई. पर अन्ना हजारे की प्रतिक्रिया के जवाब में शरद पवार की यह प्रतिक्रिया कि मैंने नए गांधीवादी की बात सुनी और समझा और उन्होंने अन्ना हजारे का नाम लेकर कोई हमला नहीं किया. इस मसले में शरद पवार की तारी़फ ज़रूर करनी चाहिए. लेकिन शरद पवार की ज़िम्मेदारी बनती है, वह सरकार के एक ज़िम्मेदार मंत्री हैं, उनकी सरकार ऐसे फैसले न ले, जिससे लोग निराश होकर क़ानून अपने हाथ में ले लें और शरद पवार की बिरादरी के लोगों को जहां भी देखें वहां उन पर कटाक्ष करें. इसकी ज़िम्मेदारी शरद पवार जी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और फिर मुलायम सिंह, लालू यादव जैसे लोगों की है. अगर ये नहीं चेतेंगे तो इन्हें ऐसी घटनाओं का सामना कहीं भी करना पड़ सकता है, जो देश के लिए दुखद भी है और शायद शर्मनाक भी.