देश की जनता को क्या इस बार भी निराश होना पड़ेगा और अगर निराश होना पड़ेगा तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छी ख़बर नहीं मानी जानी चाहिए. अन्ना हजारे ने जब रामलीला मैदान में आंदोलन किया, तब उनके साथ लोग बड़े विश्वास के साथ सारे देश में खड़े हो गए. बहुत दिनों के बाद यह पहला ऐसा आंदोलन था, जिसमें उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम यानी देश के हर हिस्से में कुछ न कुछ हुआ. ग़रीब, अमीर, निम्न मध्यम वर्ग, मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग सभी ने अपनी राय बनाई और कम से कम यह कहा कि देश की समस्याओं का हल होना चाहिए तथा सरकार को ज़्यादा जवाबदेह होना चाहिए. लेकिन एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है. सवाल यह है कि क्या अन्ना हजारे और उनकी टीम उस विश्वास की रक्षा कर पाएंगे, जो देश के लोगों ने उन पर किया है? यह सवाल इसलिए है, क्योंकि देश की सारी समस्याओं की जड़ कहीं न कहीं हमारे राजनीतिक तंत्र में है. आदर्श राजनीतिक तंत्र लोगों की समस्याओं को हल करता है, लोगों के मन में विश्वास जगाता है और कल्याणकारी राज्य के आधार पर देश के ग़रीबों को रहने व खाने की गारंटी देता है, लेकिन हमारे यहां यह नहीं हो पा रहा है. बहुत दिनों से यह प्रक्रिया बंद हो चुकी है. हमारा राजनीतिक तंत्र जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है. जनता की इच्छाएं, आकांक्षाएं, सपने और ख्वाहिशें इस राजनीतिक तंत्र के लिए कोई मायने नहीं रखतीं.
राजनीतिक तंत्र का मतलब राजनीतिक दलों से है. जो सरकार में हैं उनसे और जो सरकार में नहीं हैं उनसे भी. सरकार में रहने वाले लोग जब जनता की बात नहीं सुनते तो विपक्षी दलों का कर्तव्य होता है कि वे लोगों को जागृत कर आंदोलन करें और सरकार के कानों में वह बात पहुंचाएं, जिसका रिश्ता लोगों की परेशानियों और समस्याओं से है. इस बात को अब पूरा तंत्र भुला चुका है. इसीलिए लोगों की नाराज़गी इस पूरे तंत्र से है. पिछले 15 सालों में कोई भी बड़ा आंदोलन जनता की समस्याओं को लेकर विरोधी दलों ने नहीं किया. कांग्रेस के भीतर पहले एक परंपरा थी कि जनता की समस्याओं को लेकर कांग्रेस अधिवेशन में, कांग्रेस कार्य समिति में आवाज़ें उठती रहती थीं, जिनसे सरकार पर आंतरिक दबाव पड़ता था और वह उन समस्याओं को हल करने के लिए मजबूर हो जाती थी, पर पिछले 15, बल्कि 20 सालों से यह सब बंद हो चुका है. शायद चंद्रशेखर जी की सरकार आख़िरी सरकार थी, जहां पर थोड़ा-बहुत आंतरिक लोकतंत्र नज़र आता था. उसके बाद सत्ता अपना कर्तव्य भूल गई और विरोधी पक्ष भी अपना कर्तव्य भूल गया.
सरकार में रहने वाले लोग जब जनता की बात नहीं सुनते तो विपक्षी दलों का कर्तव्य होता है कि वे लोगों को जागृत कर आंदोलन करें और सरकार के कानों में वह बात पहुंचाएं, जिसका रिश्ता लोगों की परेशानियों और समस्याओं से है. इस बात को अब पूरा तंत्र भुला चुका है. इसीलिए लोगों की नाराज़गी इस पूरे तंत्र से है. पिछले 15 सालों में कोई भी बड़ा आंदोलन जनता की समस्याओं को लेकर विरोधी दलों ने नहीं किया. कांग्रेस के भीतर पहले एक परंपरा थी कि जनता की समस्याओं को लेकर कांग्रेस अधिवेशन में, कांग्रेस कार्य समिति में आवाज़ें उठती रहती थीं, जिनसे सरकार पर आंतरिक दबाव पड़ता था और वह उन समस्याओं को हल करने के लिए मजबूर हो जाती थी, पर पिछले 15, बल्कि 20 सालों से यह सब बंद हो चुका है.
राजनीतिक तंत्र से मिली इसी निराशा ने देश की जनता को खड़ा कर दिया. लोगों ने अपने आप अपना नेता गढ़ लिया. उन्होंने मान लिया कि उनकी समस्याओं के हल के लिए अन्ना हजारे जैसा आदमी बिल्कुल सटीक नेता है, जिसका चरित्र साफ है, जो देखने में उनके बुज़ुर्ग जैसा लगता है और जिसकी भाषा में धमकी नहीं है. लोगों के दबाव से केंद्र सरकार डरी, अन्ना हजारे का अनशन टूटा, पर अनशन टूटने के बाद क्या हुआ? अन्ना हजारे को चाहिए था कि वह अनशन के बाद सारे देश में घूमते, लोगों से संवाद करते और उन्हें सच्चे लोकतंत्र के प्रति जागृत रहने के लिए कहते, क्योंकि जिस लोकतंत्र में जनता सोती है, वह लोकतंत्र भीड़तंत्र में बदल जाता है. अन्ना हजारे ने बार-बार लोगों के बीच जाने की बात कही, लेकिन वह लोगों के बीच नहीं गए. उनकी तारीख़ें उनके अनशन से पहले और उनके अनशन के बाद टलती रहीं. वह तारीखें तय करते रहे, लेकिन तय की हुई तारीख़ें कभी सामने नहीं आईं. इससे यह लगा कि अन्ना हजारे लोगों के पास जाने से कहीं न कहीं मन में डर रहे हैं. अन्ना हजारे के साथियों को देश के हर सवाल पर जवाब देने का साहस नहीं हुआ. शायद उनके पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं, क्योंकि वे किसी राजनीतिक प्रक्रिया से निकल कर बाहर नहीं आए.
लोकनायक जय प्रकाश नारायण वैचारिक नेता थे और उनके सामने भविष्य के समाज का स्पष्ट चित्र था, डॉ. लोहिया के सामने स्पष्ट चित्र था, वैसे ही, जैसे कि गांधी जी के सामने स्पष्ट चित्र था. इन सबने देश के लोगों को समय-समय पर जगाया और उन्हें इनिशिएटिव लेने के लिए तैयार किया. अपेक्षा थी कि अन्ना हजारे भी इस रास्ते का अनुकरण करेंगे, क्योंकि यही एक रास्ता ज़िम्मेदार लोकतंत्र के निर्माण का रास्ता है. अन्ना हजारे और उनके साथियों ने न जनता का सामना किया और न जनता के सामने बुनियादी सवालों पर अपनी राय रखी. नतीजा यह निकला कि अन्ना हजारे पर कांग्रेस ने हमला किया और भारतीय जनता पार्टी ने भी. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को मालूम है कि अन्ना हजारे और उनके साथियों के पास इस देश की समस्याओं के हल का कोई नक्शा शायद नहीं है. इसीलिए वे एक जन लोकपाल का मामला लेकर खड़े हो गए हैं. बिल्कुल वैसे ही, जैसे कोई कहे कि स़िर्फ नमक खा लो या मिर्च खा लो, उससे तुम्हारा पेट भर जाएगा. आदमी को संपूर्ण भोजन चाहिए. थाली में नमक और मिर्च के अलावा भी कुछ चीजें होती हैं. उसे महंगाई, बेरोज़गारी, बीमारी, अशिक्षा और कुपोषण से होने वाली मौतों का इलाज चाहिए. पड़ोसियों से संबंधों के बल पर एक मज़बूत हिंदुस्तान चाहिए. वह हिंदुस्तान, जो अपनी समस्याओं से अपने आप लड़ता हुआ दिखाई दे, समस्याओं के आगे झुका हुआ या पैरालाइज्ड हिंदुस्तान नहीं चाहिए. इसका रास्ता क्या है? इसका रास्ता स़िर्फ और स़िर्फ जनता के पास जाकर एक संपूर्ण वैचारिक चित्र प्रस्तुत करना है, पर वह काम अन्ना हजारे और उनके साथियों ने नहीं किया.
क्या हम यह मानें कि अन्ना हजारे और उनके साथियों के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं. अगर इन सवालों के जवाब अन्ना हजारे और उनके साथियों के पास नहीं हैं तो मुझे यह कहने में कोई दु:ख नहीं है, कोई संकोच नहीं है कि फिर इन सवालों के जवाब जनता के सामने नक्सलवादी लेकर आएंगे. अगर इस देश में अहिंसक आंदोलन नहीं होगा तो हिंसक आंदोलन को कोई रोक नहीं सकता. अगर इस देश में अहिंसा की आवाज़ नहीं सुनी जाएगी तो हिंसा की आवाज़ सुननी पड़ेगी. सरकार अहिंसा की आवाज़ नहीं सुनती, सरकार ग़रीबों की समस्याओं के प्रति ग़ौर नहीं करती और उन्हें प्राथमिकता नहीं देती. अगर मैं सरकार कहता हूं तो सरकार का मतलब पूरे राजनीतिक तंत्र से है, जिसमें विपक्षी दल भी शामिल हैं. यहीं मुझे डर पैदा होता है कि अन्ना हजारे के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं तो निश्चित रूप से इस देश की जनता को एक और धोखे का सामना करना पड़ सकता है. पर जनता धोखे खाती है, उसने बहुत धोखे खाए. गांधी जी ने जब आज़ादी के बाद के हिंदुस्तान की कल्पना हिंद स्वराज में की थी, जनता ने उस पर भरोसा किया, लेकिन जो सत्ता में रहे, उन्होंने हिंद स्वराज्य की जगह हिंदुस्तान को एक नई तरह की गुलामी में फेंक दिया. डॉ. लोहिया और लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलनों से बहुत आशाएं पैदा हुईं, लेकिन वे आशाएं भी टूटीं, क्योंकि डॉ. लोहिया और जय प्रकाश नारायण के शिष्यों ने ही उनके आदर्शों की हत्या की और उनके बनाए हुए रास्ते पर चलने से इंकार कर दिया. इसका मतलब यह नहीं कि रास्ता ग़लत था, बल्कि यह कहेंगे कि रास्ते पर चलने वाले ग़लत थे. अन्ना हजारे से अगर लोगों को निराशा मिलती है तो इसमें कोई अचरच नहीं है, निराश होने की भी कोई बात नहीं है. फिर कोई आएगा, जो जनता को उसकी समस्याओं से निकलने का रास्ता बताएगा. जब वह रास्ता बताएगा, वह रास्ता समग्र होगा और रास्ते पर चलने का विचार समग्र होगा, तब शायद इस देश में बदलाव की एक नई कहानी शुरू होगी. वह कहानी कब शुरू होती है, अब तो इसी का इंतज़ार है.