भारत की राजनीति में नए सैद्धांतिक दर्शन हो रहे हैं. पता नहीं ये सैद्धांतिक दर्शन भविष्य में क्या गुल खिलाएंगे, पर इतना लगता है कि धुर राजनीतिक विरोधी भी एक साथ खड़े होने का रास्ता निकाल सकते हैं. लेकिन लोकसभा या राज्यसभा में क्या अब ऐसी ही बहसें होंगी, जैसी इस सत्र में देखने को मिली हैं. मानना चाहिए कि ऐसा ही होगा. ऐसा मानने का आधार है. दरअसल, अब इस बात की चिंता नहीं है कि हिंदुस्तान में आम जनता का हित भी महत्वपूर्ण है. हित राजनीतिक दलों के नेताओं का है, जिसके साथ पूरी पार्टी खड़ी हो जाती है. करुणानिधि या उनके परिवार के साथ डीएमके, मायावती के साथ बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह के साथ समाजवादी पार्टी.
अगर निष्पक्षता से देखें तो पाएंगे कि ये तीनों नेता ग़रीबों की भाषा बोलते हैं, ग़रीबों के लिए राजनीति करने की ख्वाहिश रखते हैं और ग़रीबों के ही दम पर सत्ता में भी आते हैं. सरकारों द्वारा उठाए जाने वाले क़दम ग़रीबों के हित में हैं या विरोध में हैं, इसकी जानकारी निश्चित रूप से इन तीनों को होगी. इनकी भाषा का अंदाज़ और इनके काम करने के तरीक़े में जो अंतर्विरोध है, वह अंतर्विरोध सरकार को हमेशा जीवनदान दे देता है. तर्क भी बहुत अजीब हैं, कोई सांप्रदायिकता का सहारा लेता है और अपने बचाव का रास्ता तलाश कर लेता है और कोई किसानों या छोटे कारीगरों के नाम पर रास्ता तलाश लेता है. पर इस लड़ाई में अगर कोई हारता है, तो वह इस देश का दलित है, मज़दूर है, किसान है, पिछड़ा है, मुसलमान है और वंचित है. पिछले कुछ सालों में अधिकांश फैसले इन वर्गों के ख़िलाफ़ हुए हैं, लेकिन सरकार ने कुछ ऐसी व्यूह रचना की कि इन वर्गों के नेता सरकार के साथ खड़े हो गए.
मुझे दो उदाहरण याद हैं, पहला वीपी सिंह का और दूसरा चंद्रशेखर का. वीपी सिंह सरकार की लोकसभा में परीक्षा थी, अविश्वास प्रस्ताव आ चुका था. उस समय वीपी सिंह के सामने यह प्रस्ताव रखा गया कि अगर वीपी सिंह त्यागपत्र दे दें और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन जाएं, तो पार्टी भी बची रह सकती और कांग्रेस को भी आने से रोका जा सकता है, लेकिन वीपी सिंह के उन दिनों के सलाहकारों ने वीपी सिंह को राय दी कि लोकसभा में इस बात का फैसला हो जाना चाहिए कि कौन मंडल कमीशन के पक्ष में है और कौन मंडल कमीशन के ख़िलाफ़ है?
मायावती जी ने तर्क दिया कि आगे देखेंगे कि एफडीआई में क्या होता है? लालू यादव का तर्क था कि अगर एफडीआई के तहत विदेशी कंपनी वालमार्ट हिंदुस्तान में आकर गड़बड़ करती है, तो वह इसके स्टोर्स को जला देंगे और मुलायम सिंह यादव ने तो इस सारी क़वायद को किसानों के ख़िलाफ़ माना. इसके बावजूद नतीजा एक ही निकला कि सरकार बहुमत न होते हुए भी लोकसभा और राज्यसभा में जीत गई.
यह मौजूदा सरकार की कुशलता है. नरसिम्हा राव ने सरकार बचाने की तकनीक का अविष्कार किया था और इसके बाद बनी मनमोहन सिंह की सरकार ने इस तकनीक का बहुत विकास कर लिया है. यही तकनीक ग़ैर कांग्रेसी और ग़ैर भाजपाई दलों को नहीं आती. जब ग़ैर कांग्रेसी या ग़ैर भाजपाई सरकार बनती है तो इस बात की जल्दी होती है कि कैसे सरकार गिरे, लेकिन सिद्धांत बचा रहे.
मुझे दो उदाहरण याद हैं, पहला वीपी सिंह का और दूसरा चंद्रशेखर का. वीपी सिंह सरकार की लोकसभा में परीक्षा थी, अविश्वास प्रस्ताव आ चुका था. उस समय वीपी सिंह के सामने यह प्रस्ताव रखा गया कि अगर वीपी सिंह त्यागपत्र दे दें और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन जाएं, तो पार्टी भी बची रह सकती और कांग्रेस को भी आने से रोका जा सकता है, लेकिन वीपी सिंह के उन दिनों के सलाहकारों ने वीपी सिंह को राय दी कि लोकसभा में इस बात का फैसला हो जाना चाहिए कि कौन मंडल कमीशन के पक्ष में है और कौन मंडल कमीशन के ख़िलाफ़ है? इन महान सेनापतियों का यह भी मानना था कि जो भी मंडल के ख़िलाफ़ होगा, जनता इसे किसी भी क़ीमत पर वोट नहीं देगी. इसलिए सरकार जानी चाहिए और लोगों को पता चलना चाहिए कि कौन उनके हितों के ख़िलाफ़ है? इन सेनापतियों का यह भी मानना था कि 60 प्रतिशत से ज़्यादा लोग मंडल कमीशन का समर्थन करेंगे.
सरकार न बचाई जा सकी, लोकसभा में फैसला भी हो गया और वीपी सिंह इतिहास का हिस्सा बन गए. उन्होंने पूरे चुनाव के दौरान पिछड़ों की महागाथा गाई, लेकिन पिछड़ों ने ही उन्हें वोट नहीं दिया. वीपी सिंह का बुनियादी मुद्दा भ्रष्टाचार बहुत पीछे छूट चुका था और मंडल कमीशन ने उनकी पार्टी को फिर यह मौक़ा नहीं दिया कि वह हिंदुस्तान के भविष्य निर्माण में कोई कारगर रोल अदा कर पाएं.
चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. यह मोटा अंदाज़ा तो था कि कांग्रेस उन्हें बहुत दिनों तक प्रधानमंत्री नहीं बनाए रखेगी और शायद इसके लिए किसी राजनीतिक बहाने की तलाश करेगी. लेकिन कांग्रेस ने तो हरियाणा के दो सिपाहियों की जासूसी करने के संदेह की वजह से सरकार गिराने का फैसला कर डाला. अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो रही थी. चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लोकसभा में बैठे थे और लगभग यह साफ़ हो चुका था कि अगर कांग्रेस चंद्रशेखर का समर्थन नहीं करती, तो सरकार गिर जाएगी, इसलिए सभी निश्चिंत थे. अचानक रंगराजन कुमार मंगलम भागते हुए सेंट्रल हॉल की तरफ़ से लोकसभा में दाख़िल हुए. उनके हाथ में एक पर्ची थी. मैंने उनसे पूछा, कहा भागे जा रहे हैं, तो कुमार मंगलम का जवाब था कि राजीव गांधी ने फैसला कर लिया है कि सरकार न गिराई जाए, इसलिए उन्होंने एक पर्ची भेजी है और चंद्रशेखर जी से आग्रह किया है कि वह अविश्वास प्रस्ताव पर बहस को लंबा खीचें, ताकि कांग्रेसी सांसदों को तलाश करके लोकसभा में भेजा जा सके.
मैं उत्सुकतावश कुमार मंगलम के पीछे-पीछे चला गया. कुमार मंगलम ने पर्ची चंद्रशेखर जी को पकड़ाई और उनके कान में वही कहा, जो उन्होंने मुझे बताया था. चंद्रशेखर जी ने पर्ची पढ़ी और उसे फाड़कर वहीं नीचे फेंक दिया. कभी ऐसा होता नहीं है, क्योंकि लोकसभा में लोग काग़ज़ फाड़ते नहीं हैं, बल्कि उसे जेब में रखकर बाहर ले जाते हैं और रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं. चंद्रशेखर जी ने रंगराजन कुमार मंगलम से कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद की गरिमा से कोई समझौता नहीं कर सकता. कुमार मंगलम जैसे ही मुंह लटकाए लोकसभा से बाहर आए, चंद्रशेखर जी खड़े हुए और उन्होंने कहा कि अविश्वास प्रस्ताव पर अब बहस से कोई फ़ायदा नहीं है. मैं यहां से निकलकर सीधे राष्ट्रपति जी के पास जा रहा हूं और वहां त्यागपत्र दे दूंगा, बहस रुक गई.
अगर यह स्थिति नरसिम्हा राव जी या मनमोहन सिंह के सामने आई होती, तो मेरा मानना है कि वह सरकार नहीं जाने देते, वह सरकार बचाने के तरीक़े तलाश ही लेते, चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़ता.
दो सीखें मिलती हैं, एक तो यह कि मायावती और मुलायम सिंह कितने भी धुरविरोधी हों, लेकिन कांग्रेस उन्हें सरकार चलाने के लिए अपने साथ मिला सकती है. हां, यह दूसरी बात है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के सवाल पर वह इन दोनों से समझौता न कर पाए और अगर समझौता हो भी गया, तो ज़्यादा सीटें न हासिल कर पाए. दूसरा यह कि ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ रहकर भीगी बिल्ली बने रह सकते हैं या फिर भाजपा के साथ रहकर उसकी डांट खाते रह सकते हैं. अपने बीच से वे किसी को नेता मान लें और समान विचारों की राजनीति कर सकें, यह संभव है.