वक्त की नज़ाकत को समझने की ज़रूरत

jab-top-mukabil-ho12 अक्टूबर बीत गया. पहली बार देश में 2 अक्टूबर सरकारी फाइलों और सरकारी समारोहों से बाहर निकल करके लोगों के बीच में रहा. लोगों ने गांधी टोपी लगाकर महात्मा गांधी को याद किया. न केवल महात्मा गांधी को याद किया, बल्कि उनके विचारों के ऊपर चर्चाएं कीं, सेमिनार किए. 2 अक्टूबर बीतने के बाद ऐसा लग रहा है कि इस देश में बहुत सालों के बाद गांधी का नाम गांधीवादियों द्वारा नहीं, बल्कि गांधी के विचारों की ताक़त के आधार पर लोगों के मन में घर कर रहा है. यह बड़ी अजीब बात है और शायद शर्मनाक भी कि आज़ादी के बाद जितनी भी सरकारें आईं या जितने भी समाजसेवी हुए, उन्होंने सब कुछ किया, लेकिन लोगों के मन में भरोसा नहीं जगा पाए और लोगों के सामने नए आदर्श नहीं गढ़ पाए. नतीजे के तौर पर जब एक फिल्म आई रंग दे बसंती, तो इस देश के नौजवानों, जिनकी उम्र आज 30 साल है, उस समय वे शायद 25, 26, 27 के रहे होंगे, को पता चला कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद या क्रांतिकारी आंदोलन का मतलब क्या था. हालांकि उस फिल्म में बहुत सतही कोशिश हुई थी इन प्रतीकों को जोड़ने की, लेकिन इसके बावजूद उस फिल्म ने कमाल का काम किया और नौजवानों को बताया कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के आदर्श क्या थे, किस चीज़ को लेकर उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी.

दूसरी बात जो मुझे याद आती है, वह भी फिल्म से जुड़ी हुई है. फिल्म का नाम है लगे रहो मुन्ना भाई. इस फिल्म में गांधीगिरी शब्द का प्रयोग हुआ. बापू नाम के चरित्र ने मुन्ना भाई नाम के चरित्र को कई सारी चीज़ें बताईं. इस फिल्म ने गांधी जी के नाम पर नए सिरे से हिंदुस्तान के लोगों का मन झकझोरने का काम किया. लोगों ने विरोध का गांधीवादी तरीक़ा भी फिल्म से सीखा. जिसके प्रति वे विरोध करना चाहते थे, उसके यहां वे फूल लेकर जाने लगे, मौन बैठने लगे. कम ही जगहों पर हुआ, लेकिन हुआ और यह एक अच्छी शुरुआत थी. इसीलिए जब अन्ना हजारे ने उपवास किया तो लोगों ने अन्ना को सीधे गांधी की छवि से जोड़ दिया. देश में नौजवानों के मन में बात उठी कि अगर गांधी होते तो अन्ना जैसे होते. लोगों ने कहा कि हमने गांधी को नहीं देखा, लेकिन हम अन्ना को देख रहे हैं. इसीलिए इस बार गांधी जयंती पर न अन्ना हजारे ने कोई अपील की, न किसी ने अपील की, पर देश में जगह-जगह लोगों ने अपने आप न केवल गांधी जयंती मनाई, बल्कि गांधी के विचारों को भी आत्मसात करने की कोशिश की. गांधी के साहित्य को पढ़ने वाले लोगों की संख्या में इज़ा़फा हुआ है, पर इसमें सरकार क्या कर रही है. यह सरकार, हमारी अपनी सरकार, आज़ादी के बाद की भारत की सरकार या सरकारें, इन्होंने गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया. अगर देखें तो पाएंगे कि इन्होंने कुछ नहीं किया. क्या यह मान लिया जाए कि इन सरकारों का गांधी में कोई विश्वास रहा ही नहीं.

अगर और गहरे जाकर देखें तो कुछ ऐसा ही लगता है, क्योंकि जब कोई सरकार शांतिपूर्ण आंदोलन की बात सुनने से मना करती है तो यह सहज मान लेना चाहिए या माना जा सकता है कि वह सरकार गांधी के आदर्शों पर विश्वास नहीं करती. गांधी ने आज़ादी की लड़ाई अहिंसक  ढंग से लड़ी. उन्होंने अहिंसा को एक ताक़तवर हथियार के रूप में लोगों के सामने रखा. उन्होंने अहिंसा के हथियार का उस समय की सर्वशक्तिमान या सर्वाधिक शक्तिशाली सरकार के सामने इस तरह प्रयोग किया कि वह सरकार हिल गई और हिंदुस्तान छोड़कर सात समंदर पार अपने देश लौट गई. जिस गांधी ने हिंदुस्तान को आज़ादी शांतिप्रिय ढंग से दिलाई, उसी गांधी के देश में अगर शांतिपूर्ण आंदोलन की बात न सुनी जाए तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है. ऐसा नहीं है कि गांधी ने यह अकेले किया, उनके साथ जवाहर लाल नेहरू थे. आज के ज़माने के जितने नेता हैं, इन सबके नेता कहीं न कहीं गांधी के साथ थे. हर एक कहीं न कहीं गांधी से प्रभावित था.

हमारे देश में अमीरी बढ़ रही है, लेकिन किन लोगों की अमीरी बढ़ रही है. देश के 7 से 9 प्रतिशत लोगों की अमीरी बढ़ रही है. पैसा उनकी जेब में जा रहा है. बाक़ी लोगों की खाने की थाली से खाने का सामान ख़त्म हो रहा है. पैसा है, लेकिन क्रय शक्ति घट रही है. बेरोज़गारी बढ़ रही है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, निराशा बढ़ रही है, नक्सलवाद बढ़ रहा है. गांधी के इस देश में नक्सलवाद यह तर्क दे रहा है कि ग़रीबो, यह तुम्हारी सरकार है, जिसे तुम अपनी सरकार कहते हो, जिसे तुम वोट से चुनते हो, वही तुम्हारी बात नहीं सुनती.

उसी देश में लोगों की तकलीफों पर अगर सरकार ध्यान न दे, लोगों की परेशानियों को अपनी परेशानियां न समझे और उनका मज़ाक उड़ाए तो माना जा सकता है कि सरकार गांधी के आदर्शों पर भरोसा नहीं करती. कोई सरकार अपवाद नहीं है, कोई पार्टी अपवाद नहीं है, क्योंकि पार्टी जब सरकार में जाती है तो वह सरकार का चोला पहन लेती है और उसका चरित्र सरकारी चरित्र हो जाता है. लोगों को भरोसा था कि आज़ादी के बाद सरकारें जनता की बात सुनेंगी और उसकी तकलीफों को हल करने में अपना सारा ध्यान लगाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हमारे देश में अमीरी बढ़ रही है, लेकिन किन लोगों की अमीरी बढ़ रही है. देश के 7 से 9 प्रतिशत लोगों की अमीरी बढ़ रही है. पैसा उनकी जेब में जा रहा है. बाक़ी लोगों की खाने की थाली से खाने का सामान ख़त्म हो रहा है. पैसा है, लेकिन क्रय शक्ति घट रही है. बेरोज़गारी बढ़ रही है, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, निराशा बढ़ रही है, नक्सलवाद बढ़ रहा है. गांधी के इस देश में नक्सलवाद यह तर्क दे रहा है कि ग़रीबो, यह तुम्हारी सरकार है, जिसे तुम अपनी सरकार कहते हो, जिसे तुम वोट से चुनते हो, वही तुम्हारी बात नहीं सुनती. इसलिए नहीं सुनती कि सरकार कभी भी ग़रीबों की बात सुन ही नहीं सकती. सरकार ग़रीबों की बात तभी सुनेगी, जब ग़रीब हाथ में हथियार उठाएगा. यह नक्सलवादियों का तर्क है और उनके इस तर्क को अमलीजामा पहनाने का काम हमारे देश की वे सरकारें कर रही हैं, वे राजनीतिक दल कर रहे हैं, जो आज़ादी के आंदोलन से कहीं न कहीं जुड़े थे, अहिंसक आंदोलन से जुड़े थे, जिसका नेतृत्व महात्मा गांधी कर रहे थे.

आज उन सबको जो नौजवान हैं, जिनका इस देश के भविष्य में विश्वास है, जो इस देश को ख़ुशहाली के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं और ख़ासकर उन नौजवानों को, जो सरकार से जुड़े हुए हैं, जो राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, थोड़ी देर रुककर यह विचार अवश्य करना चाहिए कि कहीं कोई चूक तो नहीं हो रही है. कहीं हम ही तो बैठे-बैठाए लोकतंत्र के ख़िलाफ सामग्री लोगों के पास नहीं भेज रहे हैं, कहीं हम लोकतंत्र का नाम लेकर लोकतंत्र के प्रति अनास्था तो नहीं पैदा कर रहे हैं या अनास्था पैदा होने में हिस्सा तो नहीं बन रहे हैं. अभी भी व़क्त है. लेकिन अगर इस व़क्त को हमने जाने दिया या व़क्त की ज़िम्मेदारी को समझते हुए इन तमाम सवालों पर विचार नहीं किया तो जब इनका उत्तर हमें मिलेगा तो वह उत्तर उस सवाल का नहीं होगा, जो देश का सवाल है. वह उत्तर लोगों के दु:ख-दर्द का होगा, जो निराशा से उपजा हुआ होगा और निराशा से उपजा हुआ उत्तर कभी भी शांति, समृद्धि, सौहार्द्र और विकास नहीं लाता. व़क्त है, सोचिए!

 


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