व़क्त की नज़ाकत को समझने की ज़रूरत

jab-top-mukabil-ho1अक्सर यह माना जाता है कि नियम बनाए जाते हैं और बनाते समय ही उसे तोड़ने के रास्ते भी बन जाते हैं. क़ानून बनाए जाते हैं और उनसे बचने का रास्ता भी उन्हीं में छोड़ दिया जाता है तथा इसी का सहारा लेकर अदालतों में वकील अपने मुल्जिम को छुड़ा ले जाते हैं. शायद इसीलिए बहुत सारे मामलों में देखा गया है कि अपराधी बाहर घूमते हैं, जबकि बेगुनाह अंदर होते हैं. किसी ने दो सौ रुपये की चोरी की, वह जेल के अंदर और जिसने दो सौ करोड़ रुपये की चोरी की, वह जेल के बाहर, क्योंकि उसके लिए वकील रास्ते निकाल लेते हैं. दो सौ रुपये चोरी करने वाले के पास वकील को देने के लिए पैसा नहीं होता, इसलिए रास्ता नहीं निकल पाता.

लोकपाल बिल जिस तरह संसद में पेश हुआ, उससे ज़्यादा बेहतर था कि यह न पेश होता, क्योंकि उससे मुट्ठी बंद रहती और यह माना जाता कि कांग्रेस पार्टी अभी भ्रष्टाचार से लड़ने के रास्ते नहीं निकाल पाई, लेकिन उसने बिल पेश करके यह साबित कर दिया कि वह रास्ते निकालना ही नहीं चाहती. शायद यह बिल कांग्रेस की लीडरशिप का बिल नहीं है, यह भारत की नौकरशाही का बिल है. पूरी नौकरशाही एकजुट हो गई और उसने कांग्रेस के नेताओं या सरकार चलाने वालों को बता दिया कि वह किसी भी कीमत पर अन्ना हज़ारे द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल को समर्थन नहीं देगी, क्योंकि इससे देश नहीं चलेगा. नौकरशाही का मानना है कि देश चलाने के लिए कई सारे ऐसे काम करने पड़ते हैं, जो पहली नज़र में भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं. अगर वे काम न किए जाएं तो जिस तरह दुनिया चल रही है, हमारा उसके साथ चलना मुश्किल हो जाएगा, विकास का पहिया रुक जाएगा. कांग्रेस लीडरशिप ने इस पर सहमति जता दी, क्योंकि कांग्रेस के लिए भ्रष्टाचार कभी मुद्दा था ही नहीं. उसके लिए छोटा भ्रष्टाचार तो मुद्दा है, लेकिन बड़ा भ्रष्टाचार उसके लिए कोई मायने नहीं रखता. उसका मानना है कि देश चलाना है तो कुछ हद तक आंखों को बंद करना ज़रूरी है. लेकिन देश के लोग इससे कुछ अलग सोचते हैं. उनका मानना है कि अगर बड़े भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगेगी तो छोटा भ्रष्टाचार किसी भी कीमत पर नहीं रोका जा सकता है.

मुझे अच्छी तरह याद है, 1987-88 में जब बोफोर्स कांड सामने आया और यह खुलासा हुआ कि सात या साढ़े सात प्रतिशत कमीशन बोफोर्स ने हिंदुस्तान में मदद करने वालों को दिया और यह बात सामने आई कि सरकार में बड़े पदों पर बैठने वाले लोग उसमें हिस्सेदार थे तो उन दिनों बस कंडक्टर खुलेआम आम आदमी से टिकट के पैसे लेता था और चेंज वापस नहीं करता था. वह कहता था कि जब सात प्रतिशत ऊपर के लोग ले रहे हैं तो दस प्रतिशत का हमारा हक बनता है. लोग अचंभे से उसका चेहरा देखते थे और पैसे वापस लेने के लिए थोड़ी हील-हुज्जत होती थी, पर परिणाम यह होता था कि बाकी पैसे वापस नहीं मिलते थे. वहीं से हमारे देश में सात से दस प्रतिशत कमीशन लेने का मानों खुला चलन शुरू हो गया. अधिकारी, इंजीनियर और डॉक्टर बेशर्मी के साथ लोगों से पैसे मांगने लगे. जो भ्रष्टाचार पहले सिर्फ बड़े सरकारी महकमों तक सीमित था, छोटे महकमों में बहुत छोटे पैमाने पर होता था, जैसे अगर तारीख बढ़वानी है तो आप बीस रुपये का नोट पेशकार के सामने फेंक दीजिए तो तारीख बढ़ जाती थी, लेकिन अब वही भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया कि आज जब हम और आप बात कर रहे हैं, शायद कोई भी ऐसी जगह नहीं है, जहां पर बिना कुछ पैसे दिए फाइल आगे बढ़ सके या आपका काम हो सके.

बहुत सारे लोग ड्राइविंग लाइसेंस का उदाहरण देते हैं. कंप्यूटराइजेशन हो गया, ऑनलाइन एप्लीकेशंस जाने लगीं और कहा गया कि इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी, लेकिन भ्रष्टाचार तो चौराहे पर आकर खड़ा हो गया. अधिकारी पास से गुजरते हैं और चौराहे पर खड़ा सिपाही सामने पैसे लेता है. मुंबई में तो रिश्वत लेने से रोकने पर एक वरिष्ठ अधिकारी को सिपाहियों ने ही पीट-पीटकर मार डाला, आग लगाकर उसे जला दिया. यह घटना बताती है कि हम अगर गंभीर नहीं होंगे, उच्च पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार से लड़ते दिखाई नहीं देंगे तो देश में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार कम नहीं होगा. नतीजे के तौर पर अगर किसी को एप्लीकेशन जमा करानी है और कहीं उसका रिश्ता नौकरी से है तो वह एप्लीकेशन बिना पैसा दिए जमा नहीं हो सकती. जिस देश में यह हाल हो और वहां सरकार इतना कमजोर और लचर बिल लाए तो लोगों को लगता है कि कांग्रेस भ्रष्टाचार से लड़ना ही नहीं चाहती. कांग्रेस के नेतृत्व में बनी सरकार को बड़े नौकरशाहों का दबाव झेलना पड़ सकता है. पर यहीं तो राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा होती है. अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो ये सारे काम हो सकते हैं, लेकिन अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति न हो और आपको काम करना न आए तो फिर नौकरशाह आपके ऊपर हावी हो जाते हैं. जनता की नज़र में कांग्रेस भ्रष्टाचार से लड़ती दिखाई नहीं देती, इसके लिए वह उसे गुनाहगार मान रही है, लेकिन उसकी नज़र में बाकी राजनीतिक दल भी कोई बहुत दूध के धुले नहीं हैं.

लोगों को लग रहा है कि बहुत सारे विरोध के स्वर स़िर्फ रस्मी तौर पर निकल रहे हैं. उनके मन में यह बात घर कर रही है और मुझे लगता है कि यह लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक बात है. इसलिए, क्योंकि हर जगह, जहां भी हम नज़र डालें, लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा उठता दिखाई दे रहा है. उन्हें लगता है कि राजा कोई भी हो, हमारी हालत यही रहने वाली है. हमें पिटना है, भूखों मरना है, बीमार रहना है, हमारे बच्चों को नौकरी नहीं मिलनी है. कुल मिलाकर आशा का माहौल खत्म हो रहा है. कांग्रेस पार्टी में अगर समझदार लोग हैं तो उन्हें इस स्थिति को आज समझना चाहिए. इसलिए, क्योंकि अगर वे अभी नहीं समझेंगे तो उनके बच्चों को आने वाली पीढ़ी को बहुत सारी बातों के जवाब देने पड़ेंगे और अगर जवाब नहीं दे पाएंगे तो देश में उन्हें हिकारत की नज़र से देखा जाएगा. एक अ़फसोस और है. आज देश में कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जो सभी राजनीतिक दलों से कह सके कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं. जो सत्ता में हैं उनसे न कहे, लेकिन जो विपक्ष में हैं उनसे तो कम से कम यह बात कहे. 120 करोड़ लोगों के देश में इस स्थिति पर सिवाय अ़फसोस जताने के और क्या किया जा सकता है. शायद यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि राजनेताओं ने देश में माहौल ऐसा बना दिया है कि अच्छे लोग राजनीति में आने के बारे में सोचते ही नहीं हैं.

मुंबई में तो रिश्वत लेने से रोकने पर एक वरिष्ठ अधिकारी को सिपाहियों ने ही पीट-पीटकर मार डाला, आग लगाकर उसे जला दिया. यह घटना बताती है कि हम अगर गंभीर नहीं होंगे, उच्च पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार से लड़ते दिखाई नहीं देंगे तो देश में निचले स्तर पर भ्रष्टाचार कम नहीं होगा. नतीजे के तौर पर अगर किसी को एप्लीकेशन जमा करानी है और कहीं उसका रिश्ता नौकरी से है तो वह एप्लीकेशन बिना पैसा दिए जमा नहीं हो सकती.

विडंबना यह है कि अन्ना हजारे और उनके साथी इस स्थिति में जनता को साथ नहीं लेना चाहते. उन्हें लगता है कि वे अनशन करेंगे और देश हमेशा की तरह उनके साथ खड़ा हो जाएगा. हो सकता है, खड़ा भी हो जाए, क्योंकि लोग किसी भी अवसर को अपने हाथ से अपनी ताकत का प्रदर्शन दिखाए बिना जाने नहीं देना चाहते. यह वह सिटम है, जिसे राजनीतिक तंत्र चलाने वालों को समझना चाहिए. अगर कहीं ऐसा व़क्त आ जाए कि लोग यही ताक़त लोकतांत्रिक दायरे से बाहर निकल कर दिखाने लगें तो? अन्ना हजारे की आज ज़्यादा ज़िम्मेदारी है. उन्हें सारे देश में घूमकर लोगों को इस स्थिति के ़िखला़फ आवाज़ उठाने के लिए तैयार करना चाहिए. आवाज़ अलोकतांत्रिक नहीं, लोकतांत्रिक. लोगों को समझाना चाहिए कि तुम्हारी ताक़त क्या है, अपनी ताक़त से तुम सरकारें बदल सकते हों, सरकारें बना सकते हों. अगर सरकारें बदलनी हैं तो कैसे बदलनी हैं और सरकारें बनानी हैं तो कैसी बनानी हैं. यह देश गांधी के हिंद स्वराज के आधार पर चलेगा या वॉल स्ट्रीट की फिलॉसफी पर चलेगा. यह देश यहां रहने वालों के सपने पूरा करेगा या आईएमए एवं वर्ल्ड बैंक के सपनों को पूरा करने के लिए सारे देश को मानसिक तौर पर कुंद कर दिया जाएगा. सवाल बड़ा है, इसका जवाब भी बड़ा होगा. पर उस जवाब को अगर राजनीतिक दल नहीं तलाशते हैं और अन्ना हजारे भी इस जवाब को तलाशने नहीं निकलते हैं तो इस देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के ख़िला़फ जो भी आवाज़ उठाएगा, कहीं ऐसा न हो कि देश उसका समर्थन कर दे. ऐसे ही हालात जर्मनी में थे, जब हिटलर सामने आया था. हिटलर की किताब, उसकी आत्मकथा, उसका एक-एक वाक्य हिंदुस्तान में सही साबित होता दिखाई दे रहा है, जिनके सहारे उसने जर्मनी में लोगों को व्यवस्था के खिला़फ तैयार कर लिया था. आज का राजनीतिक तंत्र अगर इसे नहीं समझता है तो देश के नौजवानों को इस स्थिति को समझना होगा कि लोकतंत्र बहुत मुश्किल से मिलता है और उसे बनाए रखना उससे भी ज़्यादा मुश्किल होता है.

लोकतंत्र या अधूरा लोकतंत्र भी अगर हाथ से जाने वाला हो तो कैसी छटपटाहट होती है, अगर इसे जानना हो तो पड़ोसी देश पाकिस्तान में देखना चाहिए, जहां पूरी सरकार, उसका प्रधानमंत्री बिलबिला रहा है, तिलमिला रहा है और कह रहा है कि सेना हमारी सरकार का तख्ता पलटने की साजिश कर रही है यानी लोकतंत्र को समाप्त करने की तैयारी पाकिस्तान में सेना द्वारा हो रही है. हमारे देश में पूरा लोकतंत्र है. यहां के नौजवानों को इसके पक्ष में खड़ा होना होगा, राजनीतिक दलों के ऊपर दबाव बनाना होगा, अन्ना हजारे के ऊपर भी दबाव बनाना होगा कि इस तरीक़े से जनता नहीं खड़ी होती, स़िर्फ उसका समर्थन मिलता है. जनता को खड़ा करने के लिए उसके बीच जाना होगा. ठीक उसी तरह, जैसे पानी गर्म करना है तो आपको उसे आंच के ऊपर रखना पड़ेगा, भले ही आंच लकड़ी की आग की हो, कोयले की आग की हो, गैस की आग की हो या सूरज की गर्मी की आग हो. बिना आग पर रखे पानी गर्म नहीं होगा. जनता का आंदोलन, लोकतंत्र को बनाए रखने और लोकतंत्र में रहने वालों के लिए खुशहाली लाने का एक ही तरीका है. वह यह कि जनता, उसका आंदोलन सशक्त हो और लोकतंत्र बना रहे. सभी लोगों को मजबूर करना कि वे जनता के हितों के लिए काम करें, न कि उनके पक्ष में, जो जनता का हित नहीं चाहते. हम एक बड़े संकट के मुहाने पर पहुंच गए हैं. काश कि मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, ए बी वर्धन, प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव एवं रामविलास पासवान इस सच्चाई को समझते. इनका न समझना प्रतीकात्मक तौर पर लोकतंत्र के लिए एक घने कोहरे जैसा है, जिसमें एक्सीडेंट हो सकता है.


    Leave a Reply