बार-बार कहने के बावजूद सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है. सरकार से मतलब सिर्फ मंत्री नहीं, बल्कि सरकार से मतलब पूरा सिस्टम, दारोगा से लेकर गृह सचिव तक. ये सब नशे की गोली खाकर सो रहे हैं और देश हर दूसरे-तीसरे महीने खतरे का सामना कर रहा है. दिल्ली हाईकोर्ट में तीन महीने के भीतर हुआ दूसरा बम धमाका हमारे सिस्टम के खोखलेपन और सबसे अंत में प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री के नकारेपन को चीख-चीखकर बयान कर रहा है. अंग्रेजों के जमाने में तंत्र इतना बड़ा नहीं था, जितना आज है. उस समय थाने में दस सिपाही होते थे और सौ गांवों को कंट्रोल करते थे. सिपाही अकेला चला जाता था और लोग उसकी इज्जत करते थे, क्योंकि सरकार की साख थी, सरकार का इकबाल था. वह सिस्टम मुखबिरों के बल पर चलता था. पूरे इलाके में, चाहे वह शहर का मोहल्ला हो, शहर के थाना क्षेत्र का कोई भी हिस्सा हो या देहात के थाना क्षेत्र का कोई भी गांव हो, वहां से अपने आप लोग खबरें लेकर दारोगा के पास पहुंचते थे. दारोगा उन खबरों पर अपने विवेक से फैसला लेता था कि क्या करना है, लेकिन जानकारी उसके पास सब रहती थी. इसीलिए उन दिनों मामले बहुत आसानी से सुलझा लिए जाते थे.
आजादी के बाद ज़्यादा से ज़्यादा दस सालों तक यह सिस्टम चलता रहा, लेकिन उसके बाद भ्रष्टाचार ने इस सिस्टम को खाना शुरू कर दिया. मुखबिरों को मिलने वाला पैसा अफसर खाने लगे. मुखबिरों से मिलने वाली खबरें कम होने लगीं. किसी को इसकी चिंता नहीं हुई कि अगर मुखबिर नहीं रहेंगे, वे खबरें नहीं देंगे तो तंत्र काम कैसे करेगा. लूट, हत्या, बलात्कार, अलग-अलग तरह के अपराध और अब बड़े पैमाने पर आतंकवाद है. इनके बारे में जानकारी कहां से मिलेगी. ऐसा नहीं है कि मुखबिरों के नाम पर सरकार के बजट में पैसा नहीं होता. पूरे तंत्र में खुफियागिरी के नाम पर अनकाउंटेड मनी (पैसा) खर्च होती है और उसका कोई लिखित हिसाब नहीं होता. इसी कारण यह पैसा भ्रष्टाचारी अफसरों या तंत्र के मुंह में चला जाता है. नतीजे के तौर पर सूचनाएं आनी बंद हो जाती हैं. ऐसा पिछले 25 सालों से हो रहा है. पहले इसे नजरअंदाज किया गया, लेकिन अब इसका दुष्परिणाम संसद से 3 किलोमीटर दूर पहुंच गया.
जितने भी हमले इस देश में हो रहे हैं, वे इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि खुफिया सूचनाएं पुलिस तक नहीं पहुंचती. पुलिस के खुफिया अफसर चाहे वे आईबी में हों, सीआईडी में हों, लोकल इंटेलिजेंस यूनिट में हों, उनके सूत्र इस सरकार ने काट दिए. चूंकि मुखबिर नहीं हैं तो सरकार के पास सूचनाएं नहीं हैं. पैसा जरूर है, जिसे लोग खा-पी रहे हैं. कौन हैं इसके जिम्मेदार?
खुफिया सूचनाओं के अभाव में संसद पर भी आज से दस साल पहले हमला हुआ था, लेकिन संसद पर हमले को अगर हम अपवाद मानें तो अब जितने भी हमले इस देश में हो रहे हैं, वे इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि खुफिया सूचनाएं पुलिस तक नहीं पहुंचती. पुलिस के खुफिया अफसर चाहे वे आईबी में हों, सीआईडी में हों, लोकल इंटेलिजेंस यूनिट में हों, उनके सूत्र इस सरकार ने काट दिए. चूंकि मुखबिर नहीं हैं तो सरकार के पास सूचनाएं नहीं हैं. पैसा जरूर है, जिसे लोग खा-पी रहे हैं. कौन हैं इसके जिम्मेदार? आज के लोग जिम्मेदार नहीं हैं. इसकी शुरुआत आज से 20-25 साल पहले हुई थी, जबसे ये चीजें टूटने लगी थीं. जब आतंकवाद हमारे यहां ज़्यादा पैर पसारने लगा तो शायद अफसरों को लगा कि हम हर चीज आतंकवाद के सिर मढ़ दें और बच जाएं. इसी वजह से न केवल आतंकवाद, बल्कि किसी भी तरह के अपराध का कुछ भी पता नहीं चलता. न अपराध होने से पहले जानकारी आती है और न अपराध होने के बाद कोई केस खुलता है, न केस पर वर्कआउट होता है, क्योंकि केस के वर्कआउट में भी मुखबिरों की भूमिका होती है, जो बताते हैं कि इन-इन जगहों पर इन-इन लोगों ने वारदातें कीं.
अब पुलिस के पास कोई जानकारी नहीं आती और आती भी है तो केवल उतनी, जिससे उन्हें हिस्सा मिलने में आसानी रहे. इस बहाने हम यह आग्रह करना चाहते हैं कि पुलिस की कार्य प्रणाली के ऊपर सरकार और विपक्ष को प्रमुखता के साथ सोचना चाहिए. अगर उन्होंने नहीं सोचा तो देश में होने वाली न केवल आतंकवादी वारदातों को, बल्कि सामान्य अपराधों को भी पुलिस नहीं रोक पाएगी. अपराध के आंकड़े लगातार ऊपर जा रहे हैं और सिर्फ इसलिए ऊपर जा रहे हैं, क्योंकि मुखबिरों के जाल को सोच-समझ कर भ्रष्टाचार की वजह से, पैसा खाने की नीयत ने तबाह कर दिया है, छिन्न-भिन्न कर दिया है. इस तंत्र को फिर से खड़ा करने की ज़रूरत है. देश के गृह मंत्रालय को या प्रदेश की सरकारों को अगर यह बात समझ में नहीं आ रही है तो फिर तय मानिए कि आज यह देश और इस देश के लोग उस जगह पहुंच गए हैं, जहां से नीचे गिरने में बहुत ज़्यादा समय नहीं लगेगा.
देश की सरकार, गृहमंत्री और गृह सचिव को चाहिए कि ये लोग बैठें और तत्काल पुलिस तंत्र को सुधारने के बारे में बात करें. लेकिन जब पुलिस तंत्र में सुधार की बात की जाए तो पुलिस के जवानों को मिलने वाले वेतन, सुविधाओं और उनके काम करने के तरीकों के ऊपर भी सरकार को सोचना चाहिए. इसलिए सोचना चाहिए, क्योंकि एक जवान अगर 24 घंटे, 36 घंटे, 40 घंटे लगातार काम करता है तो उसमें तनाव पैदा होना लाजिमी है. दिल्ली में 13 अगस्त की शाम पुलिस वाले बुला लिए गए, क्योंकि 15 अगस्त को लाल किले के ऊपर प्रधानमंत्री को झंडा फहराना था. 13 अगस्त को बुलाए गए पुलिस वाले अगले 15 दिनों तक अपने घर नहीं जा पाए, क्योंकि अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हो गया और इनमें से बहुतों की ड्यूटी लगातार लगी रही. इन जवानों के पास न खाने की सुविधा थी और न प्राकृतिक जरूरतों को पूरा करने के साधन. ऐसा सिर्फ दिल्ली में इसी बार नहीं हुआ, बल्कि आजादी के बाद से ऐसा ही हो रहा है. बहुत सारे थानों में सिपाहियों के लिए रहने की जगह नहीं है, पुलिस वाले अपनी प्राकृतिक जरूरतों को पूरा कहां करें, इसकी भी जगह नहीं है. यह मैं शहरों की बात कर रहा हूं. शहरों में वे या तो सिनेमा हॉल को पकड़ते हैं या किसी धर्मशाला को.
आज की महंगाई में हालत यह है कि पुलिस वाले काम के दौरान अपने पैसों से अगर कुछ खाना भी चाहें तो नहीं खा सकते. पचास या सौ रुपये खर्च करके एक या दो लोग खाना नहीं खा सकते. उन्हें बाहर का कोई भत्ता नहीं मिलता है कि वे खरीद कर खाएं और अगर मिलता भी होगा तो मुझे नहीं लगता कि वह 5 या 10 रुपये से अधिक होगा. जवानों की सुविधाओं के बारे में सरकार नहीं सोच रही. जिन अफसरों ने पैसा खाने के चक्कर में मुखबिर तंत्र को तोड़ा, उनके बारे में सरकार नहीं सोच रही. जैसा चल रहा है, उसी को सिस्टम मान लिया गया. शायद सोचने का व़क्त आ गया है. सोचिए, नहीं तो दिल्ली हाईकोर्ट जैसे धमाके इस देश के हर गली-मोहल्ले में होने लगेंगे और आप कुछ नहीं कर पाएंगे.