जनता के मन में विश्वास पैदा करने की ज़रुरत

jab-top-mukabil-ho1टूजी स्पेक्ट्रम बड़ा घोटाला है, बहुत बड़ा घोटाला है. शायद सबसे बड़ा घोटाला नहीं है. सबसे बड़ा घोटाला हो सकता है अभी गर्भ में हो, आने वाला हो. लेकिन यह घोटाला ऐसा ज़रूर है, जिसने लोगों के मन में उत्सुकता पैदा कर दी है. उत्सुकता यह है कि क्या इस घोटाले की जांच में कुछ निकलेगा, जिसने कई मंत्रियों की बलि ली और उन्हें जेल में पहुंचाया. इस सारी कवायद का आख़िर नतीजा कोई निकलेगा या नहीं, यह सवाल देश के लोगों के मन में जरूर है. अब सवाल उठता है कि तुरुप का इक्का किसके पास है, इस सारे घोटाले के मंथन में से मक्खन क्या निकलेगा. अजीब-अजीब नाम आ रहे हैं. सुब्रह्मण्यम स्वामी कह रहे हैं कि उनके पास सूचना के अधिकार के तहत मिला एक काग़ज़ है, जिसे प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री को लिखा था और जिसमें तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम की भूमिका को लेकर कुछ सवाल उठाए गए हैं. किसने यह काग़ज़ सुब्रह्मण्यम स्वामी के पास तक पहुंचाया. ज़रूर किसी ने आरटीआई डाली होगी, जब श्री स्वामी कह रहे हैं, पर आरटीआई के तहत यह जानकारी लेने वाले उस व्यक्ति के दिमाग़ की दाद देनी चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए, जिसने प्रणब मुखर्जी का यह पत्र निकलवाया. कौन है वह आदमी? अगर उसका नाम सामने आया तो शायद हो सकता है कि कुछ लोग आगे बढ़ें, उसे शाबाशी दें. अगर यह नाम सामने नहीं आया, तब हो सकता है कि लोगों के मन में संदेह उठे कि इस सवाल का उत्तर स़िर्फ और स़िर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय के पास है.

लोगों के मन में यह धारणा बैठ चुकी है कि श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी और श्री मनमोहन सिंह बहुत गहरे दोस्त हैं और जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तब सुब्रह्मण्यम स्वामी उस सरकार में मंत्री थे और श्री मनमोहन सिंह उस सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार थे. दूसरी तऱफ राजा ने कोर्ट में बयान दिया कि प्रधानमंत्री को सारी चीज़ों की जानकारी थी और प्रधानमंत्री की जानकारी में ही उन्होंने सारे ़फैसलेे लिए. राजा अगर स़िर्फ एक कड़ी होते तो यह माना जा सकता था कि वह अपनी छवि चमकाने के लिए प्रधानमंत्री का नाम ले रहे हैं, लेकिन राजा मनमोहन सिंह कैबिनेट के बहुत महत्वपूर्ण मंत्री थे. वह ऐसे मंत्री थे, जो सिर्फ मंत्री ही नहीं थे, बल्कि इतने हेकड़ीबाज़ मंत्री थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री को एक खत लिखा, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से कहा कि उनके मंत्रालय द्वारा किए हुए किसी भी काम में प्रधानमंत्री कार्यालय को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है और प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप नहीं किया. प्रधानमंत्री कार्यालय का मतलब आख़िरी तौर पर प्रधानमंत्री होता है और छोटे तौर पर वहां का एक डायरेक्टर या ज्वाइंट सेक्रेट्री होता है.

बड़े अ़फसोस की बात है कि हमारे राजनेता चुप रहने में भलाई समझते हैं. उन्हें यह नहीं मालूम कि सुब्रह्मण्यम स्वामी दोधारी तलवार हैं. सुब्रह्मण्यम स्वामी कांग्रेस के ऊपर भी वार करेंगे और करुणानिधि के लोगों पर भी वार करेंगे. सुब्रह्मण्यम स्वामी एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने अकेले खड़े होकर टू जी स्पेक्ट्रम की लड़ाई लड़ी. तो क्या तुरुप का इक्का प्रधानमंत्री कार्यालय से निकल कर सुब्रह्मण्यम स्वामी के पास आ गया है. तुरुप के इक्के से मतलब यह डर दिखाना कि मेरे पास एक ऐसा पत्ता है, जिसे अगर मैं खोल दूं तो हारी हुई बाज़ी जीत सकता हूं.

प्रधानमंत्री कार्यालय की रचना के बारे में जानना हम सबके लिए ज़रूरी है. प्रधानमंत्री कार्यालय में बहुत सारे ज्वाइंट सेक्रेट्री होते हैं. उन सारे ज्वाइंट सेक्रेट्रीज के बीच में केंद्रीय सरकार के जितने विभाग हैं, वे बंटे हुए होते हैं. उस ज्वाइंट सेक्रेट्री की ज़िम्मेदारी यह होती है कि वह उन विभागों के ऊपर नज़र रखे और वहां अगर कुछ गड़बड़ी हो रही है तो फौरन प्रधानमंत्री को इसकी जानकारी दे. क्या प्रधानमंत्री कार्यालय में जिस ज्वाइंट सेक्रेट्री के पास संचार मंत्रालय का ज़िम्मा था, उसने संचार मंत्रालय में होने वाली गड़बड़ियों के बारे में प्रधानमंत्री को नहीं बताया? यह जांच कैबिनेट सेक्रेट्री और प्रधानमंत्री को करनी चाहिए कि क्यों ऐसा हुआ, क्यों उनको जानकारी नहीं मिली, कहीं इसमें ज्वाइंट सेक्रेट्री का भी इंटरेस्ट था क्या? लेकिन राजा का कहना है कि उन्होंने सब कुछ प्रधानमंत्री को बताकर किया. राजा के इस सवाल का जवाब इस सरकार में किसी को तो देना चाहिए. भले ही आप यह कह दें कि राजा ग़लत कह रहे हैं. मंत्रिमंडल की कार्यप्रणाली उन दिनों ऐसी थी कि मंत्री अपने मंत्रालय के काम का ज़िम्मेदार होता था. अगर प्रधानमंत्री कार्यालय यह कह दे तो मान लिया जाएगा कि संचार मंत्रालय में हुए सारे कामों की ज़िम्मेदारी, जिनमें घोटाले भी शामिल हैं, ए राजा के ऊपर है, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने अभी तक यह नहीं कहा या प्रधानमंत्री ने अभी तक यह नहीं कहा.

बड़े अफसोस की बात है कि हमारे राजनेता चुप रहने में भलाई समझते हैं. उन्हें यह नहीं मालूम कि सुब्रह्मण्यम स्वामी दोधारी तलवार हैं. सुब्रह्मण्यम स्वामी कांग्रेस के ऊपर भी वार करेंगे और करुणानिधि के लोगों पर भी वार करेंगे. सुब्रह्मण्यम स्वामी एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने अकेले खड़े होकर टू जी स्पेक्ट्रम की लड़ाई लड़ी. तो क्या तुरुप का इक्का प्रधानमंत्री कार्यालय से निकल कर सुब्रह्मण्यम स्वामी के पास आ गया है. तुरुप के इक्के से मतलब यह डर दिखाना कि मेरे पास एक ऐसा पत्ता है, जिसे अगर मैं खोल दूं तो हारी हुई बाज़ी जीत सकता हूं. जिन लोगों ने टू जी स्पेक्ट्रम में पैसे खाए, उनके तार या उनका जोड़ किस-किस से है, क्या इसकी जानकारी सुब्रह्मण्यम स्वामी के पास पहुंच चुकी है. सुब्रह्मण्यम स्वामी का आत्मविश्वास तो कुछ ऐसा ही कह रहा है, लेकिन शायद वह नाम इसलिए नहीं ले पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास कुछ सबूत हैं, सारे सबूत नहीं हैं. मान लीजिए, सुब्रह्मण्यम स्वामी वे सबूत खोल दें तो उनके ऊपर आंदोलन कौन करेगा या उनका नोटिस कौन लेगा. सवाल जितना सीधा है, जवाब भी उतना ही सीधा है. आंदोलन जनता कर सकती है और नोटिस सुप्रीम कोर्ट ले सकता है, लेकिन हिंदुस्तान की जनता के मन में विश्वास नहीं है कि इस मामले का कुछ भी हल निकलेगा. जनता को लगता है कि कुछ समझौते होंगे, कुछ लेनदेन होंगे, कुछ लंबी-चौड़ी बातें होंगी, फिर कुछ लीपापोती की बातें होंगी और अंत में इस कांड से कुछ नहीं निकलेगा. ठीक उसी तरह, जैसे हिंदुस्तान में अब तक हुए बड़े-बड़े घोटालों में से किसी के बारे में भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया. लेकिन यह स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. जनता अपने शासक में ईमानदारी भी देखना चाहती है, गतिशीलता भी देखना चाहती है और विश्वसनीयता भी देखना चाहती है. इसलिए अगर हम साधारण पत्रकारों की बात पर यह सरकार ध्यान दें तो हम विनम्रता से यही कहना चाहेंगे कि लोगों के मन में आप इतना विश्वास ज़रूर बैठाइए कि अब तक नहीं हुआ, कोई बात नहीं, लेकिन अब कुछ न कुछ ज़रूर होगा. यह विश्वास सरकार बैठाएगी या सुप्रीम कोर्ट, पता नहीं, लेकिन अपेक्षा दोनों से है.


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