अब आतंकवाद को लेकर बहस चल रही है और टाइगर मेमन का नाम किसी न किसी बहाने हमारे बीच आ रहा है. याकूब मेमन की फांसी से सवा घंटे पहले टाइगर मेमन ने अपनी मां से बातचीत की और मुंबई पुलिस का दावा है कि उसने वह रिकॉर्डिंग सेव कर रखी है. टाइगर मेमन आज के इस आधुनिक युग में अगर किसी रिश्तेदार के साथ फोन पर बातचीत करे और वह रिश्तेदार उसकी मां से या उसके घर वालों से बातचीत करा दे, यह असंभव तो नहीं और ऐसा पिछले बीस वर्षों में कितनी बार हुआ होगा, पता नहीं. लेकिन, अचानक हमारे टीवी चैनल और सोशल मीडिया के लोग इतने मासूम बन जाते हैं कि उन्हें लगता है कि बीस वर्षों में टाइगर मेमन ने स़िर्फ एक बार अपनी मां से उसके फोन पर बातचीत की. कोई भी किसी के फोन से, किसी के नौकर के ज़रिये बात कर सकता है और वह जहां से फोन कर रहा है, दुनिया के किसी भी हिस्से से, ज़रूरी नहीं कि अपने नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल से फोन करे, पर हम इसे एक बड़ी खबर बना रहे हैं.
दूसरी बड़ी ़खबर उधमपुर में ज़िंदा पकड़े गए 22 वर्षीय युवक की है, जिसके कई नाम सामने आए हैं. हम उसके पहले नाम कासिम का इस्तेमाल करते हैं. कासिम लोगों के सवालों के जवाब हंस-हंस कर दे रहा है, उसके चेहरे पर पकड़े जाने की कोई शिकन नहीं है. वह यह भी कहता है कि उसे लोगों को मारने में मजा आता है. वहां बैठे लोग पूछते हैं, तुम हिंदुस्तान ट्रेन से आए या बस से? तो वह कहता है, ट्रेन और बस यहां आती होती, तो मैं उसी से आ जाता, पर मैं तो जंगल-जंगल आया. अब रा़ेज एक नई ़खबर उसके बारे में उड़ रही है. पर चिंता की बात यह नहीं है. इसमें एक ही चिंता की बात है कि किसी भी आतंकवादी को पकड़ कर हम उसका तत्काल लाइव डेमोंस्ट्रेशन सारी दुनिया के सामने करते हैं, तो हम अपना केस वहां थोड़ा कमज़ोर कर लेते हैं. अगर हम दुनिया के सामने स़िर्फ यह कहते कि एक व्यक्ति पकड़ा गया और फिर उससे सारी जानकारी लेने के बाद उसे दुनिया के सामने लाते, उसके बयान के साथ, तो शायद हमें ज़्यादा फायदा होता, पर कासिम के केस में ऐसा नहीं हुआ.
चिंता की बात यह है कि जैसे ही टेलीविजन के ऊपर बहस शुरू हुई, पाकिस्तान के पत्रकारों ने कहा कि जिस व्यक्ति को आपने पकड़ा है, वह पाकिस्तान का नहीं है, क्योंकि उसके मुंह से निकली भाषा खालिस उर्दू नहीं है. पंजाब के जितने मुसलमान हैं, वे खालिस उर्दू नहीं बोलते, पंजाबी मिश्रित उर्दू बोलते हैं, जैसे हिंदुस्तान में बोलते हैं. कासिम बता रहा है कि वह पंजाब से जुड़ा हुआ है और उसके भाई किसी स्कूल में पढ़ाते हैं. उसके पिता का इंटरव्यू आया कि उन्हें अपनी और अपने परिवार की जान का खतरा है, क्योंकि आतंकवादी और पाकिस्तानी सेना उनके ऊपर नज़र गड़ाए हैं. यह भी चिंता की बात ज़रूर है, लेकिन यह पाकिस्तान के अंदर का मसला है. चिंता की बात पत्रकारों के बीच की है. जिस तरह से टेलीविजन के ऊपर बहस शुरू हुई, उसमें पाकिस्तान के पत्रकार अपने विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बन गए और हिंदुस्तान से जो लोग बहस कर रहे थे, खासकर टेलीविजन के एंकर, उनकी भाव-भंगिमा देखकर ऐसा लग रहा था, मानो वे तत्काल पाकिस्तान के ऊपर हमला करने की सलाह भारत सरकार को दे रहे हों. उनके हाव-भाव से ऐसा लगा रहा था, चूंकि दो लोगों ने हमला किया, जिसमें हमारे बीएसएफ के दो जवान मारे गए और 20-25 घायल हुए, इसलिए हमें तत्काल पाकिस्तान के ऊपर हमला बोल देना चाहिए.
मेरे मन में एक सवाल उठता है कि क्या दुनिया या भारत और पाकिस्तान तनाव के उस बिंदु पर पहुंच गए हैं कि कोई एक अ़फवाह उड़ा दे और हम युद्ध कर डालें. अक्सर भारत में सांप्रदायिक दंगों की वजह ऐसी छोटी-छोटी चीजें होती हैं. छोटी चीजों का मतलब यह कि अ़फवाह फैलती है कि किसी एक धर्म के लड़के की साइकिल दूसरे धर्म के लड़के की साइकिल से टकरा गई, गाली-गलौच हुआ और फिर मामला सांप्रदायिक तनाव में बदल गया. ऐसी घटनाएं बहुत सारे सांप्रदायिक दंगों की जड़ में दिखाई दीं. क्या कोई एक संगठन, 10-12 लोगों का संगठन हिंदुुस्तान में हो या पाकिस्तान में, वह इतनी क्षमता रखता है कि एक ऐसी घटना को अंजाम दे, जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध हो जाए. और, युद्ध होने की स्थिति में पाकिस्तान कहे कि हम परमाणु शक्ति संपन्न हैं, बम छोड़ देंगे और हिंदुुस्तान भी कहे कि हम परमाणु शक्ति संपन्न हैं, बम छोड़ देंगे. पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों ही हलवा नहीं हैं. आज के जमाने में जबकि तकनीक अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है, तब यह सोचना कि एक ऐसी घटना दंगा कराने की जगह दो देशों में युद्ध करा सकती है, अ़फसोसनाक नहीं, तो क्या है?
मीडिया, जिसके ऊपर दोनों देशों के बीच तनाव घटाने की भी ज़िम्मेदारी है, वह तनाव घटाने की जगह दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा रहा है. अच्छा तो यह होता कि मीडिया ऐसे सवालों के ऊपर भारत और पाकिस्तान के प्रबुद्ध नागरिकों की एक-दूसरे के मुल्क में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कराता और बात कराता. पाकिस्तान के हमारे सिविल सोसायटी के दोस्त फोन करके बताते हैं कि उनका समाज किस तरह आतंकवाद से पीड़ित है और अक्सर कहीं न कहीं दहशतगर्द या आतंकवादी कोई न कोई शिगूफा छोड़ देते हैं, जिससे वहां के लोगों की ज़िंदगी मुश्किल में पड़ जाती है. लड़कियों का स्कूल जाना तो मुसीबत है ही. यह माहौल पूरे पाकिस्तान में पता नहीं क्यों बन गया कि लड़कियों की शिक्षा इस्लाम के ख़िला़फ है? इसके बावजूद पाकिस्तान के लड़कियों के कॉलेज ज़िंदगी से भरपूर हैं, हंसी-कहकहों से भरपूर हैं और वे लोग उन सवालों को बहुत ज़्यादा नहीं मानते, जिन्हें हमारे तथाकथित धार्मिक ठेकेदार सवाल बनाकर खड़ा करते हैं. हिंदुस्तान से जो लोग पाकिस्तान जाते हैं और जो लोग वहां के शिक्षा संस्थानों में जाते हैं, उनके अनुभव ऐसे ही हैं. पहले तो वहां के बच्चे, खासकर स्कूलों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले वे सवाल दागते हैं, जो पाकिस्तान सरकार वहां के मीडिया के ज़रिये लोगों के दिमाग में घुसाती है. पर जैसे ही उन सवालों पर बातचीत होती है, दोनों ओर की हंसी-कहकहे एक जैसे हो जाते हैं.
पाकिस्तान और हिंदुुस्तान का एक फर्क और है. वह फर्क है कि अगर पाकिस्तान में किसी को यह पता चले कि फलां शख्स हिंदुस्तान से आया है, तो वे उसकी इतनी आवभगत करते हैं कि क्या कहने! वहां के दुकानदार बहुत सारी जगहों पर तो पैसेे लेते ही नहीं और जहां पैसे लेते हैं, वहां स़िर्फ लागत लेते हैं. यह स्थिति आज भी है, जब मैं ये बातें लिख रहा हूं. दूसरी तऱफ हिंदुस्तान की सिविल सोसायटी के लोग किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तान से लड़ाई नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि लड़ाई होने की स्थिति में स़िर्फ दो-चार लोग नहीं मरेंगे, ग़रीबों के परिवारों के हज़ारों जवान शहीद हो जाएंगे. वह शहादत हिंदुस्तान की तऱफ से भी होगी और पाकिस्तान की तऱफ से भी, लेकिन नतीजा किसी को कुछ मिलेगा नहीं. पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ जैसे लोग हैं, जो कहेंगे कि करगिल हमने जीत लिया और भारत करगिल की हार पचा नहीं पा रहा है, जबकि हम सुबूतों के साथ कहेंगे कि करगिल हमने जीता और पाकिस्तान को पीछे खदेड़ दिया. हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह, सिविल सोसायटी को लगता है कि ये चीजें मीडिया के लिए ठीक हैं, लोगों को भरमाने के लिए ठीक हैं, लेकिन सच्चाई यह नहीं है. बल्कि सच्चाई यह है कि उस लड़ाई से हिंदुस्तान को भी बहुत ऩुकसान हुआ और पाकिस्तान को भी. और, दोनों की विकास की गति धीमी पड़ी.
आज ऐसा लगता है कि सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी भारत और पाकिस्तान के मीडिया की है कि वह चीजों को भावनात्मक तरीके से न देखकर वास्तविक तरीके से देखे और ऐसे लोगों को पिन प्वाइंट करे, जो चाहते हैं कि दोनों देशों में लड़ाई हो और किसी भी एक घटना को लड़ाई का केंद्र बना लें. कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी के ऊपर हमला करती है कि वह पहले कहती थी कि हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे, तो अब पत्थर क्यों नहीं चलाती, गोलियां क्यों नहीं चलाती, बम क्यों नहीं चलाती? भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि पाकिस्तान के ऊपर हमला करो. वे यह भूल जाते हैं कि दोनों देशों की लड़ाई क्या-क्या ऩुकसान करती है. और आज के जमाने में, जबकि दोनों के पास विनाशकारी हथियार हैं, ऩुकसान की कल्पना सहज की जा सकती है. क्या किसी आतंकवादी समूह को यह इजाजत दी जानी चाहिए, विशेषकर मीडिया की तऱफ से कि वह कोई घटना करे और पूरा मीडिया उसके समर्थन में युद्ध कराने पर उतारू हो जाए. यह बात पाकिस्तान के ऊपर भी लागू होती है और हिंदुस्तान के ऊपर भी.
इसीलिए मैं फिर आतंकवाद की बात पर आता हूं. आतंकवाद एक ऐसा ज़हर है, जिसने दोनों देशों का विकास अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है. राजनीतिक कारण एक तऱफ. पाकिस्तान में क्यों विकास नहीं हो पा रहा है, हिंदुस्तान में विकास की शुरुआत, जिसका वादा प्रधानमंत्री ने किया, अब तक क्यों नहीं हो पा रही है, यह अपनी जगह है. लेकिन, क्या सिविल सोसायटी या मीडिया के लोग युद्ध कराने के पक्ष में तर्क गढ़ेंगे? यही सवाल पाकिस्तान के मीडिया से है कि क्या वह चाहता है कि भारत और पाकिस्तान लड़ें और दोनों तऱफ के लाखों लोग मर जाएं. हज़ारों मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं, क्योंकि अगर कहीं दिमागी संतुलन बिगड़ा और परमाणु युद्ध हो गया, तो दो तिहाई से ज़्यादा पाकिस्तान नष्ट हो जाएगा और एक तिहाई हिंदुस्तान नष्ट हो जाएगा. और जो बचेंगे, वे लूले-लंगड़े होंगे.
मैं युद्ध से डरने की बात नहीं कर रहा, युद्ध न होने देने की बात कर रहा हूं, क्योंकि मानवता को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी जितनी मीडिया की है, सिविल सोसायटी की है, उतनी सरकार और राजनीतिक दलों की नहीं है. अ़फसोस की बात यह है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के राजनीतिक दल देश का हित नहीं सोचते. वे अपने प्वॉइंट स्कोर करने के लिए कुछ भी अनाप-शनाप उलूल-जुलूल तर्क गढ़कर सामने आ जाते हैं. उससे भी बड़ा अ़फसोस यह है कि हमारे मीडिया के साथी, चाहे वे हिंदुस्तान के हों या पाकिस्तान के, दोनों इस सवाल के ऊपर बिल्कुल एक रुख अपनाते हैं, मारो-काटो, नेस्त-ओ-नाबूद कर दो.
मैं आशा करता हूं कि ईश्वर और अल्लाह दोनों को सद्बुद्धि देगा. पर सबसे बड़ी आशा मैं सिविल सोसायटी से करता हूं, जो इन तर्कों के फेर में नहीं पड़ रही है, इनके जाल में नहीं पड़ रही है. मीडिया की किसी भी उत्तेजक बहस को लोग मनोरंजन की तरह देखते हैं, हक़ीक़त के तौर पर नहीं. यह बात मीडिया को जिस दिन समझ में आ जाएगी, वह मनोरंजन की श्रेणी से निकल कर सचमुच समाचारों की श्रेणी में पहुंच जाएगा.